वर्णीजी-प्रवचन:इष्टोपदेश - श्लोक 10
From जैनकोष
विराधकः कथं हन्त्रे जनाय परिकुप्यति।
त्र्यंगुलं पातयन् पद्भ्यां स्वयं दण्डेन पात्यते।।१०।।
प्रत्ययकारी पर क्रोध करने की व्यर्थता—कोई पुरुष किसी दूसरे का घात करना चाहता हो, सताता हो या घात किया हो तो वह जीव भी किसी न किसी समय सतायेगा, बदला लेगा। जब कोई सता रहा हो तब यह सोचना चाहिए मैने इसे सताया होगा, क्लेश पहुँचाया होगा पहिले तो यह प्रतिकार कर रहा है, इस पर क्या क्रोध करना? जैसा मैने किया तैसा इसके द्वारा मुझे मिल रहा है। जैसे कोई पुरुष भूसा, काठ या लोहे के बने हुए तिरंगुल से समेटते हैं, उसमें तीन अंगुलियां सी बनी होती है, उसके चलाने पर चलाने वाला आदमी भी झुक जाता है। वह तिरंगुल चलाने वाला जब भूस समेटता है तो जमीन पर वह अपने पैर भी चलाता जाता है। यदि वह दोनों पैरो से चलावे तो एकदम लट्ठ की तरह गिर जावेगा। उदाहरण में यह बात कही गयी है कि जो दूसरे को मारता है वह भी उस दूसरे के द्वारा कभी मारा जाता है, जो दूसरे को सताता है वह भी कभी उस दूसरे के द्वारा सताया जाता है। जब कोई सताये तो यह सोचना चाहिए कि इस पर क्या क्रोध करना, मैंने ही किसी समय में इसका बुरा किया है। कर्म बंध किया है उसके हृदय में यह घटना आ गयी है। इसमें दूसरे पर क्या क्रोध करना है?
रोष और द्वेष भावनामें बरबादी—इस दृष्टान्त में दूसरी बात यह भी जानना कि भुसे को समेटने वाला तो तिरंगुल होता है, उसे चलाते हैं और साथ ही पैर घसीटते हैं ताकि भुसा आसानी से इकट्ठा हो जाय। कोई पुरुष एक पैर से तिरंगुल ढकेलता है और कोई पुरुष दोनों पैरों से ढकेले तो वह पुरुष ही गिर जायगा, ऐसे ही जो पुरुष तीव्र कषाय करके किसी दूसरे पुरुष का घात करता है, अपमान करता है, सताता है तो वह पुरुष ही स्वयं अपमानित होगा और कभी विशेष क्लेश पायगा। इस कारण अपना मन बिल्कुल स्वच्छ रखना चाहिए। किसी का बुरा न सोचा जाय, सब सुखी रहे। जो पुरुष सबके सुखी होने की भावना करेगा वह सुख रहेगा और जो पुरुष दूसरे की दुःखी होने की भावना करता है वह चूंकि संक्लेश परिणाम बिना कोई दूसरे के दुःखी होने की सोच नहीं सकता, सो जिस समय दूसरे को दुःखी होने की बात सोची जा रही है उस समय में यह स्वयं दु:खी हो रहा हे जो दूसरे का दु:खी होना सोचेगा वह दूसरों के प्रति सोचकर अपने व्यग्रता बढ़ा रहा है।
अपकार में प्रत्ययकार की प्राकृतिकता—लोक मे जो पुरुष दूसरे को सुख पहुँचाता है दूसरे भी उसे सुख पहुँचाते हैं। अभी यहाँ ही देख लो—किसी से विनय के वचन बोलो तो दूसरे से भी इज्जत मिलेगी और खुद टेढ़े कठोर वचन बोंलेगे, तो दूसरों से भी वैसे ही वचन सुनने को मिलते हैं, वैसा ही व्यवहार देखने को मिलता है। तो जब यह सुनिश्चित है कि हम जैसा दूसरे के प्रति सोचेंगे, वैसा ही मुझे होगा, तब अपकार करने वाले मनुष्य का बदले में कोई में कोई दूसरा अपकार कर रहा है तो उस पर क्रोध करना व्यर्थ है। जो किया है सो भोगा जा रहा है। अब यदि उस पर क्रोध करते हैं तो एक भूल और बढ़ाते हैं। पूर्व काल में भूल किया था उसका फल तो आज भोग रहे हैं और उसी भूल को अब फिर दुहरायेंगे तो भविष्य में फिर दुःख भोगना पड़ेगा। अब कोई पुरुष अपकार करता हो, अपनी किसी प्रकार की बरबादी में कारण बन रहा हो तो यह सोचना चाहिए कि यह पुरुष जो मेरा उपकार कर रहा है बुरा कर रहा है, अथवा मेरी किसी विपत्ति के ढोने में सहायक हो रहा है तो उसने जो कुछ इसके साथ बुरा किया था उसका यह बदला दे रहा है। उसे इस पर रूष्ट होने की क्या आवश्यकता है?
