वर्णीजी-प्रवचन:युक्त्यनुशासन - गाथा 19
From जैनकोष
तत्त्वं विशुद्धं सकलैर्विकल्पै-
र्विश्वाऽभिलाखापाऽऽस्पदतामतीतम् ।
न स्वस्य वेद्यं न च तन्निगद्यं
सुषुप्त्यवस्थं भवदुक्ति बाह्यम् ।।19।।
(72) विज्ञानाद्वैतवादियों का अपना संकल्पित मंतव्य―विज्ञानवादियों का यह कहना है कि यह विज्ञानमात्र तत्त्व समस्त विकल्पों से रहित है । विज्ञानमात्र तत्त्व में न तो कार्यकारण का विकल्प है कि यह पदार्थ कार्य है और यह पदार्थ कारण है । वे तो व्यर्थ के विकल्प हैं, ऐसा विज्ञानवाद में बताया है । इसी प्रकार विज्ञानवाद के तत्त्व में ग्राह्य-ग्राहक का भी विकल्प नहीं कि यह ज्ञान ग्रहण करने वाला है और इस ज्ञान से इस तत्त्व को ग्रहण किया है याने ज्ञान में जाना है और उसमें यह जाना गया ऐसा ग्राह्य ग्राहक का भी वहाँ भेद नहीं बन सकता, क्योंकि तत्त्व विज्ञानमात्र है, अद्वैत है, ग्राह्य-ग्राहक मानने से द्वैत बन जायेगा आदिक दो सत्त्व बन जायेंगे । सो विज्ञानवादियों को ये कोई विकल्प इष्ट नहीं हैं, इसी प्रकार वास्य-वासक भाव भी नहीं बन सकता याने किसी पुरुष ने कोई मन में वासना बनायी हो और उसको वासना में किसी पदार्थ का आलंबन हो यह विकल्प भी विज्ञान-अद्वैत में नहीं है । इसी प्रकार साध्य-साधन का भी विकल्प विज्ञानमात्र तत्त्व में नहीं है, क्योंकि वह तो अद्वैत को ही सिद्ध कर रहा, द्वैत पसंद ही नहीं करता । जानने में युक्ति देना, यह भी विज्ञानाद्वैतवादियों को इष्ट नहीं है । इसी प्रकार बाध्य-बाधक भाव भी विज्ञानाद्वैतवादियों को इष्ट नहीं है । बाधक भाव मायने जो भाव कोई विघ्न डाले, दूसरे को निग्रह करे और बाध्य भाव मायने जो बाधित होवे, जिसको दूर किया जा सके, रोका जा सके, वह है बाध्यभाव । तो ऐसा बाध्य-बाधक भाव मानने में नहीं है, इसी तरह वाच्य-वाचक भाव भी इष्ट नहीं है । यह शब्द वाचक है और इस शब्द ने इस अर्थ को बताया है याने यह अर्थ वाच्य है ऐसा भी भेद विज्ञानाद्वैतवाद में नहीं है, ऐसा विज्ञानाद्वैतवादी कहते हैं ।
(73) सकलविकल्पशून्य विज्ञानाद्वैत तत्त्व की स्वसंवेद्य न हो सकने से असिद्धि―विज्ञानाद्वैतवादियों का उक्त कथन युक्तिसंगत नहीं, क्योंकि जो विकल्प से सर्वथा शून्य है वह स्वसंवेद्य नहीं हो सकता याने और विकल्प चाहे रहें या न रहें मगर ग्राह्यग्राहक विकल्प तो रहेंगे ही । तब तो विज्ञानाद्वैतवाद की सिद्धि होगी । उस विज्ञानमात्र अंतस्तत्त्व को किसने ग्रहण किया ? किसने जाना
और उसके जानने में यह विज्ञानमात्र तत्त्व आया इसका भी ग्राह्मग्राहक भाव न हो तो विज्ञानाद्वैत का प्रतिभास नहीं हो सकता । और यदि यह मान लिया जाये कि ग्राह्यग्राहक भाव होने दो, विकल्पात्मक संवेदन होने दो तो
अब मूल प्रतिज्ञा न रही कि विज्ञानाद्वैत तत्त्व समस्त विकल्पों से रहित है, ऐसा मंतव्य तो संगत न रहा ।
