दर्शन उपयोग 1: Difference between revisions
From जैनकोष
No edit summary |
No edit summary |
||
Line 1: | Line 1: | ||
<p class="HindiText">जीव की चैतन्यशक्ति दर्पण को स्वच्छत्व शक्तिवत् है। जैसे–बाह्य पदार्थों के प्रतिबिम्बों के बिना का दर्पण पाषाण है, उसी प्रकार ज्ञेयाकारों के बिना की चेतना जड़ है। | <p class="HindiText">जीव की चैतन्यशक्ति दर्पण को स्वच्छत्व शक्तिवत् है। जैसे–बाह्य पदार्थों के प्रतिबिम्बों के बिना का दर्पण पाषाण है, उसी प्रकार ज्ञेयाकारों के बिना की चेतना जड़ है। तहाँ दर्पण की निजी स्वच्छतावत् चेतन का निजी प्रतिभास दर्शन है और दर्पण के प्रतिबिम्बोंवत् चेतना में पड़े ज्ञेयाकार ज्ञान हैं। जिस प्रकार प्रतिबिम्ब विशिष्ट स्वच्छता परिपूर्ण दर्पण है उसी प्रकार ज्ञान विशिष्ट दर्शन परिपूर्ण चेतना है। तहाँ दर्शनरूप अन्तर चित्प्रकाश तो सामान्य व निर्विकल्प है, और ज्ञानरूप बाह्य चित्प्रकाश विशेष व सविकल्प है। यद्यपि दर्शन सामान्य होने के कारण एक है परन्तु साधारण जनों को समझाने के लिए उसके चक्षु आदि भेद कर दिये गये हैं। जिस प्रकार दर्पण को देखने पर तो दर्पण व प्रतिबिम्ब दोनों युगपत् दिखाई देते हैं, परन्तु पृथक्-पृथक् पदार्थों को देखने से वे आगे-पीछे दिखाई देते हैं, इसी प्रकार आत्म समाधि में लीन महायोगियों को तो दर्शन व ज्ञान युगपत् प्रतिभासित होते हैं, परन्तु लौकिकजनों को वे क्रम से होते हैं। यद्यपि सभी संसारी जीवों को इन्द्रियज्ञान से पूर्व दर्शन अवश्य होता है, परन्तु क्षणिक व सूक्ष्म होने के कारण उसकी पकड़ वे नहीं कर पाते। समाधिगत योगी उसका प्रत्यक्ष करते हैं। निज स्वरूप का परिचय या स्वसंवेदन क्योंकि दर्शनोपयोग से ही होता है, इसलिए सम्यग्दर्शन में श्रद्धा शब्द का प्रयोग न करके दर्शन शब्द का प्रयोग किया है। चेतना दर्शन व ज्ञान स्वरूप होने के कारण ही सम्यग्दर्शन को सामान्य और सम्यग्ज्ञान को विशेष धर्म कहा है।<br /> | ||
</p> | </p> | ||
<ol> | <ol> | ||
Line 113: | Line 113: | ||
<li class="HindiText"> दर्शन के लक्षण में सामान्यपद का अर्थ आत्मा।<br /> | <li class="HindiText"> दर्शन के लक्षण में सामान्यपद का अर्थ आत्मा।<br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li class="HindiText"> सामान्य शब्द का अर्थ | <li class="HindiText"> सामान्य शब्द का अर्थ यहाँ निर्विकल्परूप से सामान्य विशेषात्मक ग्रहण है।<br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li class="HindiText"> सामान्यविशेषात्मक आत्मा केवल सामान्य कैसे कहा जा सकता है।<br /> | <li class="HindiText"> सामान्यविशेषात्मक आत्मा केवल सामान्य कैसे कहा जा सकता है।<br /> | ||
Line 156: | Line 156: | ||
<li class="HindiText"> दृष्ट की स्मृति का नाम अचक्षुदर्शन नहीं।<br /> | <li class="HindiText"> दृष्ट की स्मृति का नाम अचक्षुदर्शन नहीं।<br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li class="HindiText"> | <li class="HindiText"> पाँच दर्शनों के लिए एक अचक्षुदर्शन नाम क्यों? <br /> | ||
