मोक्ष - भेद व लक्षण
From जैनकोष
- भेद व लक्षण
- मोक्ष सामान्य का लक्षण
तत्त्वार्थसूत्र/10/2 बंधहेत्वभावनिर्जराभ्यां कृत्स्नकर्मविप्रमोक्षो मोक्षः ।2। = बंध हेतुओं (मिथ्यात्व व कषाय आदि) के अभाव और निर्जरा से सब कर्मों का आत्यंतिक क्षय होना ही मोक्ष है । ( सर्वार्थसिद्धि/1/1/7/5; 1/4/14/5 ), ( राजवार्तिक/1/4/20/27/11 ), (स. म./27/302/28)।
सर्वार्थसिद्धि/1/1 की उत्थानिका/1/8 निरवशेषनिराकृतकर्ममलकलंकस्या- शरीरस्यात्मनोऽचिंत्यस्वाभाविकज्ञानादिगुणमव्याबाधसुखमात्यंतिकमवस्थांतरं मोक्ष इति । = जब आत्मा कर्ममल (अष्टकर्म), कलंक (राग, द्वेष, मोह) और शरीर को अपने से सर्वथा जुदा कर देता है तब उसके जो अचिंत्य स्वाभाविक ज्ञानादि गुणरूप और अव्याबाध सुखरूप सर्वथा विलक्षण अवस्था उत्पन्न होती है, उसे मोक्ष कहते हैं । ( परमात्मप्रकाश/ मू./2/10); ( ज्ञानार्णव/3/6-10 ); ( द्रव्यसंग्रह टीका/37/154/5 ); ( स्याद्वादमंजरी/8/86/3 पर उद्धृत श्लोक)।
राजवार्तिक/1/1/37/10/15 ‘मोक्ष असने’ इत्येतस्य घञ्भावसाधनो मोक्षणं मोक्षः असनं क्षेपणमित्यर्थः, स आत्यंतिकः सर्वकर्मनिक्षेपो मोक्ष इत्युच्यते ।
राजवार्तिक/1/4/13/26/9 मोक्ष्यते अस्यते येन असनमात्रं वा मोक्षः । राजवार्तिक/1/4/27/12 मोक्ष इव मोक्षः । क उपमार्थः । यथा निगडादिद्रव्यमोक्षात् सति स्वातंत्र्ये अभिप्रेतप्रदेशगमनादेः पुमान् सुखी भवति, तथा कृत्स्नकर्मवियोगे सति स्वाधीनात्यंतिकज्ञानदर्शनानुपमसुख आत्मा भवति । = समस्त कर्मों के आत्यंतिक उच्छेद को मोक्ष कहते हैं । मोक्ष शब्द ‘मोक्षणं मोक्षः’ इस प्रकार क्रियाप्रधान भावसाधन है, ‘मोक्ष असने’ धातु से बना है । अथवा जिनसे कर्मों का समूल उच्छेद हो वह और कर्मों का पूर्ण रूप से छूटना मोक्ष है । अथवा मोक्ष की भाँति है । अर्थात् जिस प्रकार बंधनयुक्त प्राणी बेड़ी आदि के छूट जाने पर स्वतंत्र होकर यथेच्छ गमन करता हुआ सुखी होता है, उसी प्रकार कर्म बंधन का वियोग हो जाने पर आत्मा स्वाधीन होकर आत्यंतिक ज्ञान दर्शनरूप अनुपम सुख का अनुभव करता है । ( भगवती आराधना / विजयोदया टीका/ वि./38/134/18), ( धवला 13/5, 5, 82/348/9 ) ।
नयचक्र बृहद्/159 जं अप्पसहावादो मूलोत्तरपयडिसंचियं मुच्चइ । तं मुक्खं अविरुद्धं.... ।159। = आत्म स्वभाव से मूल व उत्तर कर्म प्रकृतियों के संचय का छूट जाना मोक्ष है । और यह अविरुद्ध है ।
समयसार / आत्मख्याति /288 आत्मबंधयोर्द्विधाकरणं मोक्षः । = आत्मा और बंध को अलग- अलग कर देना मोक्ष है ।
नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/4 मोक्षः साक्षादखिलकर्मप्रध्वंसनेनासादितमहानन्दलाभः । = समस्त कर्मों के नाश द्वारा साक्षात् प्राप्त किया जानेवाला महा-आनन्द का लाभ सो मोक्ष है ।
- मोक्ष के भेद
राजवार्तिक/1/7/14/40/24 सामान्यादेको मोक्षः, द्रव्यभावभोक्तव्यभेदादनेकोऽपि । = सामान्य की अपेक्षा मोक्ष एक ही प्रकार का है । द्रव्य भाव और भोक्तव्य की दृष्टि से अनेक प्रकार का है ।
