ग्रन्थ:मोक्षपाहुड़ गाथा 74
From जैनकोष
सम्मत्तणाणरहिओ अभव्वजीवो हु मोक्खपरिमुक्को ।
संसारसुहे सुरदो ण हु कालो भणइ झाणस्स ॥७४॥
सम्यक्त्वज्ञानरहित: अभव्यजीव: स्फुटं मोक्षपरिमुक्त: ।
संसारसुखे सुरत: न स्फुटं काल: भणति: ध्यानस्य ॥७४॥
वे प्राणी कैसे हैं वह आगे कहते हैं -
अर्थ - पूर्वोक्त ध्यान का अभाव कहनेवाला जीव सम्यक्त्व और ज्ञान से रहित है, अभव्य है इसी से मोक्ष रहित है और संसार के इन्द्रिय सुखों को भले जानकर उनमें रत है, आसक्त है, इसलिए कहता है कि अभी ध्यान का काल नहीं है ।
भावार्थ - जिसको इन्द्रियों के सुख ही प्रिय लगते हैं और जीवाजीव पदार्थ के श्रद्धान-ज्ञान से रहित है वह इसप्रकार कहता है कि अभी ध्यान का काल नहीं है । इससे ज्ञात होता है कि इसप्रकार कहनेवाला अभव्य है, इसको मोक्ष नहीं होगा ॥७४॥