ग्रन्थ:प्रवचनसार - गाथा 193 - तत्त्व-प्रदीपिका
From जैनकोष
देहा वा दविणा वा सुहदुक्खा वाध सत्तुमित्तजणा । (193)
जीवस्स ण संति धुवा धुवोवओगप्पगो अप्पा ॥206॥
अर्थ:
[देहा: वा] शरीर, [द्रविणानि वा] धन, [सुखदुःखे] सुख-दुःख [वा अथ] अथवा [शत्रुमित्रजना:] शत्रुमित्रजन (यह कुछ) [जीवस्य] जीव के [ध्रुवा: न सन्ति] ध्रुव नहीं हैं; [ध्रुव:] ध्रुव तो [उपयोगात्मक: आत्मा] उपयोगात्मक आत्मा है ।
तत्त्व-प्रदीपिका:
अथाध्रुवत्वादात्मनोऽन्यन्नोपलभ-नीयमित्युपदिशति -
आत्मनो हि परद्रव्याविभागेन परद्रव्योपरज्यमानस्वधर्मविभागेन चाशुद्धत्वनिबन्धनं न किंचनाप्यन्यदसद्धेतुमत्त्वेनाद्यन्तवत्त्वात्परत: सिद्धत्वाच्च ध्रुवमस्ति । ध्रुव उपयोगात्मा शुद्ध आत्मैव । अतोऽध्रुवं शरीरादिकमुपलभ्यमानमपि नोपलभे, शुद्धात्मानमुपलभे ध्रुवम् ॥१९३॥
तत्त्व-प्रदीपिका हिंदी :
जो पर-द्रव्य से अभिन्न होने के कारण और पर-द्रव्य के द्वारा उपरक्त होने वाले स्व-धर्म से भिन्न होने के कारण आत्मा को अशुद्धपने का कारण है, ऐसा (आत्मा के अतिरिक्त) दूसरा कोई भी ध्रुव नहीं है, क्योंकि वह असत् और हेतुमान् होने से आदि-अन्त वाला और परत: सिद्ध है; ध्रुव तो उपयोगात्मक शुद्ध आत्मा ही है । ऐसा होने से मैं उपलभ्यमान अध्रुव ऐसे शरीरादि को उपलब्ध होने पर भी-उपलब्ध नहीं करता, और ध्रुव ऐसे शुद्धात्मा को उपलब्ध करता हूँ ॥१९३॥
इसप्रकार शुद्धात्मा की उपलब्धि से क्या होता है वह अब निरूपण करते हैं :-