अजित
From जैनकोष
सिद्धांतकोष से
भ. चंद्रप्रभ का शासक यक्ष-देखें तीर्थंकर - 5.3; 2. एक ब्रह्मचारी था। ति-हनुमच्चरित्र
( युक्त्यनुशासन प्रस्तावना / 29/)।
पुराणकोष से
(1) सौधर्मेंद्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । महापुराण 25.169
(2) जरासंध का पुत्र । हरिवंशपुराण 52.35 देखें जरासंध
(3) वर्तमान चौबीस तीर्थंकरों में दूसरे तीर्थंकर । ये जंबूद्वीप के भरत क्षेत्र में साकेत नगरी के इक्ष्वाकुवंशी काश्यपगोत्री राजा जितशत्रु और रानी विजयसेना के पुत्र थे । ये ज्येष्ठ मास की अमावस्या के दिन सोलह स्वप्नपूर्वक माता के गर्भ में आये और माघ मास के शुक्लपक्ष की दशमी ( हरिवंशपुराण के अनुसार नवमी) प्रजेशयोग में आदिनाथ के मोक्ष जाने के पश्चात् पचास लाख करोड़ सागर वर्ष व्यतीत हो जाने के बाद अवसर्पिणी काल के दुषमा-सुषमा नामक चौथे काल में जन्मे थे । महापुराण 2.128, 48.19-26, हरिवंशपुराण 1.4, 60.169, वीरवर्द्धमान चरित्र 18. 101-105 जन्मते ही इनके पिता समस्त शत्रुओं के विजेता हुए थे अत: उन्होंने इन्हें इस नाम से संबोधित किया था । सुनयना और नंदा इनकी दो रानियाँ थी । दुर्वादियों से ये अजेय रहे । इनकी आयु बहत्तर लाख पूर्व थी । शारीरिक अवगाहना चार सौ पचास धनुष तथा वर्ण-तपाये हुए स्वर्ण के समान रक्त-पीत था । आयु का चतुर्थांश वीत जाने पर इन्हें राज्य मिला था । ये एक पूर्वांग तक राज्य करते रहे । इसके पश्चात् एक कमलवन को विकसित और म्लान होते हुए देखकर सभी वस्तुओं को अनित्य जानकर ये वैराग्य को प्राप्त हुए थे । इन्होंने पुत्र अजितसेन को राज्य देकर माघ मास के शुक्लपक्ष की नवमी को अपराह्न में रोहिणी नक्षत्र में निष्क्रमण किया था । ये सुप्रभा नामक पालकी में मनुष्य, विद्याधर और देवों द्वारा सहेतुक वन ले जाये गये थे । वहाँ ये एक हजार ( पद्मपुराण के अनुसार दस हजार) आज्ञाकारी क्षत्रिय राजाओं के साथ षष्टोपवाम सहित सप्तपर्ण वृक्ष के समीप दीक्षित हुए थे । दीक्षित होते ही इन्हें मन:पर्ययज्ञान हुआ था । दीक्षोपरांत प्रथम पारणा में साकेत के राजा ब्रह्मदत्त ने इन्हें आहार देकर पंचाश्चर्य प्राप्त किये थे । बारह वर्ष पद्मपुराण के अनुसार चौदह वर्ष) छद्मस्थ रहने के बाद पौष अचल एकादशी के दिन साय वेला तथा रोहिणी नक्षत्र में इन्हें केवलज्ञान प्राप्त हुआ था । ऋषभदेव के समान इनके भी चौंतीस अतिशय और आठ प्रातिहार्य प्रकट हुए थे, पादमूल में रहने वाले इनके सिंहसेन आदि नब्बे गणधर थे । समवसरण-सभा में एक लाख मुनि, प्रकुब्जा आदि तीन लाख बीस हजार आर्यिकाएँ, तीन लाख श्रावक, पाँच लाख श्राविकाएँ और देव-देवियाँ थीं । इन्होंने चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी के दिन रोहिणी नक्षत्र में प्रात:काल प्रतिमायोग से सम्मेदाचल पर मुक्ति प्राप्त की थी । तीर्थंकरत्व की साधना इन्होंने दूसरे पूर्वभव में आरंभ कर दी थी । इस समय ये पूर्व विदेह क्षेत्र की सुसीमा के विमलवाहन नामक नृप थे । इस पर्याय में इन्होंने तीर्थंकर नामकर्म का बंध किया था । पूर्वभव में ये विजय नामक अनुत्तर विमान में देव थे और वहाँ से च्युत होकर तीर्थंकर हुए थे । महापुराण 48.3-56, पद्मपुराण 5.60-73, 212, 246, 20.18-38, 61, 66-68, 83, 113, 118, हरिवंशपुराण 60 156-183, 341, 349 वीरवर्द्धमान चरित्र 18.101-105