</li> | </li> | ||
</ol> | </ol> | ||
Line 185: | Line 185: | ||
</ol> | </ol> | ||
</li> | </li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong> दर्शनोपयोग सम्बन्धी कुछ प्ररूपणाए</strong> | <li><span class="HindiText"><strong> दर्शनोपयोग सम्बन्धी कुछ प्ररूपणाए</strong>ँ | ||
</span> | </span> | ||
<ul> | <ul> | ||
Line 216: | Line 216: | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="1.1" id="1.1"> दर्शन का आध्यात्मिक अर्थ</strong></span><br> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.1" id="1.1"> दर्शन का आध्यात्मिक अर्थ</strong></span><br> | ||
द.पा./मू.१४ <span class="PrakritGatha">दुविहं पि गंथचायं तीसु वि जोएसु संजमो ठादि। णाणम्मि करणसुद्धे उब्भसणे दंसणं होई।१४।</span> =<span class="HindiText">बाह्याभ्यन्तर परिग्रह का त्याग होय, तीनों योगविषै संयम होय, तीन करण जामें शुद्ध होय, ऐसा ज्ञान होय, बहुरि निर्दोष खड़ा पाणिपात्र आहार करै, ऐसे मूर्तिमंत दर्शन होय।</span> बो.पा./मू./१४ <span class="PrakritGatha">दंसेइ मोक्खमग्गं सम्मत्तसंयमं सुधम्मं च। णिग्गंथणाणमयं जिणमग्गे दंसणं भणियं।१४।</span>=<span class="HindiText">जो मोक्षमार्ग को दिखावे सो दर्शन है। वह मोक्षमार्ग सम्यक्त्व, संयम और उत्तमक्षमादि सुधर्म रूप है। तथा बाह्य में निर्ग्रन्थ और अन्तरंग में ज्ञानमयी ऐसे मुनि के रूप को जिनमार्ग में दर्शन कहा है। <br>द.पा./पं.जयचन्द/१/३/१० दर्शन कहिये मत (द.पा./पं.जयचन्द/१४/२६/३)। द.पा./पं.जयचन्द/२/५/२ दर्शन नाम देखने का है। ऐसे (उपरोक्त प्रकार) धर्म की मूर्ति (दिगम्बर मुनि) देखने में आवै सो दर्शन है, सो प्रसिद्धता से जामें धर्म का ग्रहण होय ऐसा मतकूं दर्शन ऐसा नाम है। </span></li> | द.पा./मू.१४ <span class="PrakritGatha">दुविहं पि गंथचायं तीसु वि जोएसु संजमो ठादि। णाणम्मि करणसुद्धे उब्भसणे दंसणं होई।१४।</span> =<span class="HindiText">बाह्याभ्यन्तर परिग्रह का त्याग होय, तीनों योगविषै संयम होय, तीन करण जामें शुद्ध होय, ऐसा ज्ञान होय, बहुरि निर्दोष खड़ा पाणिपात्र आहार करै, ऐसे मूर्तिमंत दर्शन होय।</span> बो.पा./मू./१४ <span class="PrakritGatha">दंसेइ मोक्खमग्गं सम्मत्तसंयमं सुधम्मं च। णिग्गंथणाणमयं जिणमग्गे दंसणं भणियं।१४।</span>=<span class="HindiText">जो मोक्षमार्ग को दिखावे सो दर्शन है। वह मोक्षमार्ग सम्यक्त्व, संयम और उत्तमक्षमादि सुधर्म रूप है। तथा बाह्य में निर्ग्रन्थ और अन्तरंग में ज्ञानमयी ऐसे मुनि के रूप को जिनमार्ग में दर्शन कहा है। <br>द.पा./पं.जयचन्द/१/३/१० दर्शन कहिये मत (द.पा./पं.जयचन्द/१४/२६/३)। द.पा./पं.जयचन्द/२/५/२ दर्शन नाम देखने का है। ऐसे (उपरोक्त प्रकार) धर्म की मूर्ति (दिगम्बर मुनि) देखने में आवै सो दर्शन है, सो प्रसिद्धता से जामें धर्म का ग्रहण होय ऐसा मतकूं दर्शन ऐसा नाम है। