सामायिक
From जैनकोष
सिद्धांतकोष से
सुख-दु:ख, लाभ-अलाभ, इष्ट-अनिष्ट आदि विषमताओं में राग-द्वेष न करना बल्कि साक्षी भाव से उनका ज्ञाता दृष्टा बने हुए समतास्वभावी आत्मा में स्थित रहना, अथवा सर्व सावद्य योग से निवृत्ति सो सामायिक है। आवश्यक, चारित्र, व्रत व प्रतिमा चारों एक ही प्रकार के लक्षण हैं। अंतर केवल इतना है कि श्रावक उस सामायिक को नियतकाल का नियतकाल पर्यंत धारकर अभ्यास करता है और साधु का जीवन ही समतामय बन जाता है। श्रावक की उस सामायिक को व्रत या प्रतिमा कहते हैं और साधु की उस सार्वकालीन समता को सामायिक चारित्र कहते हैं।
- सामायिक सामान्य निर्देश
- वास्तव में कोई पदार्थ इष्ट-अनिष्ट नहीं।-देखें राग - 2.4।
- समता का महत्त्व।-देखें सामायिक - 3.7।
- द्रव्यश्रुत का प्रथम अंग बाह्य सामायिक है।-देखें श्रुतज्ञान - III.1।
- प्रतिक्रमण व सामायिक में अंतर।-देखें प्रतिक्रमण - 3.1।
- नियत व अनियतकाल सामायिक।-देखें सामायिक - 4.2।
- सामायिक विधि निर्देश
- सामायिक मन, वचन, काय शुद्धि।-देखें शुद्धि ।
- सामायिक की सिद्धि का उपाय अभ्यास है।-देखें अभ्यास ।
- सामायिक व्रत व प्रतिमा निर्देश
- सामायिक व्रत के लक्षण
- सामायिक प्रतिमा का लक्षण।
- सामायिक व्रत व प्रतिमा में अंतर।
- सामायिक के समय गृहस्थ भी साधु तुल्य है।
- साधु तुल्य होते हुए भी वह संयत नहीं है।
- सामायिक व्रत का प्रयोजन।
- सामायिक व्रत का महत्त्व।
- सामायिक व्रत के अतिचार।
- स्मृत्यनुपस्थान व मन:दुष्प्रणिधान में अंतर।-देखें स्मृत्यनुपस्थान ।
- सामायिकचारित्र निर्देश
- सामायिक चारित्र का लक्षण।
- नियत व अनियत काल सामायिक निर्देश।
- सामायिक चारित्र में संयम के संपूर्ण अंग।
- सामायिक की अपेक्षा एक है पर छेदोपस्थापना की अपेक्षा अनेक रूप है।-देखें छेदोपस्थापना - 2।
- प्रथम व अंतिम तीर्थ में ही इसकी प्रधानता थी।-देखें छेदोपस्थापना - 2।
- सामायिकचारित्र का स्वामित्व।-देखें छेदोपस्थापना - 5-7।
- सामायिक चारित्र में संभव भाव।-देखें संयत - 2।
- सभी मार्गणाओं में आय के अनुसार व्यय।-देखें मार्गणा ।
- सामायिक चारित्र के स्वामियों की गुणस्थान, मार्गणास्थान, जीवसमास आदि 20 प्ररूपणाएँ।-देखें सत् ।
- सामायिक चारित्र संबंधी सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अंतर, भाव व अल्पबहुत्वरूप आठ प्ररूपणाएँ।-देखें वह वह नाम ।
- सामायिक चारित्र में कर्मों का बंध उदय सत्त्व।-देखें वह वह नाम ।
- सामायिक चारित्र में क्षायोपशमिक भाव कैसे।-देखें संयत - 2।
- सामायिक सामान्य निर्देश
- समता व साम्य का लक्षण
ज्ञानार्णव/24/ श्लो.नं. चिदचिल्लक्षणैर्भावैरिष्टानिष्टतया स्थितै:। न मुह्यति मनो यस्य तस्य साम्ये स्थितिर्भवेत् ।2। आशा: सद्यो विपद्यंते यांत्यविद्या: क्षयं क्षणात् । म्रियते चित्तभोगींद्रो यस्य सा साम्यभावना।11। अशेषपरपर्यायैरन्यद्रव्यैर्विलक्षणम् । निश्चिनोति यदात्मानं तदा साम्ये स्थितिर्भवेत् ।17।
ज्ञानार्णव/27/13-14 क्रोधविद्वेषु सत्त्वेषु निस्त्रिशक्रूरकर्मसु। मधुमांससुरांयस्त्रीलुब्धेष्वत्यंतपापिषु।13। देवागमयतिब्रातनिंदकेष्वात्मशंसिषु। नास्तिकेषु च माध्यस्थ्यं यत्सोपेक्षा प्रकीर्तिता।14। =जिस पुरुष का मन चित् (पुत्र-मित्र-कलत्रादि) और अचित् (धन-धान्यादि) इष्ट-अनिष्ट पदार्थों के द्वारा मोह को प्राप्त नहीं होता उस पुरुष के ही साम्यभाव में स्थिति होती है।2। जिस पुरुष के समभाव की भावना है, उसके आशाएँ तो तत्काल नाश हो जाती हैं, अविद्या क्षणभर में क्षय हो जाती है, उसी प्रकार चित्तरूपी सर्प भी मर जाता है।11। जिस समय यह आत्मा अपने को समस्त परद्रव्यों व उनकी पर्यायों से भिन्नस्वरूप निश्चय करता है उसी काल साम्यभाव उत्पन्न होता है।17। क्रोधी, निर्दय, क्रूरकर्मी, मद्य, मांस, मधु व परस्त्रियों में लुब्ध, अत्यंत पापी, देव गुरु शास्त्रादि की निंदा करने वाले ऐसे नास्तिकों में तथा अपनी प्रशंसा करने वालों में माध्यस्थ्य भाव का होना उपेक्षा कही गयी है।13-14।
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/42/335/10 अथ यदेव संयततपोधनस्य साम्यलक्षणं भणितं तदेव श्रामण्यापरनामा मोक्षमार्गो भण्यते।=[शत्रु-मित्र व बंधु वर्ग में, सुख-दु:ख में, प्रशंसा-निंदा में, लोष्ट व सुवर्ण में, जीवन और मरण में जिसे समान भाव है वह श्रमण हैं।241। (देखें साधु - 3.1)] ऐसा जो संयत तपोधन का 'साम्य' लक्षण किया गया है वही श्रामण्य का अपर नाम, 'मोक्षमार्ग' कहा जाता है।
मोक्षपाहुड़/ टी./50/342/12 आत्मसु सर्वजीवेषु समभाव: समतापरिणाम:, यादृशो मोक्षस्थाने सिद्धो वर्तते तादृश एव ममात्मा शुद्धबुद्धेकस्वभाव: सिद्धपरमेश्वरसमान:, यादृशोऽहं केवलज्ञानस्वभावतादृश एव सर्वोऽपि जीवराशिरत्र भेदो न कर्त्तव्य:। =अपने आत्मा में तथा सर्व जीवों में समभाव अर्थात् समता परिणाम ऐसा होता है-मोक्षस्थान में जैसे सिद्ध भगवान् हैं वैसे ही मेरा आत्मा भी सिद्ध परमेश्वर के समान शुद्ध-बुद्ध एक स्वभावी है। और जैसा केवलज्ञानस्वभावी मैं हूँ वैसी ही सर्व जीव राशि है। यहाँ भेद नहीं करना चाहिए।
देखें धर्म - 1.5.1 [मोह क्षोभ हीन परिणाम को साम्य कहते हैं।]
देखें मोक्षमार्ग - 2.5 [परमसाम्य मोक्षमार्ग का अपर नाम है।]
देखें उपेक्षा [माध्यस्थ्य, समता, उपेक्षा, वैराग्य, साम्य, नि:स्पृहता, वैतृष्ण्य, परम शांति, ये सब एकार्थवाची नाम हैं।]
