अकिंचित्कर हेत्वाभास
From जैनकोष
परीक्षामुख परिच्छेद संख्या ३/३५-३६ सिद्धेप्रत्यक्षादिबाधिते च साध्ये हेतुकिंचित्करः।
= जो साध्य स्वयं सिद्ध हो अथवा प्रत्यक्षादि से बाधित हो उस साध्य की सिद्धि के लिए यदि हेतु का प्रयोग किया जाता है तो वह हेतु अकिंचित्कर कहा जाता है।
न्यायदीपिका अधिकार ३/$६३/१०२ अप्रयोजको हेतुरकिंचित्करः।
= जो हेतु साध्य की सिद्धि करने में अप्रयोजक अर्थात् असमर्थ है उसे अकिंचित्कर हेत्वाभास कहते हैं।
२. अकिंचित्कर हेत्वाभास के भेद
न्यायदीपिका अधिकार ३/$६३/१०२ स द्विविधः-सिद्धसाधनो बाधितविषयश्चेति।
- अकिंचित्कर हेत्वाभास दो प्रकार का है - सिद्धसाधन और बाधितविषय।
३. सिद्धसाधन अकिंचित्कर हेत्वाभास का लक्षण
परीक्षामुख परिच्छेद संख्या ३/३६-३७ सिद्धः श्रावणः शब्दः शब्दत्वात्। किंचिदकरणात्।
= शब्द कान से सुना जाता है क्योंकि वह शब्द है। यहाँ पर शब्द में श्रावणत्व स्वयं सिद्ध है इसलिए शब्द में श्रावणत्व की सिद्धि के लिए प्रयुक्त शब्दत्व हेतु कुछ नहीं करता (अतः सिद्धसाधन हेत्वाभास है)।
स्याद्वादमंजरी श्रुत प्रभावक मण्डल १२७/१९ पूर्व से ही सिद्ध है (ऐसी) सिद्धि को साधने से सिद्ध साधन दोष उपस्थित होता है।
न्यायदीपिका अधिकार ३/$६३/१०२ यथा शब्दः श्रावणो भवितुमर्हंति शब्दत्वादिति। अत्र श्रावणत्वस्य साध्यस्य शब्दनिष्ठत्वेन सिद्धत्वाद्धेतुरकिंचित्करः।
= शब्द श्रोत्रेन्द्रिय का विषय होना चाहिए, क्योंकि वह शब्द है। यहाँ श्रोत्रेन्द्रिय की विषयता रूप साध्य शब्द में श्रावण प्रत्यक्ष से ही सिद्ध है। अतः उसको सिद्ध करने के लिए प्रयुक्त किया गया `शब्दपना' हेतु सिद्धसाधन नाम का अकिंचित्कर हेत्वाभास है।
• प्रत्यक्षवाधित आदि हेत्वाभास – दे. `बाधित'।
कालत्ययापदिष्ट हेत्वाभास – दे. `कालात्ययापदिष्ट'।