करुणा: Difference between revisions
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भ.आ./वि/ | भ.आ./वि/1696/1516/13 <span class="SanskritText">शारीरं, मानसं, स्वाभाविकं च दु:खमसह्याप्नुवतो दृष्ट्वा हा वराका मिथ्यादर्शनेनाविरत्या कषायेणाशुभेन योगेन च समुपार्जिताशुभकर्मपर्यायपुद्गलस्कन्धतदुपोद्भवा विपदो विवशा: प्राप्नुवन्ति इति करुणा अनुकम्पा।</span> = <span class="HindiText">शारीरिक, मानसिक, और स्वाभाविक ऐसी असह्य दु:खराशि प्राणियों को सता रही है, यह देखकर, ‘अहह, इन दीन प्राणियों ने मिथ्यादर्शन, अविरति, कषाय और अशुभयोग से जो उत्पन्न किया था; वह कर्म उदय में आकर इन जीवों को दु:ख दे रहा है। ये कर्मवश होकर दु:ख भोग रहे हैं। इनके दु:ख से दु:खित होना करुणा है। </span><br /> | ||
भ.आ./वि/ | भ.आ./वि/1836/1650।3<span class="SanskritText"> दया सर्वप्राणिविषया। </span>= <span class="HindiText">सर्व प्राणियों के ऊपर उनका दु:ख देखकर अन्त:करण आर्द्र होना दया का लक्षण है। <br /> | ||
<strong>* | <strong>*अनुकम्पा के भेद व लक्षण―</strong> <strong> </strong>देखें [[ अनुकम्पा ]]। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="1" id="1"><strong>करुणा जीव का | <li><span class="HindiText" name="1" id="1"><strong>करुणा जीव का स्वभाव है </strong> </span><br /> | ||
ध. | ध.13/5,5,48/361/14 <span class="PrakritText">करुणाए कारणं कम्मं करुणे त्ति किं ण वुत्तं। ण करुणाए जीवसहावस्स कम्मजणिदत्तविरोहादो। अकरुणाए कारणं कम्मं वत्तव्वं। ण एस दोसो, संजमघादिकम्माणं फलभावेण तिस्से अब्भुवगमादो।</span> =<span class="HindiText"> <strong>प्रश्न</strong>–करुणा का कारणभूत कर्म करुणा कर्म है, यह क्यों नहीं कहा ? <strong>उत्तर</strong>–नहीं, क्योंकि, करुणा जीव का स्वभाव है, अतएव उसे कर्मजनित मानने में विरोध आता है। <strong>प्रश्न</strong>–तो फिर अकरुणा का कारण कर्म कहना चाहिए ? <strong>उत्तर</strong>–यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, उसे संयमघाती कर्मों के फलरूप से स्वीकार किया गया है। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="2" id="2"><strong>करुणा धर्म का मूल है</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="2" id="2"><strong>करुणा धर्म का मूल है</strong> </span><br /> | ||
कुरल/ | कुरल/25/2 <span class="SanskritText">यथाक्रमं समीक्ष्यैव दयां चित्तेन पालयेत्। सर्वे धर्मा हि भाषन्ते दया मोक्षस्य साधनम्।2। </span>= <span class="HindiText">ठीक पद्धति से सोच-विचारकर हृदय में दया धारण करो, और यदि तुम सर्व धर्मों से इस बारे में पूछकर देखोगे तो तुम्हें मालूम होगा कि दया ही एकमात्र मुक्ति का साधन है। </span><br /> | ||
पं.विं./ | पं.विं./6/37 <span class="SanskritGatha">येषां जिनोपदेशेन कारुण्यामृतपूरिते। चित्ते जीवदया नास्ति तेषां धर्म: कुतो भवेत्।37। मूलं धर्मतरोराद्या व्रतानां धाम संपदाम्। गुणानां निधिरित्यङि्गदया कार्या विवेकिभि:।38। </span>=<span class="HindiText"> जिन भगवान् के उपदेश से दयालुतारूप अमृत से परिपूर्ण जिन श्रावकों के हृदय में प्राणिदया आविर्भूत नहीं होती है उनके धर्म कहाँ से हो सकता है ? ।37। प्राणिदया धर्मरूपी वृक्ष की जड़ है, व्रतों में मुख्य है, सम्पत्तियों का स्थान है और गुणों का भण्डार है। इसलिए उसे विवेकी जनों को अवश्य करना चाहिए।38।<br /> | ||
