ऋषि
From जैनकोष
सिद्धांतकोष से
1.
मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 886 समणोत्ति संजदोत्ति य रिसिमुणिसाधुत्ति वीदरागोत्ति। णामाणि सुविहिदाणं अणगार भदंत दंतोत्ति ।886।
= उत्तम चारित्र वाले मुनियों के ये नाम हैं-श्रमण, संयत, ऋषि, मुनि, साधु वीतराग, अनगार, भदंत, दान्त, यति।
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति टीका / गाथा 249 में उद्धृत-"स्यादृषिः। प्रसृतर्द्धिरारूढः।"
= ऋद्धि प्राप्त साधु को ऋषि कहते हैं।
( चारित्रसार पृष्ठ 47/1 में उद्धृत) ( सागार धर्मामृत अधिकार 7/20 में उद्धृत)
2. ऋषि के भेद व उनके लक्षण
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति टीका / गाथा 249 में उद्धृत-राजाब्रह्मा च देवपरम इति ऋषिर्विक्रियाक्षीणशक्तिप्राप्तो बुद्ध्यौषधीशो वियदयनपटुर्विश्ववेदी क्रमेण।"
= ऋषि चार प्रकार के कहे गये हैं-राजर्षि, ब्रह्मर्षि, देवर्षि और परमर्षि। तिन में विक्रिया और अक्षीण (क्षेत्र) शक्ति प्राप्त साधु राजर्षि कहलाते हैं; बुद्धि व औषधि ऋद्धि युक्त साधु ब्रह्मर्षि कहलाते हैं; आकाशगामी ऋद्धि संपन्न देवर्षि और विश्ववेदी केवल ज्ञानी अर्हंत भगवान् परमर्षि कहलाते हैं।
( चारित्रसार पृष्ठ 47/1 में उद्धृत), ( सागार धर्मामृत अधिकार 7/20 में उद्धृत)
3. अन्य संबंधित विषय
• मुख्य ऋषि गणधर हैं-देखें गणधर ।
• प्रत्येक तीर्थंकर के तीर्थ में ऋषियों का प्रमाण-देखें तीर्थंकर - 5।
• पिछले काल के भट्टारक भी अपने को ऋषि लिखने लग गये थे - जै. 2/91
पुराणकोष से
ऋद्धिधारी मुनि । ये परिग्रह रहित होकर तप करते हुए जीव रक्षा में रत रहते हैं । महापुराण 2.27-28,21.220, महापुराण 11. 58, 119.61, हरिवंशपुराण 3.61