पात्र
From जैनकोष
सिद्धांतकोष से
मोक्षमार्ग में दानादि देने योग्य पात्र सामान्य भिखारी लोग नहीं हो सकते। रत्नत्रय से परिणत अविरत सम्यग्दृष्टि से ध्यानारूढ़ योगी पर्यंत ही यहाँ अपनी भूमिकानुसार जघन्य, मध्यम व उत्कृष्ट भेदरूप पात्र समझे जाते हैं। महाव्रतधारी साधु भी यदि मिथ्यादृष्टि हैं तो कुपात्र हैं पात्र नहीं। सामान्य भिखारी जन तो यहाँ अपात्र की कोटि में गिने जाते हैं। तहाँ दान देते समय पात्र के अनुसार ही दातार की भावनाएँ होनी चाहिए।
- पात्र सामान्य का लक्षण
रयणसार/125-126 दंसणसुद्धो धम्मज्झाणरदो संगवज्जिदो णिसल्लो। पत्तविसेसो भणियो ते गुणहीणो दु विवरीदो। 125। सम्माइ गुणविसेसं पत्तविसेसं जिणेहि णिद्दिट्ठं। 126। = जो सम्यग्दर्शन से शुद्ध है, धर्मध्यान में लीन रहता है, सब तरह के परिग्रह व मायादि शल्यों से रहित है, उसको विशेष पात्र कहते हैं, उससे विपरीत अपात्र है। 125। जिसमें सम्यग्दर्शन की विशेषता है उसमें पात्रपने की विशेषता समझनी चाहिए। 126।
सर्वार्थसिद्धि/7/39/373/8 मोक्षकारणगुणसंयोगः पात्रविशेषः। = मोक्ष के कारणभूत गुणों से संयुक्त रहना यह पात्र की विशेषता है। अर्थात् जो मोक्ष के कारणभूत गुणों से संयुक्त होता है, वह पात्र होता है। ( राजवार्तिक/7/39/5/559/31 )।
सागार धर्मामृत/5/43 यत्तारयति जन्माब्धेः, स्वाश्रितान्मानपात्रवत्। मुक्त्यर्थगुणसंयोग-भेदात्पात्रं त्रिधा मतम्। 43। = जो जहाज की तरह अपने आश्रित प्राणियों को संसाररूपी समुद्र से पार कर देता है वह पात्र कहलाता है, और वह पात्र मोक्ष के कारणभूत सम्यग्दर्शनादि गुणों के संबंध से तीन प्रकार का होता है। 43।
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/260/352/15 शुद्धोपयोगशुभोपयोगपरिणतपुरुषाः पात्रं भवंतीति। = शुद्धोपयोग अथवा शुभोपयोग से परिणत जीव पात्र कहलाते हैं।
- पात्र के भेद
रयणसार/123 अविरददेसमहव्वयआगमरुइणं विचारतच्चण्हं। पत्तंतरं सहस्सं णिद्दिट्ठं जिणवरिंदेहिं। 123। = अविरत सम्यग्दृष्टि, देशव्रती, श्रावक, महाव्रतियों के भेद से, आगम में रुचि रखनेवालों तथा तत्त्व के विचार करनेवालों के भेद से जिनेंद्र भगवान ने हजारों प्रकार के पात्र बतलाये हैं।
वसुनंदी श्रावकाचार/221 तिविहं मुणेह पत्तं उत्तम-मज्झिम-जहण्णभेएण। = उत्तम मध्यम व जघन्य के भेद से पात्र तीन प्रकार के जानने चाहिए। ( पुरुषार्थ-सिद्ध्युपाय/171 ); (पं.वि./2/48); ( अमितगति श्रावकाचार/10/2 )।
- नाममात्र का जैन भी पात्र है