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<li class="HindiText" name="3" id="3"><strong> करुणा | <li class="HindiText" name="3" id="3"><strong> करुणा सम्यक्त्व का चिह्न है</strong> <br /> | ||
का.अ./ | का.अ./412/पं. जयचन्द दश लक्षण धर्म दया प्रधान है और दया सम्यक्त्व का चिह्न है। (और भी देखो सम्यग्दर्शन/I/2। प्रशम संवेग आदि चिह्न)।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="4" id="4"><strong> | <li><span class="HindiText" name="4" id="4"><strong> परन्तु निश्चय से करुणा मोह का चिह्न है</strong> </span><br /> | ||
प्र.सा./मू./ | प्र.सा./मू./85<span class="PrakritGatha">अट्ठे अजधागहणं करुणाभावश्च तिर्यङ्मनुजेषु। विषयेषु च प्रसङ्गो मोहस्यैतानि लिङ्गानि।85। </span>= <span class="HindiText">पदार्थ का अयथार्थ ग्रहण और तिर्यंच मनुष्यों के प्रति करुणाभाव तथा विषयों की संगति (इष्ट विषयों में प्रीति और अनिष्ट विषयों में अप्रीति) ये सब मोह के चिह्न हैं। </span><br /> | ||
प्र. सा./त.प्र/ | प्र. सा./त.प्र/85<span class="SanskritText"> तिर्यग्मनुष्येषु प्रेक्षार्हेष्वपि कारुण्यबुद्धया च मोहम्... झगिति संभवन्नपि त्रिभूमिकोऽपि मोहो निहन्तव्य:। </span>= <span class="HindiText">तिर्यग्मनुष्य प्रेक्षायोग्य होने पर भी उनके प्रति करुणाबुद्धि से मोह को जानकर, तत्काल उत्पन्न होते भी तीनों प्रकार का मोह (देखें [[ ऊपर मूलगाथा ]]) नष्ट कर देने योग्य है।</span><br /> | ||
प्र. सा./ता.वृ./ | प्र. सा./ता.वृ./85<span class="SanskritText"> शुद्धात्मोपलब्धिलक्षणपरमोपेक्षासंयमाद्विपरीत: करुणाभावो दयापरिणामश्च अथवा व्यवहारेण करुणाया अभाव:। केषु विषयेषु। तिर्यग्मनुजेषु, इति दर्शनमोहचिह्नं। </span>= <span class="HindiText">शुद्धात्मा की उपलब्धि है लक्षण जिसका ऐसे परम उपेक्षा संयम से विपरीत करुणाभाव या दयापरिणाम अथवा व्यवहार से करुणा का अभाव; किनमें – तिर्यंच मनुष्यों में; ये दर्शनमोह का चिह्न है।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText" name="5" id="5"><strong> | <li><span class="HindiText" name="5" id="5"><strong> निश्चय से वैराग्य ही करुणा है</strong> </span><br> | ||
स.म./ | स.म./10/108/13<span class="SanskritText"> कारुणिकत्वं च वैराग्याद् न भिद्यते। ततो युक्तमुक्तम् अहो विरक्त इति स्तुतिकारेणोपहासवचनम्।</span>=<span class="HindiText"> करुणा और वैराग्य अलग-अलग नहीं हैं। इसलिए स्तुतिकार ने (देखें [[ मूल श्लोक नं#10 | मूल श्लोक नं - 10]]) ‘अहो विरक्त:’ ऐसा कहकर जो उपहास किया है सो ठीक है।</span></li> | ||
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Revision as of 21:39, 5 July 2020
स.सि./7/11/349/8 दीनानुग्रहभाव: कारुण्यम्। = दीनों पर दयाभावा रखना कारुण्य है। (रा.वा./7/11/3/538/19) (ज्ञा./27/8-10)
भ.आ./वि/1696/1516/13 शारीरं, मानसं, स्वाभाविकं च दु:खमसह्याप्नुवतो दृष्ट्वा हा वराका मिथ्यादर्शनेनाविरत्या कषायेणाशुभेन योगेन च समुपार्जिताशुभकर्मपर्यायपुद्गलस्कन्धतदुपोद्भवा विपदो विवशा: प्राप्नुवन्ति इति करुणा अनुकम्पा। = शारीरिक, मानसिक, और स्वाभाविक ऐसी असह्य दु:खराशि प्राणियों को सता रही है, यह देखकर, ‘अहह, इन दीन प्राणियों ने मिथ्यादर्शन, अविरति, कषाय और अशुभयोग से जो उत्पन्न किया था; वह कर्म उदय में आकर इन जीवों को दु:ख दे रहा है। ये कर्मवश होकर दु:ख भोग रहे हैं। इनके दु:ख से दु:खित होना करुणा है।