देखें उपयोग - II.2.1 [साम्य, स्वास्थ्य, समाधि, योग, चित्तनिरोध, शुद्धोपयोग, ये सब एकार्थवाची शब्द हैं। किसी प्रकार की भी आकृति अक्षर वर्ण का विकल्प न करके जहाँ केवल एक शुद्ध चैतन्य मात्र में स्थिति होती है, वह साम्य है।]
- सामायिक सामान्य का व्युत्पत्ति अर्थ
सर्वार्थसिद्धि/7/21/360/7 समेकीभावे वर्तते। तद्यथा संगतं घृतं संगत तैलमित्युच्यते एकीभूतमिति गम्यते। एकत्वेन अयनं गमनं समय:, समय एव सामायिकम् । समय: प्रयोजनमस्येति वा विगृह्य सामायिकम् । =1. 'सम' उपसर्ग का अर्थ एक रूप है। जैसे घी संगत है, तैल संगत है', जब यह कहा जाता है तब संगत का अर्थ एकीभूत होता है। सामायिक में मूल शब्द 'समय' है जिसका अर्थ है एक साथ जानना व गमन करना अर्थात् आत्मा (देखें समय) - वह समय ही सामायिक है। 2. अथवा समय अर्थात् एकरूप हो जाना ही जिसका प्रयोजन है वह सामायिक है। ( राजवार्तिक/7/21/7/548/3 ); ( गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/547/713/18 )
राजवार्तिक/9/18/1/616/25 आयंतीत्याया: अनर्थां: सत्त्वव्यपरोपणहेतव:, संगता: आया: समाया:, सम्यग्वा आया: समायास्तेषु ते वा प्रयोजनमस्येति सामायिकमवस्थानम् । =आय अर्थात् अनर्थ अर्थात् प्राणियों की हिंसा के हेतुभूत परिणाम। उस आय या अनर्थ का सम्यक् प्रकार से नष्ट हो जाना सो समाय है। अथवा सम्यक् आय अर्थात् आत्मा के साथ एकीभूत होना सो समाय है। उस समाय में हो या वह समाय ही है प्रयोजन जिसका सो सामायिक है। तात्पर्य यह कि हिंसादि अनर्थों से सतर्क रहना सामायिक है।
चारित्रसार/19/1 सम्यगेकत्वेनायनं गमनं समय: स्वविषयेभ्यो विनिवृत्त्य कायवाङ्मन:कर्मणामात्मना सह वर्तनाद्रव्यार्थेनात्मन: एकत्वगमनमित्यर्थ:। समय एव सामायिकं, समय: प्रयोजनमस्येति वा सामायिकम् ।=अच्छी तरह प्राप्त होना अर्थात् एकांत रूप से आत्मा में तल्लीन हो जाना समय है। मन, वचन, काय की क्रियाओं का अपने-अपने विषय से हटकर आत्मा के साथ तल्लीन होने से द्रव्य तथा अर्थ दोनों से आत्मा के साथ एकरूप हो जाना ही समय का अभिप्राय है। समय को ही सामायिक कहते हैं। अथवा समय ही जिसका प्रयोजन है वह सामायिक है।
गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/367/789/10 समम् एकत्वेन आत्मनि आय: आगमनं परद्रव्येभ्यो निवृत्त्य उपयोगस्य आत्मनि प्रवृत्ति: समाय:, अयमहं ज्ञाता द्रष्टा चेति आत्मविषयोपयोग इत्यर्थ:, आत्मन: एकस्यैव ज्ञेयज्ञायकत्वसंभवात् । अथवा सं समे रागद्वेषाभ्यामनुपहते मध्यस्थे आत्मनि आय: उपयोगस्य प्रवृत्ति: समाय: स प्रयोजनमस्येति सामायिकं। =1. 'सं' अर्थात् एकत्वपने से 'आय' अर्थात् आगमन। अर्थात् परद्रव्यों से निवृत्त होकर उपयोग की आत्मा में प्रवृत्ति होना। 'यह मैं ज्ञाता द्रष्टा हूँ' ऐसा आत्मा में जो उपयोग सो सामायिक है। एक ही आत्मा स्वयं ही ज्ञेय है और स्वयं ही ज्ञाता है, इसलिए अपने को ज्ञाता द्रष्टारूप अनुभव कर सकता है।
2. अथवा 'सम' का अर्थ राग-द्वेष रहित मध्यस्थ आत्मा है। उसमें आय अर्थात् उपयोग की प्रवृत्ति सो समाय है। वह समाय ही जिसका प्रयोजन है, उसे सामायिक कहते हैं। ( अनगारधर्मामृत/8/19/742 ) - सामायिक सामान्य के लक्षण
- समता
मू.आ./521,522,526 जं च समो अप्पाणं परं य मादूय सव्वमहिलासु। अप्पियपियमाणादिसु तो समणो सो य सामाइयं।521। जो जाणइ समवायं दव्वाण गुणाण पज्जयाणं च। सब्भावं ते सिद्धं सामाइयं उत्तमं जाणे।522। जो समो सव्वभूदेसु तसेसु थावरेसु य। जस्स रागो य दोसो य वियडिं ण जाणंति दु।526। =स्व व पर में राग व द्वेष रहित होना, सब स्त्रियों को माता के समान देखना, शत्रु-मित्र, मान-अपमान आदि में सम भाव रखना, ये सब श्रमण के लक्षण हैं। उसे ही सामायिक भी जानना।521। जो द्रव्यों, गुणों और पर्यायों के सादृश्य को तथा उनके एक जगह स्वत: सिद्ध रहने को जानता है, वह उत्तम सामायिक है।522। त्रस स्थावररूप सर्व प्राणियों में समान परिणाम होना [अर्थात् सबको सिद्ध समान शुद्ध जानना देखें सामायिक - 1.1] तथा राग-द्वेषादि भावों के कारण आत्मा में विकार उत्पन्न न होना, वही परम सामायिक है।526।
धवला 8/3,41/84/1 सत्तु-मित्त-मणि-पाहाण-सुवण्ण-मट्टियासु राग-देसाभावो समदा णाम। शत्रु-मित्र, मणि-पाषाण और सुवर्ण-मृतिका में राग-द्वेष के अभाव को समता कहते हैं। ( चारित्रसार/56/1 )
अमितगति श्रावकाचार/8/31 जीवितमरणे योगे वियोगे विप्रिये प्रिये। शत्रौ मित्रे सुखे दु:खे साम्यं सामायिकं विदु:।31। =जीवन व मरण में, संयोग व वियोग में, अप्रिय व प्रिय में, शत्रु व मित्र में, सुख व दु:ख में समभाव को सामायिक कहते हैं।31।
भावपाहुड़ टीका/77/221/13 सामायिकं सर्वजीवेषु समत्वम् । =सर्व जीवों में समान भाव रखना सामायिक है। (विशेष देखें सामायिक - 1.1)।
- राग-द्वेष का त्याग
मू.आ./523 रागदोसो णिरोहित्ता समदा सव्वकम्मसु। सुत्तेसु अ परिणामो सामाइयमुत्तमं जाणे।523। =सब कार्यों में राग-द्वेष को छोड़कर समभाव होना और द्वादशांग सूत्रों में श्रद्धान होना उत्तम सामायिक है।523।
यो.सा./अ./5/47 यत्सर्वद्रव्यसंदर्भे रागद्वेषव्यपोहनम् । आत्मतत्त्वनिविष्टस्य तत्सामायिकमुच्यते।47। =सर्वद्रव्यों में राग-द्वेष का अभाव तथा आत्मस्वरूप में लीनता सामायिक कही जाती है। ( अनगारधर्मामृत/8/26/748 )
- आत्मस्थिरता
नियमसार/147 आवासं जइ इच्छसि अप्पसहावेसु कुणदि थिरभावं। तेण दु सामण्णगुणं संपुण्णं होदि जीवस्स।147। =यदि तू आवश्यक को चाहता है, तो आत्म-स्वभाव में स्थिरभाव कर, जिससे कि जीवों की सामायिक गुण संपूर्ण होता है।147।