करणीय विवेक—भैया! तत्त्वज्ञानमें अपूर्व आनन्द है, अपूर्व शान्ति है। कोई तत्त्व ज्ञान के ढिग न जाये और शान्ति चाहे तो यह कभी हो नहीं सकता कि शान्ति प्राप्त हो। इससे जो अपना बुरा कर रहा हो उसके प्रति यही सोचना चाहिए या हिम्मत हो ऐसी तो ऐसा काम करें जिससे ऐसा बदला लिया जा सके जो वह जीवन भर भी श्रम करता रहे। वह बदला है भलाई करनेका, कोई पुरुष अपना अपकार करता है तो हम उसकी भलाई करे, वह पुरुष स्वयं लज्जित होगा और आपकी सेवा जीवन भर करेगा, एहसान मानेगा। बुरा करने वाले के प्रति हम भी बुराई की बात करने लगे, कोई अपने पर किसी तरह विपदा ढाता है तो हम भी उस पर विपदा ढाने लगें तो इससे शांति का समय न मिल सकेगा, विरोध ही बढ़ेगा, अशान्ति ही बढेगी। इससे अपकार करने वाले का बहुत तगड़ा बदला यह है कि उसका भला कर दे तो वह जीवनभर अनुरागी रहेगा और किसी समय बहुत काम आयेगा।
मानवता के अपरित्याग में कल्याण—भैया ! बुरा करने वाले के प्रति खुद बुरा करने लगें तो उसमें लाभ नहीं है सज्जनता भी नहीं है, बड़प्पन भी नहीं है। वहाँ तो ऐसी स्थिति हो जायगी, जैसे पुराणों में एक घटना आयी है कि कोई साधु जंगल में नदी के किनारे किसी शिला पर रोज तपस्या किया जाता था। साधु चर्या विधि से आहार के समय किसी निकट के गाँव चला जाता था और आहार लेकर लौटने पर उसी शिला पर तपस्या करता था। वह शिला बहुत अच्छी थी। एक दिन साधु के आने के पहिले एक धोबी आकर उस पर कपड़े धोने लगा। साधु ने देखा कि धोबी उस शिला पर कपड़े धो रहा है, सो कहा कि यहाँ से तुम चले जावो, अन्य जगह कपड़े धो लो, यह शिला हमारे तपस्या करने की है। धोबी ने कहा—महाराज तपस्या तो किसी भी जगह बैठकर की जा सकती है, पर कपड़े धोने के लिए तो यह ही शिला ठीक है। आखिर दोनों में बात बढ़ी। साधु ने धोबी के दो तमाचे मार दिये। धोबी को भी गुस्सा आया तो उसने भी मार दिया। अब वे दोनों बहुत जूझ गये तो धोबी पहिने था तहमद, सो वह छूट गया, अब दोनों नग्न हो गए। अब तो दोना एक से ही लग रहे थे। बहुत विवाद के बाद वह साधु ऊपर को निगाह करके कहने लगा कि अरे देवताओं, तुम्हें कुछ खबर नही है कि साधु के ऊपर संकट आ रहा है? तो आकाश से आवाज आयी की महाराज देवता तो सब धर्मात्मावों की रक्षा करने को उत्सुक है, पर हम सब लोग इस संदेह मं पड़ गए है कि इन दोनों में साधु कौन है और धोबी कौन है? एक सी दोनों के कषाय है, एकसी लड़ाई है, एक ऐसी गाली-गलौज है तो उसमें कैसे निपटारा हो कि अमुक साधु है और अमुक धोबी है।
सन्मार्ग का सहारा—भैया ! बुरा करने वाले का बुरा करने लग जाना यह कोई अच्छा प्रतिकार नहीं है। सज्जनता तो इसमें है कि कुछ परवाह न करो कि कोई मेरा क्या सोचता है, तुम सबका भला ही सोच लो। एक यही काम करके देख लो। किसी का बुरा करने में तो खुद को भी संक्लेश करना पड़ेगा। तब बुरा सोच सकते हैं। जैसे किसी को गाली देना है तो अपने आपमें यह भाव लाना पड़ेगा कि गाली दे सके और किसी को सम्मान भरी बात कहना है तो उसमें शान्ति से बात कर सकते हो। इससे यह निर्णय रक्खो कि हमारा कर्तव्य यह है कि हम सब जीवों के प्रति उनके सुखी होने की भावना करें, इसमें ही हमें सन्मार्ग प्राप्त हो सकेगा।