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong | <li><span class="HindiText"><strong name="1.2" id="1.2">दर्शन का व्युत्पत्ति अर्थ</strong> </span><br>स.सि./१/१/६/१ <span class="SanskritText">पश्यति दृश्यतेऽनेन दृष्टिमात्रं वा दर्शनम् </span>=<span class="HindiText">दर्शन शब्द का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है–जो देखता है, जिसके द्वारा देखा जाये अथवा देखनामात्र। (गो.जी./जी.प्र./४८३/८८९/२)।</span><br>रा.वा./१/१/वार्तिक नं.पृष्ठ नं./पंक्ति नं.<span class="SanskritText">पश्यति वा येन तद् दर्शनं। (१/१/४/४/२४)। एवंभूतनयवक्तव्यवशात् – दर्शनपर्यायपरिणत आत्मैव...दर्शनम् (१/१/५/५/१) पश्यतीति दर्शनम् । (१/१/२४/९/१)। दृष्टिर्दर्शनम्/(१/१/२६/९/१२)। </span>=<span class="HindiText">जिससे देखा जाये वह दर्शन है। एवम्भूतनय की अपेक्षा दर्शनपर्याय से परिणत आत्मा ही दर्शन है। जो देखता है सो दर्शन है। देखना मात्र ही दर्शन है। </span>ध.१/१,१,४/१४५/३ <span class="SanskritText">दृश्यतेऽनेनेति दर्शनम् ।</span> =<span class="HindiText">जिसके द्वारा देखा जाये या अवलोकन किया जाये उसे दर्शन कहते हैं।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="1.3" id="1.3"> दर्शनोपयोग के अनेकों लक्षण</strong> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.3" id="1.3"> दर्शनोपयोग के अनेकों लक्षण</strong> | ||
</span> | </span> | ||
Line 224: | Line 224: | ||
देखें - [[ दर्शन#4.3 | दर्शन / ४ / ३ ]]/(यह अमुक पदार्थ है यह अमुक पदार्थ है, ऐसी व्यवस्था किये बिना जानना ही आकार का न ग्रहण करना है)।</span> गो.जी./मू./४८३/८८९ <span class="PrakritGatha">भावाणं सामण्णविसेसयाणं सरूवमेत्तं जं। वण्णहीणग्गहणं जीवेण य दंसणं होदि।४८३। </span>=<span class="HindiText">सामान्य विशेषात्मक जे पदार्थ तिनिका स्वरूपमात्र भेद रहित जैसे है तैसे जीवकरि सहित जो स्वपर सत्ता का प्रकाशना सो दर्शन है।</span><br>द्र.सं./टी./४३/१८६/१०<span class="SanskritText"> अयमत्र भाव:–यदा कोऽनि किमप्यवलोकयति पश्यति; तदा यावत् विकल्पं न करोति तावत् सत्तामात्रग्रहणं दर्शनं भण्यते। पश्चाच्छुक्लादिविकल्पे जाते ज्ञानमिति।</span> =<span class="HindiText">तात्पर्य यह है कि–जब कोई भी किसी पदार्थ को देखता है, तब जब तक वह देखने वाला विकल्प न करे तब तक तो जो सत्तामात्र का ग्रहण है उसको दर्शन कहते हैं। और फिर जब यह शुक्ल है, यह कृष्ण इत्यादि रूप से विकल्प उत्पन्न होते हैं तब उसको ज्ञान कहते हैं। </span>स्या.म./१/१०/२२ <span class="SanskritText">सामान्यप्रधानमुपसर्जनीकृतविशेषमर्थग्रहणं दर्शनमुच्यते। तथा प्रधानविशेषमुपसर्जनीकृतसामान्यं च ज्ञानमिति।</span> =<span class="HindiText">सामान्य की मुख्यतापूर्वक विशेष को गौण करके पदार्थ के जानने को दर्शन कहते हैं और विशेष की मुख्तापूर्वक सामान्य को गौण करके पदार्थ के जानने को ज्ञान कहते हैं।</span></li> | देखें - [[ दर्शन#4.3 | दर्शन / ४ / ३ ]]/(यह अमुक पदार्थ है यह अमुक पदार्थ है, ऐसी व्यवस्था किये बिना जानना ही आकार का न ग्रहण करना है)।