सागार धर्मामृत/2/54 नामतः स्थापनातोऽपि, जैनः पात्रायतेतराम्। स लभ्यो द्रव्यतो धन्यैर्भावतस्तु महात्मभिः। 54। = नामनिक्षेप से और स्थापनानिक्षेप से भी जैन विशेष पात्र के समान मालूम होता है। वह जैन द्रव्यनिक्षेप से पुण्यात्माओं के द्वारा तथा भावनिक्षेप से महात्माओं के द्वारा प्राप्त किया जा सकता है। 54।
- उत्तम, मध्यम व जघन्य पात्र के लक्षण
वा.अ./17-18 उत्तमपत्तं भणियं सम्मत्तगुणेण संजुदो साहू। सम्मादिट्ठी सावय मज्झिमपत्तोहु विण्णेयो। 17। णिद्दिट्ठो जिणसमये अविदरसम्मो जहण्णपत्तोत्ति। 18। = जो सम्यक्त्व गुण सहित मुनि हैं, उन्हें उत्तम पात्र कहा है, और सम्यक्त्वदृष्टि श्रावक हैं, उन्हें मध्यम पात्र समझना चाहिए। 17। तथा व्रतरहित सम्यग्दृष्टि को जघन्य पात्र कहा है। 18। ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/2/149-151 ); (पं.वि./2/48); ( वसुनंदी श्रावकाचार/221-222 ); ( गुणभद्र श्रावकाचार/148-149 ); ( अमितगति श्रावकाचार/10/4 ); ( सागार धर्मामृत/5/44 )।
र.स./124 उवसम णिरीह झाणज्झयणाइमहागुणाज्हादिट्ठा। जेसिं ते मुणिणाहा उत्तमपत्ता तहा भणिया। 124। = उपशम परिणामों को धारण करनेवाले, बिना किसी इच्छा के ध्यान करनेवाले तथा अध्ययन करनेवाले मुनिराज उत्तम पात्र कहे जाते हैं। 124।
- कुपात्र का लक्षण
जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/2/150 उअवाससोसियतणू णिस्संगो कामकोहपरिहीणो। मिच्छत्तसंसिदमणो णायव्वो सो अपत्तो त्ति। 150। = उपवासों से शरीर को कृश करनेवाले, परिग्रह से रहित, काम, क्रोध से विहीन परंतु मन में मिथ्यात्व भाव को धारण करनेवाले जीव को अपात्र (कुपात्र) जानना चाहिए। 150।
वसुनंदी श्रावकाचार/223 वय-तव-सीलसमग्गो सम्मत्तविवज्जियो कुपत्तं तु। 223। = जो व्रत, तप और शील से संपन्न है, किंतु सम्यग्दर्शन से रहित है, वह कुपात्र है। ( गुणभद्र श्रावकाचार/150 ); ( अमितगति श्रावकाचार/10/34-35 ); (पं.वि./2/48)।
- अपात्र का लक्षण
बारस अणुवेक्खा/18 सम्मत्तरयणरहियो अपत्तमिदि संपरिक्खेज्जो। = सम्यक्त्वरूपी रत्न से रहित जीव को अपात्र समझना चाहिए।
वसुनंदी श्रावकाचार/223 सम्मत्त-सील-वयवज्जिओ अपत्तं हवे जीओ। 223। = सम्यक्त्व, शील और व्रत से रहित जीव अपात्र है। (पं.वि./2/48); ( अमितगति श्रावकाचार/10/36-38 )।
- अन्य संबंधित विषय
पुराणकोष से
मोक्षमार्ग के पथिक तथा भव्य जीवों के हितोपदेशी मुनि । ये उत्तम, मध्यम और जघन्य भेद से तीन प्रकार के होते हैं । इनमें उत्तम पात्र वे हैं जो व्रतशील आदि से सहित रत्नत्रय के धारक होते हैं, मध्यम वे हैं जो व्रतशील आदि से यद्यपि रहित होते हैं किंतु सम्यग्दृष्टि होते हैं तथा जघन्य पात्र वे हैं जो शीलवान् तो है परंतु मिथ्यादृष्टि होते हैं । महापुराण 20. 139-146, 63. 273-275, हरिवंशपुराण 7.108-109