राजवार्तिक/6/24/11/530/12 चित्तस्यैकत्वेन ज्ञानेन प्रणिधानं वा। =एक ज्ञान के द्वारा चित्त को निश्चल रखना सामायिक है। ( चारित्रसार 55/4 )।
- सावद्ययोग निवृत्ति
नियमसार/125 विरदो सव्वसावज्जो तिगुत्तो पिहिदिंदिओ। तस्स सामाइगं ठाइ इदि केवलिसासणे।125। =जो सर्व सावद्य में विरत है, जो तीन गुप्तिवाला है, और जिसने इंद्रियों को बंद किया है उसे सामायिक स्थायी है।125। (मू.आ./524)।
राजवार्तिक/6/24/11/530/11 तत्र सामायिकं सर्वसावद्ययोगनिवृत्तिलक्षणं। =सर्व सावद्य योग निवृत्ति ही सामायिक का लक्षण है। ( चारित्रसार/55/4 )।
- संयम तप आदि के साथ एकता
मू.आ./519,525 सम्मत्तणाणसंजमतवेहिं जं तं पसत्थसमगमणं। समयंतु तं तु भणिदं तमेव सामाइयं जाणे।519। जस्स सण्णिहिदो अप्पा संजमे णियमे तवे। तस्स सामायियं ठादि इदि केवलिसासणे।525।=सम्यक्त्व ज्ञान संयम तप इनके द्वारा जीव की प्रशस्त प्राप्ति अथवा उनके साथ जीव की एकता, वह समय है। उसी को सामायिक कहते हैं।519। ( अनगारधर्मामृत/8/20/745 ) जिसका आत्मा संयम, नियम व तप में लीन है, उसके सामायिक तिष्ठती है।525।
- नित्य नैमित्तिक कर्म व शास्त्र
कषायपाहुड़/1/1,1/81/98/5 तीसु वि संझासु पक्खमाससंधिदिणेसु वा सगिच्छिदवेलासु वा वज्झंतरंगासेसत्थेसु संपरायणिरोहो वा सामाइयं णाम। =तीनों ही संध्याओं में या पक्ष और मास के संधिदिनों में या अपने इच्छित समय में बाह्य और अंतरंग समस्त पदार्थों में कषाय का निरोध करना सामायिक है।
गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/367/789/12 नित्यनैमित्तिकानुष्ठानं तत्प्रतिपादकं शास्त्रं वा सामायिकमित्यर्थ:। =नित्य-नैमित्तिक क्रिया विशेष तथा सामायिक का प्रतिपादक शास्त्र भी सामायिक कहलाता है।
- समता
- द्रव्य क्षेत्रादि रूप सामायिकों के लक्षण
कषायपाहुड़ 1/1-1/81/97/4 सामाइयं चउव्विहं, दव्वसामाइयं खेत्तसामाइयं कालसामाइयं भावसामाइयं चेदि। तत्थ सचित्ताचित्तरागदोसणिरोहो दव्वसामाइयं णाम। णयर-खेट-कव्वड-मडंव-पट्ठण-दोणमुह-जणवदादिसु रागदोसणिरोहो सगावासविसयसंपरायणिरोहो वा खेत्तसामाइयं णाम। छउदुविसयसंपरायणिरोहो कालसामाइयं। णिरुद्धासेसकसायस्स वंतमिच्छत्तस्स णयणिउणस्स छदव्वविसओ बोहो बाहविवज्जिओ भावसामाइयं णाम। =द्रव्यसामायिक, क्षेत्र सामायिक, कालसामायिक और भावसामायिक के भेद से सामायिक चार प्रकार का है। उनमें से सचित्त और अचित्त द्रव्यों में राग और द्वेष का निरोध करना द्रव्यसामायिक है। ग्राम, नगर, खेट, कर्वट, मडंब, पट्टन, द्रोणमुख, और जनपद आदि में राग और द्वेष का निरोध करना अथवा अपने निवासस्थान में कषाय का निरोध करना क्षेत्रसामायिक है। वसंत आदि छ:ऋतुविषयक कषाय का निरोध करना अर्थात् किसी भी ऋतु में इष्ट-अनिष्ट बुद्धि न करना कालसामायिक है। जिसने समस्त कषायों का निरोध कर दिया है तथा मिथ्यात्व का वमन कर दिया है और जो नयों में निपुण है ऐसे पुरुष को बाधा रहित और अस्खलित जो छह द्रव्यविषयक ज्ञान होता है वह भावसामायिक है। ( गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/367/789/15 )।
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/116/274/ पंक्ति-तत्र सामायिक नाम चतुर्विधं नामस्थापनाद्रव्यभावभेदेन।17।…चारित्रमोहनीयाख्यं कर्म परिप्राप्तक्षयोपशमावस्थं नोआगमद्रव्यतद्वयतिरिक्तकर्म। सामायिकं नाम प्रत्ययसामायिकं। नोआगमभावसामायिकं नाम सर्वसावद्ययोगनिवृत्तिपरिणाम:। अयमिह गृहीत:।24। =सामायिक चार प्रकार की है-नामसामायिक, स्थापनासामायिक, द्रव्यसामायिक, भावसामायिक। [इन सबके लक्षण निक्षेपोंवत् जानने।] विशेषता यह है कि क्षयोपशमरूप अवस्था को प्राप्त हुए चारित्रमोहनीय कर्म को जो कि सामायिक के प्रति कारण है वह नोआगमद्रव्य तद्वयतिरिक्त सामायिक है। संपूर्णसावद्य योगों से विरक्त ऐसे आत्मा के परिणाम को नो आगमभावसामायिक कहते हैं। यही सामायिक प्रकृत विषय में ग्राह्य है।
अनगारधर्मामृत/8/18-35/742 नामस्थापनयोर्द्रव्यक्षेत्रयो: कालभावयो:। पृथग्निक्षिप्य विधिवत्साध्या: सामायिकादय:।18। शुभेऽशुभे वा केनापि प्रयुक्ते नाम्नि मोहत:। स्वमवाग्लक्षणं पश्यन्न रतिं यामि नारतिम् ।21। यदिदं स्मरयत्यर्चा न तदप्यस्मि किं पुन:। इदं तदस्यां सुस्थेति धीरसुस्थेति वा न मे।22। साम्यागमज्ञतद्देहौ तद्विपक्षौ च यादृशौ। तादृशौ स्तां परद्रव्ये को मे स्वद्रव्यवद्ग्रह:।23। राजधानीति न प्राये नारण्यनीति चोद्विजे। देशो हि रम्योऽरम्यो वा नात्मरामस्य कोऽपि मे।24। नामूर्तत्वाद्धिमाद्यात्मा काल: किं तर्हि पुद्गल:। क्षयोपचर्यते मूर्तस्तस्य स्पृश्यो न जात्वहम् ।25। सर्वे वैभाविका भावा मत्तोऽन्ये तेष्वत: कथम् । चिच्चमत्कारमात्रात्मा प्रीत्यप्रीती तनोम्यहम् ।26। जीविते मरणे लाभेऽलाभे योगे विपर्यये। बंधावरौ सुखे दु:खे साम्यमेवाभ्युपैम्यहम् ।27। मैत्री मे सर्वभूतेषु वैरं मम न केनचित् । सर्वसावद्यविरतोऽस्मीति सामायिकं श्रयेत् ।35। = नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव इन छह निक्षेपों पर सामायिकादि षट् आवश्यकों को घटित करके व्याख्यान करना चाहिए।18। किसी भी शुभ या अशुभ नाम में अथवा यदि कोई मेरे विषय में ऐसे शब्दों का प्रयोग करे तो उनमें रति या अरति नहीं करनी चाहिए, क्योंकि शब्द मेरा स्वरूप या लक्षण नहीं है।21। यह जो सामने वाली प्रतिमा मुझे जिस अर्हंतादिरूप का स्मरण करा रही है, मैं उस मूर्तिरूप नहीं हूँ, क्योंकि मेरा साम्यानुभव न तो इस मूर्ति में ठहरा हुआ है और न ही इससे विपरीत है। (यह स्थापना सामायिक है)।22।
