ग्रंथ: Difference between revisions
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ध. | ध.9/4,1,54/259/10<span class="PrakritText"> "गणहरदेवविरइददव्वसुदं गंथो"।</span>=<span class="HindiText">गणधर देव से रचा गया द्रव्यश्रुत ग्रन्थ कहा जाता है।</span><br /> | ||
भ.आ./वि./ | ध.9/4,1,67/323/7 <span class="PrakritText">ववहारणयं पडुच्च खेत्तादी गंथो, अब्भंतरगंथकारणत्तादो। एदस्स परिहरणं णिग्गंथत्तं। णिच्छयणयं पडुच्च मिच्छत्तादी गंथो, कम्मबंधकारणत्तादो। तेसिं परिच्चागो णिग्गंथत्तं।</span> =<span class="HindiText"> व्यवहार नय की अपेक्षा क्षेत्रादि ग्रन्थ हैं, क्योंकि वे अभ्यन्तर ग्रन्थ के कारण हैं और इनका त्याग करना निर्ग्रन्थता है। निश्चयनय की अपेक्षा मिथ्यात्वादिक ग्रन्थ हैं, क्योंकि, वे कर्मबन्ध के कारण हैं और इनका त्याग करना निर्ग्रन्थता है।</span><br /> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="2" id="2"> | भ.आ./वि./43/141/20<span class="SanskritText"> ग्रन्थन्ति रचयन्ति दीर्घीकुर्वन्ति संसारमिति ग्रन्था:। मिथ्यादर्शनं मिथ्याज्ञानं असंयम: कषाया: अशुभयोगत्रयं चेत्यमी परिणामा:।</span> =<span class="HindiText">जो संसार को गू̐थते हैं अर्थात् जो संसार की रचना करते हैं, जो संसार को दीर्घकाल तक रहने वाला करते हैं, उनको ग्रन्थ कहना चाहिए। (तथा)–मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान, असंयम, कषाय, अशुभ मन वचन काय योग, इन परिणामों को आचार्य ग्रन्थ कहते हैं।</span></li> | ||
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(मू.आ./ | (मू.आ./407-408); (भ.आ./मू./1118-1119/1124); (पु.सि.उ.116 में केवल अन्तरंगवाले 14 भेद); (ज्ञानार्णव/16/4+6 में उद्धृत)। त.सू./7/29 </span><span class="SanskritText">क्षेत्रवास्तुहिरण्यसुवर्णधनधान्यदासीदासकुप्यप्रमाणातिक्रमा:।29।</span>=<span class="HindiText">क्षेत्र, वास्तु, हिरण्य, सुवर्ण, धन, धान्य, दासी, दास, कुप्य इन नौके परिणाम का अतिक्रम करना परिग्रह प्रमाणव्रत के पा̐च अतिचार हैं। (प.प्र./पू./2/49) </span><BR>द.पा./टी./14/15 पर उद्धृत=<span class="SanskritText">क्षेत्रं वास्तु धनं धान्यं द्विपदं च चतुष्पदं। कुप्यं भाण्डं हिरण्यं च सुवर्णं च बहिर्दश।1।</span>=<span class="HindiText">क्षेत्र-वास्तु; धन-धान्य, द्विपद-चतुष्पद; कुप्य–भाण्ड; हिरण्य-सुवर्ण–ये दश बाह्य परिग्रह है। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="3" id="3"> | <li><span class="HindiText"><strong name="3" id="3"> ग्रन्थ के भेदों के लक्षण</strong> | ||
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ध. | ध.9/4,1,67/322/10 <span class="SanskritText">हस्त्यश्व–तन्त्र-कौटिल्य-वात्सायनादिबोधो लौकिकभावश्रुतग्रन्थ:। द्वादशाङ्गदिबोधो वैदिकभावश्रुतग्रन्थ:। नैयायिकवैशेषिकलोकायतसांख्यमीमांसकबौद्धादिदर्शनविषयबोध: सामायिकभावश्रुतग्रन्थ:। एदेसिं सद्दपबंधा अक्खरकव्वादीणं जा च गंथरयणा अक्षरकाव्यैर्ग्रन्थरचना प्रतिपाद्यविषया सा सुदगंथकदी णाम।</span>=<span class="HindiText">(नाम स्थापना आदि भेदों के लक्षणों के लिए देखें [[ निक्षेप ]])–हाथी, अश्व, तन्त्र, कौटिल्य, अर्थशास्त्र और वात्सायन कामशास्त्र आदि विषयक ज्ञान लौकिक भावश्रुत ग्रन्थकृति है। द्वादशांगादि विषयक बोध वैदिक भावश्रुत ग्रन्थकृति है। तथा नैयायिक, वैशेषिक, लोकायत, सांख्य, मीमांसक और बौद्ध इत्यादि दर्शनों को विषय करने वाला बोध सामायिक भावश्रुत ग्रन्थकृति है। इनकी शब्द सन्दर्भ रूप अक्षरकाव्यों द्वारा प्रतिपाद्य अर्थ को विषय करने वाली जो ग्रन्थरचना की जाती है। वह श्रुतग्रन्थकृति कही जाती है। (निक्षेपों रूप भेदों सम्बन्धी–देखें [[ निक्षेप ]])। </span></li> | ||