धवला 13/5, 5, 823/48/1 सो मोक्खो तिविहो- जीवमोक्खो पोग्गलमोक्खो जीवपोग्गलमोक्खो चेदि । = वह मोक्ष तीन प्रकार का है−जीव मोक्ष, पुद्गल मोक्ष और जीव पुद्गल मोक्ष ।
नयचक्र बृहद्/159 तं मुक्खं अविरुद्धं दुविहं खलु दव्वभावगदं । = द्रव्य व भाव के भेद से वह मोक्ष दो प्रकार का है । ( द्रव्यसंग्रह टीका/37/154/7 )।
- द्रव्य व भाव मोक्ष के लक्षण
भगवती आराधना/38/134/18 निरवशेषाणि कर्माणि येन परिणामेन क्षायिकज्ञानदर्शनयथाख्यातचारित्रसंज्ञितेन अस्यंते स मोक्षः । विश्लेषो वा समस्तानां कर्मणां । = क्षायिक ज्ञान, दर्शन व यथाख्यात चारित्र नाम वाले (शुद्धरत्नत्रयात्मक) जिन परिणामों से निरवशेष कर्म आत्मा से दूर किये जाते हैं उन परिणामों को मोक्ष अर्थात् भावमोक्ष कहते हैं और संपूर्ण कर्मों का आत्मा से अलग हो जाना मोक्ष अर्थात् द्रव्यमोक्ष है । (और भी देखें पीछे मोक्ष सामान्य का लक्षण नं - 3), ( द्रव्यसंग्रह /37/154 )।
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/108/173/10 कर्मनिर्मूलनसमर्थः शुद्धात्मोपलब्धिरूपजीवपरिणामो भावमोक्षः, भावमोक्षनिमित्तेन जीवकर्मप्रदेशानां निरवशेषः पृथग्भावो द्रव्यमोक्ष इति । = कर्मों के निर्मूल करने में समर्थ ऐसा शुद्धात्मा की उपलब्धि रूप (निश्चयरत्नत्रयात्मक) जीव परिणाम भावमोक्ष है और उस भावमोक्ष के निमित्त से जीव व कर्मों के प्रदेशों का निरवशेषरूप से पृथक् हो जाना द्रव्यमोक्ष है । ( प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/84/106/15 ); ( द्रव्यसंग्रह टीका/28/85/14 ) ।
देखें आगे शीर्षक नं - 5 (भावमोक्ष व जीवन्मुक्ति एकार्थवाचक है ।)
स्याद्वादमंजरी/8/86/1 स्वरूपावस्थानं हि मोक्षः । = स्वरूप में अवस्थान करना ही मोक्ष है ।
- मुक्त जीव का लक्षण
पंचास्तिकाय/28 कम्ममलविप्पमुक्को उड्ढं लोगस्स अंतमधिगंता । सो सव्वणाणदरिसी लहदिं सुहमणिंदियमणंतं ।28। = कर्ममल से मुक्त आत्मा ऊर्ध्वलोक के अंत को प्राप्त करके सर्वज्ञ सर्वदर्शी अनंत अतिंद्रिय सुख का अनुभव करता है ।
सर्वार्थसिद्धि/2/10/169/7 उक्तात्पंचविधात्संसारान्निवृत्ता । ये ते मुक्ताः । = जो उक्त पाँच प्रकार के संसार से निवृत्त हैं वे मुक्त हैं ।
राजवार्तिक/2/10/2/124/23 निरस्तद्रव्यभावबंधा मुक्ताः । = जिनके द्रव्य व भाव दोनों कर्म नष्ट हो गये हैं वे मुक्त हैं ।
नयचक्र बृहद्/107 णट्ठट्ठकम्मसुद्धा असरीराणंतसोक्खणाणट्ठा । परमपहुत्तं पत्ता जे ते सिद्धा हु खलु मुक्का ।107। = जिनके अष्ट कर्म नष्ट हो गये हैं, शरीर रहित हैं, अनंतसुख व अनंतज्ञान में आसीन हैं और परम प्रभुत्व को प्राप्त हैं ऐसे सिद्ध भगवान् मुक्त हैं । (विशेष देखो आगे सिद्ध का लक्षण ।
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/109/174/13 शुद्धचेतनात्मका मुक्ता.....केवलज्ञानदर्शनोपयोगलक्षणा मुक्ताः । = शुद्धचेतनात्म या केवलज्ञान व केवलदर्शनोपयोग लक्षण वाला जीव मुक्त है ।
- जीवन्मुक्त का लक्षण