सामायिक शास्त्र का ज्ञाता अनुपयुक्त आत्मा और उसका शरीर तथा इनसे विपक्ष (अर्थात् आगम नोआगम भावनोआगम व तद्वयतिरिक्त आदि) जैसे कुछ भी शुभ या अशुभ है, रहें, मुझे इनसे क्या; क्योंकि ये परद्रव्य हैं। इनमें मुझे स्वद्रव्य की तरह अभिनिवेश कैसे हो सकता है। (यह द्रव्य सामायिक है)।23।
यह राजधानी है, इसलिए मुझे इससे प्रेम हो और यह अरण्य है इसलिए मुझे इससे द्वेष हो-ऐसा नहीं है। क्योंकि मेरा रमणीय स्थान आत्मस्वरूप है। इसलिए मुझे कोई भी बाह्यस्थान मनोज्ञ या अमनोज्ञ नहीं हो सकता। (यह क्षेत्रसामायिक है)।24।
कालद्रव्य तो अमूर्त है, इसलिए हेमंतादि ऋतु ये काल नहीं हो सकते, बल्कि पुद्गल की उन-उन पर्यायों में काल का उपचार किया जाता है। मैं कभी भी उसका स्पर्श्य नहीं हो सकता क्योंकि मैं अमूर्त व चित्स्वरूप हूँ। (यह कालसामायिक है।)।25।
औदयिकादि तथा जीवन मरण आदि ये सब वैभाविक भाव मेरे भाव नहीं हैं; क्योंकि मुझसे अन्य हैं। अतएव एक चिच्चमत्कार मात्र स्वरूपवाला मैं इनमें रागद्वेषादि को कैसे प्राप्त हो सकता हूँ।26।
जीवन-मरण में, लाभ-अलाभ में, संयोग-वियोग में, मित्र-शत्रु में, सुख-दु:ख में इन सबमें मैं साम्यभाव धारण करता हूँ।27।
संपूर्ण प्राणियों में मेरा मैत्रीभाव हो, किसी से भी मुझे वैर न हो। मैं संपूर्ण सावद्य से निवृत्त हूँ। इस प्रकार के भावों को धारण करके भावसामायिक पर आरूढ़ होना चाहिए।35।गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/367/789/13 तच्च नामस्थापनाद्रव्यक्षेत्रकालभावभेदात्षड्विधम् । तत्र इष्टानिष्टनामसु रागद्वेषनिवृत्ति: सामायिकमित्यभिधानं वा नामसामायिकम् । मनोज्ञामनोज्ञासु स्त्रीपुरुषाद्याकारासु काष्ठलेप्यचित्रादिप्रतिमासु रागद्वेषनिवृत्ति इदं सामायिकमिति स्थाप्यमानं यत् किंचिद्वस्तु वा स्थापनासामायिकम् । =नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल व भाव के भेद से सामायिक छह प्रकार की है। तहाँ इष्ट व अनिष्ट नामों में रागद्वेष की निवृत्ति अथवा 'सामायिक' ऐसा नाम कहना सो नामसामायिक है। मनोज्ञ व अमनोज्ञ स्त्रीप्रतिमाओं में रागद्वेष की निवृत्ति स्थापना सामायिक है। अथवा 'यह सामायिक है' इस प्रकार से स्थापी गयी कोई वस्तु स्थापना सामायिक है। [काल द्रव्य व भाव सामायिक के लक्षण संदर्भ नं.1 वत् हैं।]
- समता व साम्य का लक्षण
- सामायिक विधि निर्देश
- सामायिक विधि के सात अधिकार
कार्तिकेयानुप्रेक्षा/352 सामाइयस्स करणे खेत्तं कालं च आसणं विलओ। मण-वयण-काय-सुद्धी णायव्वा हुंति सत्तेव। =सामायिक करने के लिए क्षेत्र, काल, आसन, विलय, मन:शुद्धि, वचनशुद्धि और कायशुद्धि, ये सात बातें जाननी चाहिए। (और भी देखें शीर्षक नं - 3)।
- सामायिक योग्य काल
कार्तिकेयानुप्रेक्षा/354 पुव्वण्हे मज्झण्हे अवरण्हे तिहि वि णालिया-छक्को। सामाइयस्स कालो सविणय-णिस्सेण णिद्दिट्ठो।354। =विनय संयुक्त गणधरदेव आदि ने पूर्वाह्न, मध्याह्न और अपराह्न इन तीनों कालों में छह-छह घड़ी सामायिक का काल कहा है।354। (और भी देखें सामायिक - 2.3 तथा सामायिक - 3.2)।
- सामायिक विधि
रत्नकरंड श्रावकाचार/139 चतुरावर्त्तत्रितयश्चतु:प्रणामस्थितो यथाजात:। सामायिको द्विनिषद्यास्त्रियोगशुद्धस्त्रिसंध्यमभिवंदी।139। =जो चार दिशाओं में तीन-तीन आवर्त करता है, चार दिशाओं में चार प्रणाम करता है, कायोत्सर्ग में स्थित रहता है, अंतरंग बहिरंग परिग्रह की चिंता से परे रहता है, खड्गासन और पद्मासन इन दो आसनों में से कोई एक आसन लगाता है, मन वचन काय के व्यापार को शुद्ध रखता है (पूर्वाह्ण, मध्याह्न और अपराह्न) वंदना करता है वह सामायिक प्रतिमाधारी है।139। ( कार्तिकेयानुप्रेक्षा/37 ) ( चारित्रसार/37/2 )।
वसुनंदी श्रावकाचार/274-275 होऊण सुई चेइय गिहम्मि सगिहे व चेइयाहिमुहो। अण्णत्थ सुइपएसे पुव्वमुहो उत्तरमुहो वा।274। जिणवयणधम्म-चेइय-परमेट्ठि-जिणालाण णिच्चंपि। जं वंदणं तियालं कीरइ सामाइयं तं खु।275। =स्नान आदि से शुद्ध होकर चैत्यालय में अथवा अपने ही घर में प्रतिमा के सम्मुख होकर, अथवा अन्य पवित्र स्थान में पूर्वमुख या उत्तरमुख होकर जिनवाणी, जिनधर्म, जिनबिंब, पंचपरमेष्ठी और कृत्रिम अकृत्रिम जिनालयों की जो नित्य त्रिकाल वंदना की जाती है वह सामायिक नाम का तीसरा प्रतिमा स्थान है।
देखें सामायिक - 3.1.2 [केश, हाथ की मुट्ठी व वस्त्रादि को बाँधकर, क्षेत्र व काल की सीमा करके, सर्वसावद्य से निवृत्त होना सामायिक प्रतिमा है।]
- सामायिक योग्य आसन मुद्रा क्षेत्रादि
देखें कृतिकर्म - 3 पल्यंकासन या कायोत्सर्ग आसन इन दो आसनों से की जाती है। कमर सीधी व निश्चय रहे, नासाग्र दृष्टि हो, अपनी गोद में बायें हाथ के ऊपर दाहिना हाथ रखा हो, नेत्र न अधिक खुले हों न मुँदे, निद्रा-आलस्य रहित प्रसन्न वदन हो, ऐसी मुद्रा सहित करे। शुद्ध, निर्जीव व छिद्र रहित भूमि, शिला अथवा तखते मयी पीठ पर करे। गिरि की गुफा, वृक्ष की कोटर, नदी का पुल, श्मशान, जीर्णोद्यान, शून्यागार, पर्वत का शिखर, सिद्ध क्षेत्र, चैत्यालय आदि शांत व उपद्रव रहित क्षेत्र में करे। वह क्षेत्र क्षुद्र जीवों की अथवा गरमी सर्दी आदि की बाधाओं से रहित होना चाहिए। स्त्री, पाखंडी, तिर्यंच, भूत, वेताल आदि, व्याघ्र, सिंह आदि तथा अधिकजन संसर्ग से दूर होना चाहिए। निराकुल होना चाहिए। पूर्व या उत्तर दिशा की ओर मुख करके करनी चाहिए। द्रव्य, क्षेत्र, काल व भाव की तथा मन वचन काय की शुद्धि सहित करनी चाहिए। (और भी देखें सामायिक - 2.3)।