</span> गो.जी./मू./४८३/८८९ <span class="PrakritGatha">भावाणं सामण्णविसेसयाणं सरूवमेत्तं जं। वण्णहीणग्गहणं जीवेण य दंसणं होदि।४८३। </span>=<span class="HindiText">सामान्य विशेषात्मक जे पदार्थ तिनिका स्वरूपमात्र भेद रहित जैसे है तैसे जीवकरि सहित जो स्वपर सत्ता का प्रकाशना सो दर्शन है।</span><br>द्र.सं./टी./४३/१८६/१०<span class="SanskritText"> अयमत्र भाव:–यदा कोऽनि किमप्यवलोकयति पश्यति; तदा यावत् विकल्पं न करोति तावत् सत्तामात्रग्रहणं दर्शनं भण्यते। पश्चाच्छुक्लादिविकल्पे जाते ज्ञानमिति।</span> =<span class="HindiText">तात्पर्य यह है कि–जब कोई भी किसी पदार्थ को देखता है, तब जब तक वह देखने वाला विकल्प न करे तब तक तो जो सत्तामात्र का ग्रहण है उसको दर्शन कहते हैं। और फिर जब यह शुक्ल है, यह कृष्ण इत्यादि रूप से विकल्प उत्पन्न होते हैं तब उसको ज्ञान कहते हैं। </span>स्या.म./१/१०/२२ <span class="SanskritText">सामान्यप्रधानमुपसर्जनीकृतविशेषमर्थग्रहणं दर्शनमुच्यते। तथा प्रधानविशेषमुपसर्जनीकृतसामान्यं च ज्ञानमिति।</span> =<span class="HindiText">सामान्य की मुख्यतापूर्वक विशेष को गौण करके पदार्थ के जानने को दर्शन कहते हैं और विशेष की मुख्तापूर्वक सामान्य को गौण करके पदार्थ के जानने को ज्ञान कहते हैं।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="1.3.3" id="1.3.3"> उत्तर ज्ञान की उत्पत्ति के लिए व्यापार विशेष</strong> </span><br>ध.१/१,१,४/१४९/१ <span class="SanskritText"> प्रकाशवृत्तिर्वा दर्शनम् । अस्य गमनिका, प्रकाशो ज्ञानम् । तदर्थमात्मनो वृत्ति: प्रकाशवृत्तिस्तद्दर्शनमिति।</span> =<span class="HindiText">अथवा प्रकाश वृत्ति को दर्शन कहते हैं। इसका अर्थ इस प्रकार है, कि प्रकाश ज्ञान को कहते हैं, और उस ज्ञान के लिए जो आत्मा का व्यापार होता है, उसे प्रकाश वृत्ति कहते हैं। और वही दर्शन है।</span><br>ध.३/१,२,१६१/४५७/२ <span class="SanskritText">उत्तरज्ञानोत्पत्तिनिमित्तप्रयत्नविशिष्टस्वसंवेदनस्य दर्शनत्वात् । </span>=<span class="HindiText">उत्तरज्ञान की उत्पत्ति के निमित्तभूत प्रयत्नविशिष्ट स्वसंवेदन को दर्शन माना है।</span> (द्र.सं./टी./४४/१८९/५) ध.६/१,९-१,१६/३२/८ <span class="SanskritText">ज्ञानोत्पादकप्रयत्नानुविद्धस्वसंवेदो दर्शनं आत्मविशेषोपयोग इत्यर्थ:। नात्र ज्ञानोत्पादकप्रयत्नस्य तन्त्रता, प्रयत्नरहितक्षीणावरणान्तरङ्गोपयोगस्स अदर्शनत्वप्रसंगात् ।</span>=<span class="HindiText">ज्ञान का उत्पादन करने वाले प्रयत्न से सम्बद्ध स्वसंवेदन अर्थात् आत्मविषयक उपयोग को दर्शन कहते हैं। इस दर्शन में ज्ञान के उत्पादक प्रयन्त की पराधीनता नहीं है। यदि ऐसा न माना जाये तो प्रयत्न रहित क्षीणावरण और अन्तरंग उपयोग वाले केवली के अदर्शनत्व का प्रसंग आता है।</span></li> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.3.3" id="1.3.3"> उत्तर ज्ञान की उत्पत्ति के लिए व्यापार विशेष</strong> </span><br>ध.