अकृतिधारा
From जैनकोष
- दे. गणित II/५/२।
अकृतिमातृकधारा –
- दे. गणित II/५/२।
अक्रियावाद-
१. मिथ्या एकान्त की अपेक्षा-
धवला पुस्तक संख्या ९/४,१,४५/२०७/४ सूत्रे अष्टाशीतिशतसहस्रपदैः ८८००००० पूर्वोक्तसर्वदृष्टयो निरूप्यन्ते, अबन्धकः अलेपकः अभोक्ता अकर्ता निर्गुणः सर्वगतः अद्वैतः नास्ति जीवः समुदयजनितः सर्वं नास्ति बाह्यार्धो नास्ति सर्वं निरात्मकं, सर्वं क्षणिकं अक्षणिकमद्वै तमित्यादयो दर्शनभेदाश्च निरूप्यन्ते।
= सूत्र अधिकार में अठासी लाख ८८००००० पदों द्वारा पूर्वोक्त सब मतों का निरूपण किया जाता है। इसके अतिरिक्त जीव अबन्धक है, अलेपक है, अभोक्ता है, अकर्ता है, निर्गुण है, व्यापक है, अद्वैत है, जीव नहीं है, जीव (पृथिवी आदि चार भूतों के) समुदाय से उत्पन्न हुआ है, सब नहीं है अर्थात् शून्य है, बाह्य पदार्थ नहीं है, सब निरात्मक हैं, सब क्षणिक हैं, सब अक्षणिक अर्थात् नित्य हैं, अद्वैत हैं, इत्यादि दर्शन भेदों का भी इसमें निरूपण किया जाता है।
(धवला पुस्तक संख्या १/१,१,२/११०/८)
गोम्मट्टसार कर्मकाण्ड / भाषा. /८८४/१०६८ अक्रियावादी वस्तु को नास्ति रूप मानि क्रिया का स्थापन नहिं करैं है।
भावपाहुड़ / भाषा /१३७ पं. जयचन्द-बहुरि केई अक्रियावादी है तिनि नैं जीवादिक पदार्थनि विषैं क्रिया का अभाव मांनि परस्पर विवाद करैं हैं। केई कहैं हैं जीव जानैं नाहीं है, केई कहैं हैं कछु करैं नाहीं हैं, केई कहैं है भोगवै नाहीं है, केई कहै हैं उपजै नाहीं है, केई कहै हैं विनसै नाहीं है, केई कहै हैं गमन नाहीं करै है, केई कहै हैं तिष्ठे नाहीं है। इत्यादिक क्रिया के अभाव पक्षपात करि सर्वथा एकान्ती होय है तिनि के संक्षेप करि चौरासी भेद किये हैं।
२. सम्यक् एकान्तकी अपेक्षा-
कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा संख्या ४१२ पुण्णासाए ण पुण्णं जदी णिरीहस्स पुण्ण-संपत्ती। इय जाणिऊण जइणो पुण्णे वि म आयरं कुणह ।।४१२।।
= पुण्य की इच्छा करने से पुण्यबन्ध नहीं होता, बल्कि निरीह (इच्छा रहित) व्यक्ति को ही पुण्य की प्राप्ति होती है। अतः ऐसा जानकर हे यतीश्वरो, पुण्य में भी आदर भाव मत रक्खो।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका / परिशिष्ट नय नं. ३९ अकर्तृनयेन स्वकर्मप्रवृत्तरञ्जकाध्यक्षवत्केवलमेव साक्षि ।।३९।।
आत्मद्रव्य अकर्तृत्व नय से केवल साक्षी ही है (कर्ता नहीं), अपने कार्य में प्रवृत्त रंगरेजको देखनेवाले पुरुष (प्रेक्षक) की भाँति।
परमात्मप्रकाश / मूल या टीका अधिकार संख्या १/५५,६५ अट्ठ वि कम्मइँ बहुविहइँ णव णव दोस वि जेण। सुद्धहं एक्कु वि अत्थि णवि सुण्णु वि बुच्चइ तेण ।।५५।। बन्ध वि मोक्खु वि सयलु जिय जीवहं कम्म जणेइ। अप्पा किंपि वि कुणइ णवि णिच्छउ एउं भणेइ ।।६५।।
= जिस कारण आठों ही अनेक भेद वाले कर्म अठारह ही दोष इनमें - से एक भी शुद्धात्मा के नहीं है, इसलिए शून्य भी कहा जाता है ।।५५।। हे जीव, बन्ध को और मोक्ष को सबको जीवों का कर्म ही करता है, आत्मा कुछ भी नहीं करता, निश्चय नय ऐसा कहता है।
३. अक्रियावाद के ८४ भेद
धवला पुस्तक संख्या १/१,१,२/१०७/८ मरीचिकपिलोलूक-गार्ग्य-व्याघ्रभूतिवाद्वलिमाठरमोद्गल्यायनादीनामक्रियावाददृष्टीनां चतुरशीतिः।
= मरीचि, कपिल, उलूक, गार्ग्य, व्याघ्रभूति, वाद्वलि, माठर और मोद्गल्यायन आदि अक्रियावादियों के ८४ मतों का ....वर्णन और निराकरण किया गया है।
( राजवार्तिक अध्याय संख्या १/२०/१२/७४/४; ८/१/१०/५६२/४) (धवला पुस्तक संख्या ९/४,१,४५/२०३/४); (गोम्मट्टसार जीवकाण्ड / जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका गाथा संख्या ३६०/७७०/१२)
गोम्मट्टसार कर्मकाण्ड / मूल गाथा संख्या ८८४-८८५/१०६७ णत्थि सदो परदो वि य सत्तपयत्था य पुण्ण पाऊणा। कालादियादि भंगा सत्तरि चदुपंति संजादा ।।८८४।। णत्थि य सत्त पदत्था णियदीदो कालदो तिपंतिभवा। चोद्दस इदि णत्थित्ते अक्किरियाणं च चुलसीदी ।।८८५।।
= आगे अक्रियावादीनि के भंग कहैं हैं-(नास्ति) X (स्वतः, परतः) X (जीव, अजीव, आस्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध, मोक्ष) X (काल, ईश्वर, आत्मा, नियति, स्वभाव) = १ X २ X ७ X ५ = ७० तथा (नास्ति) X (जीव, अजीव, आस्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध, मोक्ष) X (नियति, काल) = १ X ७ X २ = १४, मिलकर अक्रियावाद के (७०+१४ = ८४) चौरासी भेद हुए। (हरिवंश पुराण सर्ग १०/५२-५३)