- सामायिक योग्य ध्येय
रत्नकरंड श्रावकाचार/104 अशरणमशुभमनित्यं दु:खमनात्मानमावसामि भवं। मोक्षस्तद्विपरीतात्मेति ध्यायंतु सामयिके।104। =मैं अशरणरूप, अशुभरूप, अनित्य, दु:खमय और पररूप संसार में निवास करता हूँ। और मोक्ष इससे विपरीत है, इस प्रकार सामायिक में ध्यान करना चाहिए।104। (और भी देखें ध्येय )।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा/372 चिंतंतो ससरूवं जिणबिंबं अहव अक्खरं परमं। झायदि कम्मविवायं तस्स वयं होदि सामइयं।372। =अपने स्वरूप का अथवा जिनबिंब का, अथवा पंच परमेष्ठी के वाचक अक्षरों का अथवा कर्मविपाक का (अथवा पदार्थों के यथावस्थित स्वरूप का, तीनों लोक का और अशरण आदि वैराग्य भावनाओं का) चिंतवन करते हुए ध्यान करता है उसके सामायिक प्रतिमा होती है।372। (विशेष देखें ध्येय )।
देखें सामायिक - 2.3 [जिनवाणी, जिनबिंब, जिनधर्म, पंच परमेष्ठी तथा कृत्रिम और अकृत्रिम चैत्यालय का भी ध्यान किया जाता है।]
देखें सामायिक - 3.2 [पंच नमस्कार मंत्र का, प्रातिहार्य सहित अर्हंत के स्वरूप तथा सिद्ध के स्वरूप का ध्यान करता है।]
6. उपसर्ग आदि में अचल रहना चाहिए
रत्नकरंड श्रावकाचार/103 शीतोष्णदंशमशकपरिषहमुपसर्गमपि च मौनधरा:। सामायिकं प्रतिपन्ना अधिकुर्वीरन्नचलयोगा:।103। =सामायिक को प्राप्त होने वाले मौनधारी अचलयोग होते हुए शीत उष्ण डांस मच्छर आदि की परीषह को और उपसर्ग को भी सहन करते हैं।103। ( चारित्रसार/19/3 )।
- सामायिक विधि के सात अधिकार
सामायिक व्रत व प्रतिमा निर्देश
सामायिक चारित्र निर्देश
1. सामायिक व्रत के लक्षण
1. समता धारण व आर्तरौद्र परिणामों का त्याग
पं.विं./6/8 समता सर्वभूतेषु संयमे शुभभावना। आर्तरौद्रपरित्यागस्तद्धि सामायिकं व्रतम् ।8। = सब प्राणियों में समता भाव (देखें सामायिक - 1.1) धारण करना, संयम के विषय में शुभ विचार रखना, तथा आर्त एवं रौद्र ध्यानों का त्याग करना, इसे सामायिक व्रत माना है।8।
2. अवधृत कालपर्यंत सर्व सावद्य निवृत्ति
रत्नकरंड श्रावकाचार/97-98 आसमयमुक्तिमुक्तं पंचाधानामशेषभावेन। सर्वत्र च सामयिका: सामायिकं नाम शंसंति।97। मूर्धरुहमुष्टिवासोबंधं पर्यंकबंधनं चापि। स्थानमुपवेशनं वा समयं जानंति समयज्ञा:।98। =मन, वचन, काय, तथा कृत कारित अनुमोदना ऐसे नवकोटि से की हुई मर्यादा के भीतर या बाहर भी किसी नियत समय (अंतर्मुहूर्त) पर्यंत पाँचों पापों का त्याग करने को सामायिक कहते हैं।97। ज्ञानी पुरुष चोटी के बाल मुट्ठी व वस्त्र के बाँधने को तथा पर्यंक आसन से या कायोत्सर्ग आसन से सामायिक करने को स्थान व उपवेशन को अथवा सामायिक करने योग्य समय को जानते हैं।98। (विशेष देखें सामायिक - 2 व सामायिक - 3.4 ); ( चारित्रसार/19/3 ); ( सागार धर्मामृत/5/28 )।
सर्वार्थसिद्धि/7/1/343/6 सर्वसावद्यनिवृत्तिलक्षणसामायिक। =सर्व सावद्य की निवृत्ति ही है लक्षण जिसका ऐसा सामायिक व्रत (यद्यपि सामायिक की अपेक्षा एक है पर छेदोपस्थापना की अपेक्षा 5 है। देखें छेदोपस्थापना )।
2. सामायिक प्रतिमा का लक्षण
वसुनंदी श्रावकाचार/276-278 काउसग्गम्हि ठिओ लाहालाहं च सत्तुमित्तं च। संयोय-विप्पजोयं तिणकंचणं चंदणं वासिं।276। जो पस्सइ समभावं मणम्मि धरिऊण पंचणवयारं। वरअट्ठपाडिहेरेहिं संजुयं जिणसरूवं च।277। सिद्धसरूवं झायइ अहवा झाणुत्तमं ससंवेयं। खणमेक्कमविचलंगो उत्तमसामाइयं तस्स।287। =जो श्रावक कायोत्सर्ग में स्थित होकर लाभ-अलाभ को, शत्रु-मित्र को, इष्टवियोग व अनिष्टसंयोग को, तृण-कंचण को, चंदन और कुठार को समभाव से देखता है, और मन में पंच नमस्कार मंत्र को धारण कर उत्तम अष्ट प्रातिहार्यों से संयुक्त अर्हंतजिन के स्वरूप को और सिद्ध भगवान् के स्वरूप को ध्यान करता है, अथवा संवेग सहित अविचल अंग होकर एक क्षण को भी उत्तम ध्यान करता है उसको उत्तम सामायिक होती है।276-278। (विशेष देखें सामायिक - 2.3)।
द्रव्यसंग्रह टीका/45/195/5 त्रिकालसामायिके प्रवृत्त: तृतीय:। =जब (पूर्वाह्न, मध्याह्न व अपराह्न) ऐसी त्रिकाल सामायिक में प्रवृत्त होता है तब तीसरी (सामायिक) प्रतिमाधारी होता है।
सागार धर्मामृत/7/1 सुदृग्मूलोत्तरगुणग्रामाभ्यासविशुद्धधी:। भजंस्त्रिसंध्यं कृच्छ्रेऽपि साम्यं सामायिकीभवेत् ।1। =जिस श्रावक की बुद्धि निरतिचार सम्यग्दर्शन, निरतिचार मूलगुण और निरतिचार उत्तर गुणों के समूह के अभ्यास से विशुद्ध है, ऐसा श्रावक पूर्वाह्ण, मध्याह्न व अपराह्ण इन तीनों कालों में परीषह उपसर्ग उपस्थित होने पर भी साम्य परिणाम को धारण करता है, वह सामायिक प्रतिमाधारी है।1।
देखें सामायिक - 2.3 [आवर्त, व नमस्कार आदि योग्य कृतिकर्म युक्त होकर पूर्वाह्न, मध्याह्न, व अपराह्न इन तीन संध्याओं में क्षेत्र व काल की सीमा बाँधकर जो पंच परमेष्ठी आदि का या आत्मस्वरूप का चिंतवन करता है वह सामायिक प्रतिमाधारी है।]
चारित्रसार/37/1 सामायिक: संध्यात्रयेऽपि भुवनत्रयस्वामिनं वंदमानो वक्ष्यमाणव्युत्सर्गतपसि कथितक्रमेण। =सामायिक सबेरे दोपहर और शाम तीनों समय करना चाहिए और वह तीनों लोकों के स्वामी भगवान् जिनेंद्रदेव को नमस्कार कर आगे जो व्युत्सर्ग नाम का तपश्चरण कहेंगे उसमें कहे हुए क्रम के अनुसार अर्थात् कायोत्सर्ग करते हुए करना चाहिए।
3. सामायिक व्रत व प्रतिमा में अंतर