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Revision as of 21:40, 5 July 2020
== सिद्धांतकोष से ==
- ग्रन्थ सामान्य का लक्षण
ध.9/4,1,54/259/10 "गणहरदेवविरइददव्वसुदं गंथो"।=गणधर देव से रचा गया द्रव्यश्रुत ग्रन्थ कहा जाता है।
ध.9/4,1,67/323/7 ववहारणयं पडुच्च खेत्तादी गंथो, अब्भंतरगंथकारणत्तादो। एदस्स परिहरणं णिग्गंथत्तं। णिच्छयणयं पडुच्च मिच्छत्तादी गंथो, कम्मबंधकारणत्तादो। तेसिं परिच्चागो णिग्गंथत्तं। = व्यवहार नय की अपेक्षा क्षेत्रादि ग्रन्थ हैं, क्योंकि वे अभ्यन्तर ग्रन्थ के कारण हैं और इनका त्याग करना निर्ग्रन्थता है। निश्चयनय की अपेक्षा मिथ्यात्वादिक ग्रन्थ हैं, क्योंकि, वे कर्मबन्ध के कारण हैं और इनका त्याग करना निर्ग्रन्थता है।
भ.आ./वि./43/141/20 ग्रन्थन्ति रचयन्ति दीर्घीकुर्वन्ति संसारमिति ग्रन्था:। मिथ्यादर्शनं मिथ्याज्ञानं असंयम: कषाया: अशुभयोगत्रयं चेत्यमी परिणामा:। =जो संसार को गू̐थते हैं अर्थात् जो संसार की रचना करते हैं, जो संसार को दीर्घकाल तक रहने वाला करते हैं, उनको ग्रन्थ कहना चाहिए। (तथा)–मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान, असंयम, कषाय, अशुभ मन वचन काय योग, इन परिणामों को आचार्य ग्रन्थ कहते हैं। - ग्रन्थ के भेद-प्रभेद—
ध.9/4,1,67/322-323
चार्ट
(मू.आ./407-408); (भ.आ./मू./1118-1119/1124); (पु.सि.उ.116 में केवल अन्तरंगवाले 14 भेद); (ज्ञानार्णव/16/4+6 में उद्धृत)। त.सू./7/29 क्षेत्रवास्तुहिरण्यसुवर्णधनधान्यदासीदासकुप्यप्रमाणातिक्रमा:।29।=क्षेत्र, वास्तु, हिरण्य, सुवर्ण, धन, धान्य, दासी, दास, कुप्य इन नौके परिणाम का अतिक्रम करना परिग्रह प्रमाणव्रत के पा̐च अतिचार हैं। (प.प्र./पू./2/49)
द.पा./टी./14/15 पर उद्धृत=क्षेत्रं वास्तु धनं धान्यं द्विपदं च चतुष्पदं। कुप्यं भाण्डं हिरण्यं च सुवर्णं च बहिर्दश।1।=क्षेत्र-वास्तु; धन-धान्य, द्विपद-चतुष्पद; कुप्य–भाण्ड; हिरण्य-सुवर्ण–ये दश बाह्य परिग्रह है। - ग्रन्थ के भेदों के लक्षण
ध.9/4,1,67/322/10 हस्त्यश्व–तन्त्र-कौटिल्य-वात्सायनादिबोधो लौकिकभावश्रुतग्रन्थ:। द्वादशाङ्गदिबोधो वैदिकभावश्रुतग्रन्थ:। नैयायिकवैशेषिकलोकायतसांख्यमीमांसकबौद्धादिदर्शनविषयबोध: सामायिकभावश्रुतग्रन्थ:। एदेसिं सद्दपबंधा अक्खरकव्वादीणं जा च गंथरयणा अक्षरकाव्यैर्ग्रन्थरचना प्रतिपाद्यविषया सा सुदगंथकदी णाम।=(नाम स्थापना आदि भेदों के लक्षणों के लिए देखें निक्षेप )–हाथी, अश्व, तन्त्र, कौटिल्य, अर्थशास्त्र और वात्सायन कामशास्त्र आदि विषयक ज्ञान लौकिक भावश्रुत ग्रन्थकृति है। द्वादशांगादि विषयक बोध वैदिक भावश्रुत ग्रन्थकृति है। तथा नैयायिक, वैशेषिक, लोकायत, सांख्य, मीमांसक और बौद्ध इत्यादि दर्शनों को विषय करने वाला बोध सामायिक भावश्रुत ग्रन्थकृति है। इनकी शब्द सन्दर्भ रूप अक्षरकाव्यों द्वारा प्रतिपाद्य अर्थ को विषय करने वाली जो ग्रन्थरचना की जाती है। वह श्रुतग्रन्थकृति कही जाती है। (निक्षेपों रूप भेदों सम्बन्धी–देखें निक्षेप )।
- परिग्रह सम्बन्धी विषय–देखें परिग्रह ।
पुराणकोष से
परिग्रह । यह दो प्रकार का होता है― अन्तरंग और बहिरंग । महापुराण 67.13, पद्मपुराण 89.111