ईर्यापथ शुद्धि पाठ व विधि: Difference between revisions
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<li><span class="HindiText">पंचमहागुरु भक्ति व </span></li> | |||
<li><span class="HindiText">समाधि भक्ति। इनके अतिरिक्त '''ईर्यापथ शुद्धि''', सामायिक दंडक व थोस्सामि दंडक ये तीन पाठ और भी हैं। दैनिक अथवा नैमित्तिक सर्व क्रियाओं में इन्हीं भक्तियों का उलट-पलट कर पाठ किया जाता है, किन्हीं क्रियाओं में किन्हीं का और किन्हीं में किन्हीं का। इन छहों क्रियाओं में तीन ही वास्तव में मूल हैं—देव या आचार्य वंदना, प्रत्याख्यान, स्वाध्याय या प्रतिक्रमण। शेष तीन का स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है। उपरोक्त तीन मूल क्रियाओं के क्रियाकांड में ही उनका प्रयोग किया जाता है। यही कृतिकर्म का विधि विधान है जिसका परिचय देना यहाँ अभीष्ट है। प्रत्येक भक्ति के पाठ के साथ मुख से सामायिक दंडक व थोस्सामि दंडक (स्तव) का उच्चारण; तथा काय से दो नमस्कार, 4 नति व 12 आवर्त करने होते हैं। इनका क्रम निम्न प्रकार है–(<span class="GRef"> चारित्रसार/157/1 </span>का भावार्थ)।<br /> | |||
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Revision as of 10:56, 12 July 2023
द्रव्य–क्षेत्र–काल व भाव शुद्धि; मन-वचन व काय शुद्धि; ईर्यापथ शुद्धि, विनय शुद्धि, कायोत्सर्ग-अवनति-आवर्त व शिरोनति आदि की शुद्धि–इस प्रकार कृतिकर्म में इन सब प्रकार की शुद्धियों का ठीक प्रकार विवेक रखना चाहिए।
- सिद्ध भक्ति,
- श्रुत भक्ति,
- चारित्र भक्ति,
- योग भक्ति,
- आचार्य भक्ति,
- निर्वाण भक्ति,
- नंदीश्वर भक्ति,
- वीर भक्ति,
- चतुर्विंशति तीर्थंकर भक्ति,
- शांति भक्ति,
- चैत्य भक्ति,
- पंचमहागुरु भक्ति व
- समाधि भक्ति। इनके अतिरिक्त ईर्यापथ शुद्धि, सामायिक दंडक व थोस्सामि दंडक ये तीन पाठ और भी हैं। दैनिक अथवा नैमित्तिक सर्व क्रियाओं में इन्हीं भक्तियों का उलट-पलट कर पाठ किया जाता है, किन्हीं क्रियाओं में किन्हीं का और किन्हीं में किन्हीं का। इन छहों क्रियाओं में तीन ही वास्तव में मूल हैं—देव या आचार्य वंदना, प्रत्याख्यान, स्वाध्याय या प्रतिक्रमण। शेष तीन का स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है। उपरोक्त तीन मूल क्रियाओं के क्रियाकांड में ही उनका प्रयोग किया जाता है। यही कृतिकर्म का विधि विधान है जिसका परिचय देना यहाँ अभीष्ट है। प्रत्येक भक्ति के पाठ के साथ मुख से सामायिक दंडक व थोस्सामि दंडक (स्तव) का उच्चारण; तथा काय से दो नमस्कार, 4 नति व 12 आवर्त करने होते हैं। इनका क्रम निम्न प्रकार है–( चारित्रसार/157/1 का भावार्थ)।
अधिक जानकारी के लिये देखें कृतिकर्म - 4.7