चारित्रसार/37/3 अस्य सामायिकस्यानंतरोक्तशीलसप्तकांतर्गतं सामायिकव्रतं शीलं भवतीति। =पहिले व्रत प्रतिमा में 12 व्रतों के अंतर्गत सात शीलव्रतों में सामायिक नाम का व्रत कहा है (देखें शिक्षा व्रत ) वही सामायिक इस सामायिक प्रतिमा पालन करने वाले श्रावक के व्रत हो जाता है जबकि दूसरी प्रतिमा वाले के वही शीलरूप (अर्थात् अभ्यासरूप से) रहता है। ( सागार धर्मामृत/7/6 )।
चारित्तपाहुड़/ टी./25/45/15 दिनं प्रति एकवारं द्विवारं त्रिवारं वा व्रतप्रतिमायां सामायिकं भवति। यत्त सामायिकप्रतिमायां सामायिकं प्रोक्तं तत्त्रीन् वारान् निश्चयेन करणीयमिति ज्ञातव्यं। =व्रत प्रतिमा में एकबार दोबार अथवा तीनबार सामायिक होती है। (कोई नियम नहीं है) जबकि सामायिक प्रतिमा में निश्चय से तीनबार सामायिक करने योग्य है ऐसा जानना चाहिए।
लाटी संहिता/7/4-8 ननु व्रतप्रतियायामेतत्सामायिकव्रतम् । तदेवात्र तृतीयायां प्रतिमायां तु किं पुन:।4। सत्यं किंतु विशेषोऽस्ति प्रसिद्ध: परमागमे। सातिचारं तु तत्र स्यादत्रातीचारविवर्जितम् ।5। किंच तत्र त्रिकालस्य नियमो नास्ति देहिनाम् । अत्र त्रिकालनियमो मुनेर्मूलगुणादिवत् ।6। तत्र हेतुवशात्क्वापि कुर्यात्कुर्यान्न वा क्वचित् । सातिचारव्रतत्वाद्वा तथापि न व्रतक्षति:।7। अत्रावश्यं त्रिकालेऽपि कार्यसामायिकं जगत् । अन्यथा व्रतहानि: स्यादतीचारस्य का कथा।8। =प्रश्न-यह सामायिक नामका व्रत व्रतप्रतिमा में कहा है, और वही व्रत इस तीसरी प्रतिमा में बतलाया है। सो इसमें क्या विशेषता है?।4।
उत्तर-ठीक है, जो 'सामायिक' व्रत प्रतिमा में है वही तीसरी प्रतिमा में है, परंतु उन दोनों में जो विशेषता है, वह आगम में प्रसिद्ध है। वह विशेषता यह है कि 1 व्रतप्रतिमा की सामायिक सातिचार है और सामायिक प्रतिमा की निरतिचार।5। (देखें आगे इस व्रत के अतिचार )। 2. दूसरी बात यह भी है कि व्रत प्रतिमा में तीनों काल सामायिक करने का नियम नहीं, जबकि सामायिक प्रतिमा में मुनियों के मूलगुण आदि की भाँति तीनों काल करने का नियम है।6। 3. व्रत प्रतिमावाला कभी सामायिक करता है और कारणवश कभी नहीं भी करता है, फिर भी उसका व्रत भंग नहीं होता, क्योंकि वह इस व्रत को सातिचार पालन करता है।7। परंतु तीसरी प्रतिमा में श्रावक को तीनों काल सामायिक करना आवश्यक है, अन्यथा उसके व्रत की क्षति हो जाती है, तब अतिचार की तो बात ही क्या?।8।
देखें सामायिक - 3.1 व 3.2 [सामायिक व्रत का लक्षण करते हुए केवल उसका स्वरूप ही बताया है, जबकि सामायिक प्रतिमा का लक्षण करते हुए उसे तीन बार अवश्य करने का निर्देश किया गया।]
देखें सामायिक - 2.3[आवर्त आदि कृति कर्म सहित सामायिक करने का निर्देश सर्वत्र सामायिक प्रतिमा के प्रकरण में किया है, सामायिक नामक शिक्षा व्रत के प्रकरण में नहीं।]
4. सामायिक के समय गृहस्थ भी साधु तुल्य होता है।
मू.आ./531 सामाइम्हि दु कदे समणो वि सावओ हवदि जम्हा। एदेण कारणेण दु बहुसो सामाइयं कुज्जा। =सामायिक करता हुआ श्रावक भी संयमी मुनि के समान हो जाता है, इसलिए बहुत करके सामायिक करना चाहिए।531।
रत्नकरंड श्रावकाचार/102 सामायिके सारंभा: परिग्रहा नैव संति सर्वेऽपि। चेलोपसृष्टमुनिरिव गृही तदा याति यतिभावं।102। =सामायिक में आरंभ सहित के सब ही प्रकार नहीं होते हैं, इस कारण यह उस समय गृहस्थ भी उस मुनि के तुल्य हो जाता है जिसे कि उपसर्ग के रूप में वस्त्र ओढ़ा दिया गया हो।102।
सर्वार्थसिद्धि/7/21/360/9 इयति देशे एतावति काले इत्यवधारिते सामायिके स्थितस्य महाव्रतत्वं पूर्ववद्वेदितव्यम् । कुत:। अणुस्थूलकृतहिंसादिनिवृत्ते:। =इतने देश में और इतने काल तक इस प्रकार निश्चित की गयी सीमा में, सामायिक में स्थित पुरुष के पहिले के समान (देखें दिग्व्रत ) महाव्रत जानना चाहिए, क्योंकि इसके सूक्ष्म और स्थूल दोनों प्रकार के हिंसा आदि पापों का त्याग हो जाता है। ( राजवार्तिक/7/21/23/549/22 ); (गो.क./गो.प्र./547/713/1)।
पुरुषार्थ-सिद्ध्युपाय/150 सामायिकश्रितानां समस्तसावद्ययोगपरिहारात् । भवति महाव्रतमेषामुदयेऽपि चारित्रमोहस्य। =इन सामायिक दशा को प्राप्त हुए श्रावकों के चारित्र मोह के उदय होते भी समस्त पाप के योगों के परिहार से महाव्रत होता है।150।
चारित्रसार/19/4 हिंसादिभ्यो विषयकषायेभ्यश्च विनिवृत्त्य सामायिके वर्तमानो महाव्रती भवति। =विषय और कषायों से निवृत्त होकर सामायिक में वर्तमान गृहस्थ महाव्रती होता है।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा/355-357 बंधित्ता पज्जंकं अहवा उड्ढेण उब्भओ ठिच्चा। कालपमाणं किच्चा इंदिय-वावार-वज्जिदो होउं।355। जिणवयणेयग्ग-मणो-संवुड-काओ य अंजलिं किच्चा। स-सरूवे संलीणो वंदणअत्थं विचिंतंतो।356। किच्चा देसपमाणं सव्वं सावज्ज-वज्जिदो होउं। जो कुव्वदि सामइयं सो मुणि-सरिसो हवे ताव।357।=पर्यंकआसन को बाँधकर अथवा सीधा खड़ा होकर, काल का प्रमाण करके (देखें सामायिक - 3.1) इंद्रियों के व्यापार को छोड़ने के लिए जिनवचन में मन को एकाग्र करके, काय को संकोचकर, हाथ की अंजलि करके, अपने स्वरूप में लीन हुआ अथवा वंदना पाठ के अर्थ का चिनतवन करता हुआ, क्षेत्र का प्रमाण करके और समस्त सावद्य योग को छोड़कर जो श्रावक सामायिक करता है वह मुनि के समान है।355-357।
5. साधु तुल्य होते हुए भी वह संयत नहीं
सर्वार्थसिद्धि/7/21/360/10 संयमप्रसंग इति चेत्; न; तद्धातिकर्मोदयसद्भावात् । महाव्रताभाव इति चेत् । तन्न, उपचाराद् राजकुले सर्वगतचैत्राभिधानवत् । =प्रश्न-यदि ऐसा है (अर्थात् यदि सामायिक में स्थित गृहस्थ भी महाव्रती कहा जायेगा) तो सामायिक में स्थित होते हुए पुरुष के सकलसंयम का प्रसंग प्राप्त होता है ?