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/150/216/18 भावमोक्षः केवलज्ञानोत्पत्तिः जीवन्मुक्तोऽर्हत्पदमित्येकार्थः । = भावमोक्ष, केवलज्ञान की उत्पत्ति, जीवन्मुक्त, अर्हंतपद ये सब एकार्थवाचक हैं ।
- सिद्ध जीव व सिद्धगति का लक्षण
नियमसार/72 णट्ठट्ठकम्मबंधा अट्ठमहागुणसमण्णिया परमा । लोयग्गठिदा णिच्चा सिद्धा ते एरिसा होंति ।72। = आठ कर्मों के बंधन को जिन्होंने नष्ट किया है ऐसे, आठ महागुणों सहित, परम, लोकाग्र में स्थित और नित्य; ऐसे वे सिद्ध होते हैं । (और भी देखें पीछे मुक्त का लक्षण ); ( क्रियाकलाप/3/1/2/142 )
पं. सं./प्रा./1/गाथा नं.- अट्ठविहकम्मवियडा सीदीभूदा णिरंजणा णिच्चा । अट्ठगुणा कयकिच्चा लोयग्गणिवासिणो सिद्धा ।31। जाइजरामरणभया संजोयविओयदुक्खसण्णाओ । रोगादिया य जिस्से ण होंति सा होइ सिद्धिगई ।64। ण य इंदियकरणजुआ अवग्गहाईहिं गाहया अत्थे । णेव य इदियसुक्खा अणिंदियाणंतणाणसुहा ।74। =- जो अष्टविध कर्मों से रहित हैं, अत्यंत शांतिमय हैं, निरंजन हैं, नित्य हैं, आठ गुणों से युक्त है, कृतकृत्य हैं, लोक के अग्रभाग पर निवास करते हैं, वे सिद्ध कहलाते हैं । ( धवला 1/1, 1, 23/ गा. 127/200); ( गोम्मटसार जीवकांड/68/177 ) ।
- जहाँ पर जन्म, जरा, मरण, भय, संयोग, वियोग, दुःख, संज्ञा और रोगादि नहीं होते हैं वह सिद्धगति कहलाती है ।64। ( धवला 1/1, 1, 24/ गा. 132/204), ( गोम्मटसार जीवकांड/152/375 )
- जो इंंद्रियों के व्यापार से युक्त नहीं हैं, अवग्रह आदि के द्वारा भी पदार्थ के ग्राहक नहीं हैं और जिनके इंदिय सुख भी नहीं है, ऐसे अतींद्रिय अनंतज्ञान और सुख वाले जीवों को इंद्रियातीत सिद्ध जानना चाहिए ।74।- उपर्युक्त तीनों गाथाओं का भाव- ( परमात्मप्रकाश/ मू./1/16-25); ( चारित्रसार/33-34 )
धवला 1/1, 1, 1/ गा. 26-28/48 णिहयविविहट्ठकम्मा तिहुवणसिरसेहरा विहुवदुक्खा । सुहसायरमज्झगया णिरंजणा णिच्च अट्ठगुणा ।26। अणवज्जा कयकज्जासव्वावयवेहि दिट्ठसव्वट्ठा । वज्जसिलत्थब्भग्गय पडिमं वाभेज्ज सठाणा ।27। माणुससंठाणा वि हु सव्वावयवेहि णो गुणेहि समा । सव्विंदियाण विसयं जमेगदेसे विजाणंति ।28। = जिन्होंने नानाभेदरूप आठ कर्मों का नाश कर दिया है, जो तीन लोक के मस्तक के शेखरस्वरूप हैं, दुःखों से रहित हैं, सुखरूपी सागर में निमग्न हैं, निरंजन हैं, नित्य हैं, आठ गुणों से युक्त हैं ।26। अनवद्य अर्थात् निर्दोष हैं, कृतकृत्य हैं, जिन्होंने सर्वांग से अथवा समस्त पर्यायों सहित संपूर्ण पदार्थों को जान लिया है, जो वज्रशिला निर्मित अभग्न प्रतिमा के समान अभेद्य आकार से युक्त हैं ।27। जो सब अवयवों से पुरुषाकार होने पर भी गुणों से पुरुष के समान नहीं हैं, क्योंकि पुरुष संपूर्ण इंद्रियों के विषयों को भिन्न देश में जानता है, परंतु जो प्रति प्रदेश में सब विषयों को जानते हैं, वे सिद्ध हैं ।28।
और भी देखें (लगभग उपरोक्त भावों को लेकर ही निम्नस्थलों पर भी सिद्धों का स्वरूप बताया गया है ) - ( महापुराण/21/114/-118 ); ( द्रव्यसंग्रह/14/41 ); ( तत्त्वानुशासन/120-122 )