भ.आ./वि/1836/1650।3 दया सर्वप्राणिविषया। = सर्व प्राणियों के ऊपर उनका दु:ख देखकर अन्त:करण आर्द्र होना दया का लक्षण है।
*अनुकम्पा के भेद व लक्षण― देखें अनुकम्पा ।
- करुणा जीव का स्वभाव है
ध.13/5,5,48/361/14 करुणाए कारणं कम्मं करुणे त्ति किं ण वुत्तं। ण करुणाए जीवसहावस्स कम्मजणिदत्तविरोहादो। अकरुणाए कारणं कम्मं वत्तव्वं। ण एस दोसो, संजमघादिकम्माणं फलभावेण तिस्से अब्भुवगमादो। = प्रश्न–करुणा का कारणभूत कर्म करुणा कर्म है, यह क्यों नहीं कहा ? उत्तर–नहीं, क्योंकि, करुणा जीव का स्वभाव है, अतएव उसे कर्मजनित मानने में विरोध आता है। प्रश्न–तो फिर अकरुणा का कारण कर्म कहना चाहिए ? उत्तर–यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, उसे संयमघाती कर्मों के फलरूप से स्वीकार किया गया है।
- करुणा धर्म का मूल है
कुरल/25/2 यथाक्रमं समीक्ष्यैव दयां चित्तेन पालयेत्। सर्वे धर्मा हि भाषन्ते दया मोक्षस्य साधनम्।2। = ठीक पद्धति से सोच-विचारकर हृदय में दया धारण करो, और यदि तुम सर्व धर्मों से इस बारे में पूछकर देखोगे तो तुम्हें मालूम होगा कि दया ही एकमात्र मुक्ति का साधन है।
पं.विं./6/37 येषां जिनोपदेशेन कारुण्यामृतपूरिते। चित्ते जीवदया नास्ति तेषां धर्म: कुतो भवेत्।37। मूलं धर्मतरोराद्या व्रतानां धाम संपदाम्। गुणानां निधिरित्यङि्गदया कार्या विवेकिभि:।38। = जिन भगवान् के उपदेश से दयालुतारूप अमृत से परिपूर्ण जिन श्रावकों के हृदय में प्राणिदया आविर्भूत नहीं होती है उनके धर्म कहाँ से हो सकता है ? ।37। प्राणिदया धर्मरूपी वृक्ष की जड़ है, व्रतों में मुख्य है, सम्पत्तियों का स्थान है और गुणों का भण्डार है। इसलिए उसे विवेकी जनों को अवश्य करना चाहिए।38।
- करुणा सम्यक्त्व का चिह्न है
का.अ./412/पं. जयचन्द दश लक्षण धर्म दया प्रधान है और दया सम्यक्त्व का चिह्न है। (और भी देखो सम्यग्दर्शन/I/2। प्रशम संवेग आदि चिह्न)।
- परन्तु निश्चय से करुणा मोह का चिह्न है
प्र.सा./मू./85अट्ठे अजधागहणं करुणाभावश्च तिर्यङ्मनुजेषु। विषयेषु च प्रसङ्गो मोहस्यैतानि लिङ्गानि।85। = पदार्थ का अयथार्थ ग्रहण और तिर्यंच मनुष्यों के प्रति करुणाभाव तथा विषयों की संगति (इष्ट विषयों में प्रीति और अनिष्ट विषयों में अप्रीति) ये सब मोह के चिह्न हैं।
प्र. सा./त.प्र/85 तिर्यग्मनुष्येषु प्रेक्षार्हेष्वपि कारुण्यबुद्धया च मोहम्... झगिति संभवन्नपि त्रिभूमिकोऽपि मोहो निहन्तव्य:। = तिर्यग्मनुष्य प्रेक्षायोग्य होने पर भी उनके प्रति करुणाबुद्धि से मोह को जानकर, तत्काल उत्पन्न होते भी तीनों प्रकार का मोह (देखें ऊपर मूलगाथा ) नष्ट कर देने योग्य है।
प्र. सा./ता.वृ./85 शुद्धात्मोपलब्धिलक्षणपरमोपेक्षासंयमाद्विपरीत: करुणाभावो दयापरिणामश्च अथवा व्यवहारेण करुणाया अभाव:। केषु विषयेषु। तिर्यग्मनुजेषु, इति दर्शनमोहचिह्नं। = शुद्धात्मा की उपलब्धि है लक्षण जिसका ऐसे परम उपेक्षा संयम से विपरीत करुणाभाव या दयापरिणाम अथवा व्यवहार से करुणा का अभाव; किनमें – तिर्यंच मनुष्यों में; ये दर्शनमोह का चिह्न है। - निश्चय से वैराग्य ही करुणा है
स.म./10/108/13 कारुणिकत्वं च वैराग्याद् न भिद्यते। ततो युक्तमुक्तम् अहो विरक्त इति स्तुतिकारेणोपहासवचनम्।= करुणा और वैराग्य अलग-अलग नहीं हैं। इसलिए स्तुतिकार ने (देखें मूल श्लोक नं - 10) ‘अहो विरक्त:’ ऐसा कहकर जो उपहास किया है सो ठीक है।