उत्तर-नहीं, क्योंकि, इसके संयम का घात करने वाले कर्मों का उदय पाया जाता है।
प्रश्न-तो फिर इसके महाव्रत का अभाव प्राप्त होता है ?
उत्तर-नहीं, क्योंकि, जैसे राजकुल में चैत्र को सर्वगत उपचार से कहा जाता है उसी प्रकार यहाँ महाव्रत उपचार से जानना चाहिए। ( राजवार्तिक/7/21/24-25/549/24 ); ( चारित्रसार/19/4 ); ( गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/547/714/1 )।
6. सामायिक व्रत का प्रयोजन
रत्नकरंड श्रावकाचार/101 सामायिकं प्रतिदिवसं यथावदप्यनलसेन चेतव्यं। व्रतपंचकपरिपूर्णकारणमवधानयुक्तेन।101। =सामायिक पाँच महाव्रतों के परिपूर्ण करने के कारण है, इसलिए उसे प्रतिदिन ही आलस्यरहित और एकाग्रचित्त से यथानियम करना चाहिए।
देखें सामायिक - 3.4 [सामायिक व्रत से मुनि व्रत की शिक्षा का अभ्यास होता है।]
7. सामायिक व्रत का महत्त्व
ज्ञानार्णव/24/ श्लो. साम्यभावितभावानां स्यात्सुखं यन्मनीषिणाम् । तन्मन्ये ज्ञानसांराज्यसमत्वमवलंबते।14। शाम्यंति जंतव: क्रूरा बद्धवैरा: परस्परम् । अपि स्वार्थे प्रवृत्तस्य मुने: साम्यप्रभावत:।20। क्षुभ्यंति ग्रहयक्षकिंनरनरास्तुष्यंति नाकेश्वरा: मुंचंति द्विपदैत्यसिंहशरभव्यालादय: क्रूरताम् । रुग्वैरप्रतिबंधविभ्रमभयभ्रष्टं जगज्जायते, स्याद्योगींद्रसमत्वसाध्यमथवा किं किं न सद्यो भुवि।24। =साम्यभाव से पदार्थों का विचार करने वाले बुद्धिमान् पुरुषों के जो सुख होता है सो मैं ऐसा मानता हूँ कि वह ज्ञानसाम्राज्य (केवलज्ञान) की समता को अवलंबन करता है अर्थात् उसके समान है।14। इस साम्य के प्रभाव से अपने स्वार्थ में प्रवृत्त मुनि के निकट परस्पर वैर करने वाले क्रूर जीव भी साम्यभाव को प्राप्त हो जाते हैं।20। समभावयुक्त योगीश्वरों के प्रभाव से ग्रह यक्ष किन्नर मनुष्य ये सब क्षोभ को प्राप्त नहीं होते हैं और इंद्रगण हर्षित होते हैं। शत्रु, दैत्य, सिंह, अष्टापद, सर्प इत्यादि क्रूर प्राणी अपनी क्रूरता को छोड़ देते हैं, और यह जगत् रोग, वैर, प्रतिबंध, विभ्रम, भय आदिक से रहित हो जाता है। इस पृथिवी में ऐसा कौन-सा कार्य है, जो योगीश्वरों के समभावों से साध्य न हो।24।
देखें सामायिक - 3.4 [सामायिक काल में गृहस्थ भी साधु तुल्य होता है।]
देखें सामायिक - 4.3 [एक सामायिक में सकलव्रत गर्भित हैं।]
8. सामायिक व्रत के अतिचार
तत्त्वार्थसूत्र/7/33 योगदुष्प्रणिधानानादरस्मृत्यनुपस्थानानि।33। =काययोगदुष्प्रणिधान, वचनयोगदुष्प्रणिधान, मनोयोगदुष्प्रणिधान, अनादर और स्मृति का अनुपस्थान ये सामायिक व्रत के पाँच अतिचार हैं।33। ( रत्नकरंड श्रावकाचार/105 ); ( चारित्रसार/20/3 ); ( सागार धर्मामृत/5/33 )।
1. सामायिक चारित्र का लक्षण
1. रागद्वेषादि से निवृत्ति व समता
यो.सा./यो./99-100 सव्वे जीवा णाणमया जो समभाव मुणेइ। सो सामाइय जाणि फुडु जिणवर एम भणेइ।99। रायरोस वि परिहरिवि जो समभाउ मुणेइ। सो सामाइय जाणि फुडु केवलि एक भणेइ।100। =समस्त जीवराशि को ज्ञानमयी जानते हुए उसमें समता भाव रखना (अर्थात् सबको सिद्ध समान शुद्ध जानना-देखें सामायिक - 1.1) अथवा रागद्वेष को छोड़कर जो समभाव होता है, वह निश्चय से सामायिक है।99-100। ( द्रव्यसंग्रह टीका/35/147/4 )
द्रव्यसंग्रह टीका/35/147/7 स्वशुद्धात्मानुभूतिबलेनार्तरौद्रपरित्यागरूपं वा समस्तसुखदु:खादि मध्यस्थरूपं वा। =स्व शुद्धात्मा की अनुभूति के बल से आर्तरौद्र के परित्यागरूप अथवा समस्त सुख दु:ख आदि में मध्यस्थभाव रखने रूप है।
2. रत्नत्रय में एकाग्रता
समयसार / आत्मख्याति/154 सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रस्वभावपरमार्थभूतज्ञानभवनमात्रैकाग्र्यलक्षणं समयसारभूतं सामायिकं प्रतिज्ञायापि।...। =सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र स्वभाव वाला परमार्थभूत जो ज्ञान, उसकी भवनमात्र अर्थात् परिणमन होने मात्र जो एकाग्रता, वह ही जिसका लक्षण है, ऐसी समयसारस्वरूप सामायिक की प्रतिज्ञा लेकर के भी...।
3. सर्व सावद्य निवृत्ति रूप सकल संयम
पं.सं./प्रा./1/129 संगहिय-सयलसंजममेयजमणुत्तरं दुरवगम्मं। जीवो समुव्वहंतो सामाइयसंजदो होइ।129। = जिसमें सकल संयम संगृहीत हैं, ऐसे सर्वसावद्य के त्यागरूप एकमात्र अनुत्तर एवं दु:खगम्य अभेद संयम को धारण करना, सो सामायिकसंयम है और उसे धारण करने वाला सामायिक संयत कहलाता है। ( धवला 1/1,1,123/ गो.187/372); ( राजवार्तिक/9/18/2/616/28 ); ( धवला 1/1,1,123/369/2 ); ( गोम्मटसार जीवकांड/470/879 )।
सर्वार्थसिद्धि/9/18/436/5 सामायिकमुक्तम् । क्व। 'दिग्देशानर्थदंडविरतिसामायिकं'-इत्यत्र। =सामायिक चारित्र का कथन पहिले दिग्देश आदि व्रतों के अंतर्गत सामायिक व्रत के नाम से कर दिया गया है कि [सर्व सावद्य योग की निवृत्ति सामायिक है-(देखें सामायिक - 3.1)]।
2. नियत व अनियतकाल सामायिक निर्देश
सर्वार्थसिद्धि/9/18/436/5 तद् द्विविधं नियतकालमनियतकालं च। स्वाध्यायपदं नियतकालम् । ईर्यापथाद्यनियतकालम् । =1.-वह सामायिक चारित्र दो प्रकार का है-नियतकाल व अनियतकाल। ( तत्त्वसार/6/45 ); ( चारित्रसार/19/2 )। 2. स्वाध्याय आदि [कृतिकर्म पूर्वक आसन आदि लगाकर पंच परमेष्ठी आदि के स्वरूप का या निजात्मा का चिंतवन करना (देखें सामायिक - 2) नियतकाल सामायिक है और ईयापथ आदि अनियतकाल सामायिक है।