(74) विज्ञानाद्वैत तत्त्व के सर्वथा अनभिलाप्यत्व की असिद्धि―विज्ञानाद्वैतवादी अपने तत्त्व को निर्विकल्प बतलाते हैं, पर साथ-साथ वे शब्दरहित भी बतलाते हैं याने विज्ञानाद्वैत तक समस्त कथन प्रकारों की आश्रयता से रहित है याने उस विज्ञानमात्र तत्त्व को कहने वाला कोई शब्द ही नहीं है । वह तत्त्व तो सब कल्पनाओं से शून्य है । जाति, गुण, द्रव्य, क्रिया, संकेत इनकी कल्पना ही नहीं मानी है विज्ञानाद्वैतवादियों ने । तो जब सर्व कल्पनाओं से शून्य हो गया, जहाँ किसी भी प्रकार के शब्द और संकेत की प्रवृत्ति ही नहीं है तो ऐसे तत्त्व के लिए विकल्पात्मक शब्द का प्रयोग किया ही नहीं जा सकता याने किसी भी शब्द से उसका प्रयोग न होना चाहिए । विज्ञानमात्र यह शब्द भी कहां से लाये हैं विज्ञानाद्वैतवादी? और अगर लाये हैं तो इतना तो मानना ही पड़ेगा कि विज्ञानाद्वैत अथवा विज्ञानमात्र तत्त्व; ये शब्द तो वाचक हो गए और इन शब्दों से जो बुद्धि बनाई गई है उस बुद्धि में जो ज्ञेय बना है वह इसका विज्ञानमात्र तत्त्व है । तो वाच्य-वाचकभाव ग्राह्य-ग्राहक भाव - ये अगर नहीं हैं तो मूल से ही वह विज्ञानमात्र तत्त्व नहीं बनता ।
(75) पदार्थप्रतिषेधक विज्ञानाद्वैत की मान्यता वालों का विडंबित विचार―यहां कुछ कारिकाओं से क्षणिकवादियों के मत की समालोचना चल रही है । क्षणिकवादियों में कोई तो पदार्थ को मानते हैं । मानते क्षणिक ही हैं तो उनकी समालोचना बहुत की जा चुकी है । अब उनमें कोई विज्ञानमात्र तत्त्व को ही मानते हैं । पदार्थ को मानते ही नहीं, पदार्थ को तो वे यह बतलाते हैं कि जैसे स्वप्न में पदार्थ जाना जाता है, किंतु पदार्थ है नहीं, ऐसे ही सब अवस्थाओं में कभी पदार्थों का विकल्प तो होता है, मगर पदार्थ है नहीं, है केवल विज्ञानमात्र ही । तो इस विज्ञानमात्र तत्त्व की सिद्धि नहीं हो पा रही है । अत: हे वीर प्रभु ! जो आपके स्याद्वाद से अलग है, ऐसा कोई भी सर्वथा एकांतवाद हो; जैसे यहाँ विज्ञानाद्वैत तत्त्व की चर्चा चल रही है वह सुसुप्ति अवस्था को प्राप्त है याने यह अब भी हो या हुआ ही रहने दो । उसकी सिद्धि नही हो सकती, क्योंकि विज्ञानाद्वैत मानने पर न तो उसमें विकल्प की कोई गुंजाइश रखी और न किसी शब्द की गुंजाइश रखी, तो भला जहाँ कोई विकल्प ही न बने याने निर्णय ही न बने और किसी शब्द का प्रयोग ही न हो सके तो वह तत्त्व कैसे सिद्ध हो सकता है? उसे तो सोया हुआ ही समझ लीजिए ।
(76) पदार्थप्रतिषेधक विज्ञानाद्वैत को मानने वालों के प्रति एक उदाहरण―जैसे सोये हुए पुरुष की जो अवस्था होती है वही अवस्था इन विज्ञानाद्वैतवादी गुरुवों की समझिये । यहाँ यह फलित अर्थ समझिये कि जो बात ऋजुसूत्रनय में मानी गई है वही बात इन क्षणिकवादियों ने मानी है । अंतर यह है कि स्याद्वादियों के ऋजुसूत्रनय में ऋजुसूत्रनय की बात कहकर भी स्याद्वाद का आश्रय रहता है याने द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा रहती है । निरपेक्षनय तो मिथ्या हुआ करता है । तो उस ऋजुसूत्रनय में यह जान जाये कि विज्ञानमात्र तत्त्व याने आत्मा का सिर्फ ज्ञान-सामान्य-स्वरूप, वह विकल्प और शब्दों से रहित है याने जो ज्ञान की निजी तरंग है उस तरंग में विकल्प नहीं स्वभावत: मूल में और शब्द भी नहीं । हाँ;ं व्यवहारनय का आलंबन करने पर वह विकल्प और शब्दों का आधार बन जाता है, सो वह विज्ञानमात्र तत्त्व सविकल्प भी है, निर्विकल्प भी है, शब्द द्वारा वाच्य भी है और शब्द द्वारा अवाच्य भी है । यह सब बात हे वीर प्रभु ! आपके शासन में तो संगत है, पर जो स्याद्वाद का आश्रय छोड़कर एकांतवाद में आते हैं उनके किसी भी प्रकार की गति नहीं बन सकती ।