रज
From जैनकोष
धवला 1/1, 1, 1/43/7 ज्ञानदृगावरणानि रजांसीव बहिरंगांतरंगाशेषत्रिकालगोचरानंतार्थव्यंजनपरिणामात्म-कवस्तुविषयबोधानुभवप्रतिबंधकत्वाद्रजांसि । मोहोऽपि रजः भस्मरजसा पूरिताननानामिव भूयो मोहावरुद्धात्मनां जिह्मभावोपलंभात् । =ज्ञानावरण, दर्शनावरण कर्म धूलि की तरह बाह्य और अंतरंग समस्त त्रिकाल के विषयभूत अनंत अर्थ पर्याय और व्यंजन पर्याय स्वरूप वस्तुओं को विषय करने वाले बोध और अनुभव के प्रतिबंधक होने से रज कहलाते हैं । मोह को भी रज कहते हैं, क्योंकि जिस प्रकार जिनका मुख भस्म से व्याप्त होता है उनमें जिह्म भाव अर्थात् कार्य की मंदता देखी जाती है, उसी प्रकार मोह से जिनका आत्मा व्याप्त हो रहा है उनके भी जिह्म भाव देखा जाता है ।