राजवार्तिक/9/18/2/616/28 सर्वस्य सावद्ययोगस्याभेदेन प्रत्याख्यानमवलंब्य प्रवृत्तमवधृतकालं वा सामायिकमित्याख्यायते। =सर्व सावद्य योगों का अभेदरूप से सार्वकालिक त्याग करना अनियत काल सामायिक है और नियत समय तक त्याग करना सो नियतकाल सामायिक है।
नोट-[यद्यपि चारित्रसार में व्रत के प्रकरण में सामायिक के ये दो भेद किये हैं, पर वहाँ लक्षण नियतकाल सामायिक का ही दिया है, अनियत काल सामायिक का नहीं। इसलिए दो भेद सामायिक चारित्र के ही हैं, सामायिकव्रत के नहीं, क्योंकि अभ्यस्त दशा में रहने के कारण गृहस्थ या अणुव्रती श्रावक सार्वकालिक समता या सर्वसावद्य से निवृत्ति करने को समर्थ नहीं है।]
3. सामायिक चारित्र में संयम के संपूर्ण अंग समा जाते हैं
धवला 1/1,1,123/369/5 आक्षिप्ताशेषरूपमिदं सामान्यमिति कुतोऽवसीयत इति चेत्सर्वसावद्ययोगोपादानात् । नह्येकस्मिन् सर्वशब्द: प्रवर्तते विरोधात् । स्वांतर्भाविताशेषसंयमविशेषैकयम: सामायिकशुद्धिसंयम इति यावत् । ...सकलव्रतानामेकत्वमापाद्य एकयमोपादानाद् द्रव्यार्थिकनय:। =प्रश्न-यह सामान्य संयम अपने संपूर्ण भेदों का संग्रह करने वाला है, यह कैसे जाना जाता है?
उत्तर-'सर्वसावद्ययोग' पद के ग्रहण करने से ही, यहाँ पर अपने संपूर्ण भेदों का संग्रह कर लिया गया है, यह बात जानी जाती है। यदि यहाँ पर संयम के किसी एक भेद की ही मुख्यता होती तो 'सर्व' शब्द का प्रयोग नहीं किया जा सकता था, क्योंकि, ऐसे स्थल पर 'सर्व' शब्द के प्रयोग करने में विरोध आता है। इस कथन से यह सिद्ध हुआ कि जिसने संपूर्ण संयम के भेदों (व्रत समिति गुप्ति आदि को) अपने अंतर्गत कर लिया है ऐसे अभेदरूप से एक यम को धारण करने वाला जीव सामायिक-शुद्धि-संयत कहलाता है। (उसी में दो तीन आदि भेद डालना छेदोपस्थापना चारित्र कहलाता है)। संपूर्ण व्रतों को सामान्य की अपेक्षा एक मानकर एक यम को ग्रहण करने वाला होने से यह द्रव्यार्थिक नय का विषय है। (विशेष देखें छेदोपस्थापना )।
4. इसीलिए मिथ्यादृष्टि को संभव नहीं
धवला 1/1,1,123/369/2 सर्वसावद्ययोगाद् विरतोऽस्मीति सकलसावद्ययोगविरति: सामायिकशुद्धिसंयमो द्रव्यार्थिकत्वात् । एवंविधैकव्रतो मिथ्यादृष्टि: किं न स्यादिति चेन्न, आक्षिप्ताशेषविशेषसामान्यार्थिनो नयस्य सम्यग्दृष्टित्वाविरोधात् । ='मैं सर्व सावद्ययोग से विरत हूँ' इस प्रकार द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा सकल सावद्ययोग के त्याग को सामायिक-शुद्धि-संयम कहते हैं।
प्रश्न-इस प्रकार एक व्रत का नियमवाला जीव मिथ्यादृष्टि क्यों नहीं हो जायेगा ?
उत्तर-नहीं, क्योंकि, जिसमें संपूर्ण चारित्र के भेदों का संग्रह होता है, ऐसे सामान्यग्राही द्रव्यार्थिक नय को समीचीन दृष्टि मानने में कोई विरोध नहीं आता है।
5. सामायिक चारित्र व गुप्ति में अंतर
राजवार्तिक/9/18/3/617/1 स्यादेतत्-निवृत्तिपरत्वात्-सामायिकस्य गुप्तिप्रसंग इति। तन्न; किं कारणम् । मानसप्रवृत्तिभावात् । अत्र मानसीप्रवृत्तिरस्ति निवृत्तिलक्षणत्वाद् गुप्तेरित्यस्ति भेद:। =प्रश्न-निवृत्तिपरक होने के कारण सामायिक चारित्र के गुप्ति होने का प्रसंग आता है।
उत्तर-नहीं, क्योंकि सामायिक चारित्र में मानसी प्रवृत्ति का सद्भाव होता है, जबकि गुप्ति पूर्ण निवृत्तिरूप होती है। यह दोनों में भेद है।
6. सामायिक चारित्र व समिति में अंतर
राजवार्तिक/9/18/4/617/4 स्यान्मतम्-यदि प्रवृत्तिरूपं सामायिकं समितिलक्षणं प्राप्तमिति; तन्न: किं कारणम् । तत्र यतस्य प्रवृत्त्युपदेशात् । सामायिके हि चारित्रे यतस्य समितिषु प्रवृत्तिरुपदिश्यते। अत: कार्यकारणभेदादस्ति विशेष:। =प्रश्न-यदि सामायिक प्रवृत्तिरूप है (देखें शीर्षक सं - 5) तो इसको समिति का लक्षण प्राप्त होता है ?
उत्तर-नहीं, क्योंकि, सामायिक चारित्र में समर्थ व्यक्ति को ही समितियों में प्रवृत्ति का उपदेश है। अत: सामायिक चारित्र कारण है और समिति इसका कार्य।
पुराणकोष से
(1) अगवाह श्रुत के चौदह प्रकीर्णकों (भेदों) में प्रथम प्रकीर्णक । हरिवंशपुराण 2.102
(2) षडावश्यक क्रियाओं में प्रथम क्रिया-समस्त सावद्ययोगों का त्याग कर चित्त को एक बिंदु पर स्थिर करना । महापुराण 17.202, हरिवंशपुराण 34.142-143
(3) एक शिक्षाव्रत-वीतराग देव के स्मरण में स्थित पुरुष का सुख-दुःख तथा शत्रु-मित्र में माध्यस्थ भाव रखना । यह दुर्ध्यान और दुर्लेश्या को छोड़कर प्रतिदिन प्रात: मध्याह्न और सायंकाल तीन बार किया जाता है । इनके पांच अतिचार होते हैं― 1. मनोयोग दुष्प्रणिधान 2. वचनयोगदुष्प्रणिधान 3. काययोगदुष्प्रणिधान 4. अनादर और 5. स्मृत्यनुपस्थान । पद्मपुराण 14.199, हरिवंशपुराण 58.153, 180, वीरवर्द्धमान चरित्र 18.55
(4) श्रावक की ग्यारह प्रतिमाओं में तीसरी प्रतिमा । इसका स्वरूप सामायिक शिक्षाव्रत के समान है । वीरवर्द्धमान चरित्र 18.60