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/10/12/6 शुद्धात्मोपलंभलक्षणः सिद्धपर्यायः । = शुद्धात्मोपलब्धि ही सिद्ध पर्याय का (निश्चय) लक्षण है ।
- सिद्धलोक का स्वरूप
भगवती आराधना/2133 ईसिप्पब्भाराए उवरिं अत्थदि सो जोयणम्मिसदिए । धुवमचलमजरठाण लोगसिहरमस्सिदो सिद्धो । = सिद्धभूमि ‘ईषत्प्राग्भार’ पृथिवी के ऊपर स्थित है । एक योजन में कुछ कम है । ऐसे निष्कंप व स्थिर स्थान में सिद्ध प्राप्त होकर तिष्ठते है ।
तिलोयपण्णत्ति/8/652-658 सव्वट्ठसिद्धिइंदयकेदणदंडादु उवरि गंतुणं । बारसजोयणमेत्तं अट्ठमिया चेट्ठदे पुढवी ।642। पुव्वावरेण तीए उवरिमहेट्ठिमतलेसु पत्तेक्कं । वासो हवेदि एक्का रज्जू रुवेण परिहीणा ।653। उत्तरदक्खिणभाए दीहा किंचूणसत्तरज्जूओ । वेत्तासण संठाणा सा पुढवी अट्ठजोयणबहला ।654। जुत्ता घणोवहिघणाणितणुवादेहि तिहि समीरेहिं । जोयण बीससहस्सं पमाण बहलेहिं पत्तेक्कं ।655। एदाए बहुमज्झे खेत्तं णामेण ईसिपब्भारं । अज्जुणसवण्णसरिसं णाणारयणेहिं परिपुण्णं ।656। उत्तणधवलछत्तोवमाणसंठाणसुंदरं एदं । पंचत्तालं जोयणयाअंगुलं पि यंताम्मि । अट्ठमभूमज्झगदो तप्परिही मणुवखेत्तपरिहिसमो ।658। = सर्वार्थसिद्धि इंद्रक के ध्वजदंड से 12 योजनमात्र ऊपर जाकर आठवीं पृथिवी स्थित है ।652। उसके उपरिम और अधस्तन तल में से प्रत्येक तल का विस्तार पूर्व पश्चिम में रूप से रहित (अर्थात् वातवलयों की मोटाई से रहित) एक राजू प्रमाण है ।653। वेत्रासन के सदृश वह पृथिवी उत्तर दक्षिण भाग में कुछ कम (वातवलयों की मोटाई से रहित) सात राजू लंबी है । इसकी मोटाई आठ योजन है ।654। यह पृथिवी घनोदधिवात, धनवात और तनुवात इन तीन वायुओं से युक्त है । इनमें से प्रत्येक वायु का बाहल्य 20,000 योजन प्रमाण है ।655। उसके बहुमध्य भाग में चाँदी एवं सुवर्ण सदृश और नाना रत्नों से परिपूर्ण ईषत्प्राग्भार नामक क्षेत्र है ।656। यह क्षेत्र उत्तान धवल छत्र के सदृश (या ऊँधे कटोरे के सदृश- त्रिलोकसार/558 ) आकार से सुंदर और 4500,000 योजन (मनुष्य क्षेत्र) प्रमाण विस्तार से संयुक्त है ।657। उसका मध्य बाहल्य (मोटाई) आठ योजन है और उसके आगे घटते-घटते अंत में एक अंगुलमात्र । अष्टम भूमि में स्थित सिद्धक्षेत्र की परिधि मनुष्य क्षेत्र की परिधि के समान है ।658। ( हरिवंशपुराण/6/126-132 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/11/359-361 ); ( त्रिलोकसार/556-558 ); ( क्षपणासार/649/766) ।
तिलोयपण्णत्ति/9/3-4 अट्ठमखिदीए उवरि पण्णसब्भहियसत्तयसहस्सा । दंडाणिं गंतूणं सिद्धाणं होदि आवासो ।3। पणदोछप्पणइगि-अडणहचउसगचउखचदुरअड़कमसो । अट्ठहिदा जोयणया सिद्धाण णिवास खिदियाणं ।4। = उस (उपरोक्त) आठवीं पृथिवी के ऊपर 7050 धनुष जाकर सिद्धों का आवास है ।3। उस सिद्धों के आवास क्षेत्र का प्रमाण (क्षेत्रफल) 8404740815625/8 योजन है ।
- मोक्ष सामान्य का लक्षण