१/१,१,४/१४९/१ <span class="SanskritText"> प्रकाशवृत्तिर्वा दर्शनम् । अस्य गमनिका, प्रकाशो ज्ञानम् । तदर्थमात्मनो वृत्ति: प्रकाशवृत्तिस्तद्दर्शनमिति।</span> =<span class="HindiText">अथवा प्रकाश वृत्ति को दर्शन कहते हैं। इसका अर्थ इस प्रकार है, कि प्रकाश ज्ञान को कहते हैं, और उस ज्ञान के लिए जो आत्मा का व्यापार होता है, उसे प्रकाश वृत्ति कहते हैं। और वही दर्शन है।</span><br>ध.३/१,२,१६१/४५७/२ <span class="SanskritText">उत्तरज्ञानोत्पत्तिनिमित्तप्रयत्नविशिष्टस्वसंवेदनस्य दर्शनत्वात् । </span>=<span class="HindiText">उत्तरज्ञान की उत्पत्ति के निमित्तभूत प्रयत्नविशिष्ट स्वसंवेदन को दर्शन माना है।</span> (द्र.सं./टी./४४/१८९/५) ध.६/१,९-१,१६/३२/८ <span class="SanskritText">ज्ञानोत्पादकप्रयत्नानुविद्धस्वसंवेदो दर्शनं आत्मविशेषोपयोग इत्यर्थ:। नात्र ज्ञानोत्पादकप्रयत्नस्य तन्त्रता, प्रयत्नरहितक्षीणावरणान्तरङ्गोपयोगस्स अदर्शनत्वप्रसंगात् ।</span>=<span class="HindiText">ज्ञान का उत्पादन करने वाले प्रयत्न से सम्बद्ध स्वसंवेदन अर्थात् आत्मविषयक उपयोग को दर्शन कहते हैं। इस दर्शन में ज्ञान के उत्पादक प्रयन्त की पराधीनता नहीं है। यदि ऐसा न माना जाये तो प्रयत्न रहित क्षीणावरण और अन्तरंग उपयोग वाले केवली के अदर्शनत्व का प्रसंग आता है।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="1.3.4" id="1.3.4"> आलोचन या स्वरूप संवेदन</strong></span><br> रा.वा./९/७/११/६०४/११ <span class="SanskritText">दर्शनावरणक्षयक्षयोपशमाविर्भूतवृत्तिरालोचनं दर्शनम् । </span>=<span class="HindiText">दर्शनावरण के क्षय और क्षयोपशम से होने वाला आलोचन दर्शन है।</span><br>ध.१/१,१,४/१४८/६ <span class="SanskritText">आलोकनवृत्तिर्वा दर्शनम् । अस्य गमनिका, आलोकत इत्यालोकनमात्मा, वर्तनं वृत्ति:, आलोकनस्य वृत्तिरालोकनवृत्ति: स्वसंवेदनं, तद्दर्शनमिति लक्ष्यनिर्देश:।</span> =<span class="HindiText">आलोकन अर्थात् आत्मा के व्यापार को दर्शन कहते हैं। इसका अर्थ यह है कि जो आलोकन करता है उसे आलोकन या आत्मा कहते हैं और वर्तन अर्थात् वृत्ति को आत्मा की वृत्ति कहते हैं। तथा आलोकन अर्थात् आत्मा की वृत्ति अर्थात् वेदनरूप व्यापार को आलोकन वृत्ति या स्वसंवेदन कहते हैं। और उसी को दर्शन कहते हैं। | <li><span class="HindiText"><strong name="1.3.4" id="1.3.4"> आलोचन या स्वरूप संवेदन</strong></span><br> रा.वा./९/७/११/६०४/११ <span class="SanskritText">दर्शनावरणक्षयक्षयोपशमाविर्भूतवृत्तिरालोचनं दर्शनम् । </span>=<span class="HindiText">दर्शनावरण के क्षय और क्षयोपशम से होने वाला आलोचन दर्शन है।</span><br>ध.१/१,१,४/१४८/६ <span class="SanskritText">आलोकनवृत्तिर्वा दर्शनम् । अस्य गमनिका, आलोकत इत्यालोकनमात्मा, वर्तनं वृत्ति:, आलोकनस्य वृत्तिरालोकनवृत्ति: स्वसंवेदनं, तद्दर्शनमिति लक्ष्यनिर्देश:।</span> =<span class="HindiText">आलोकन अर्थात् आत्मा के व्यापार को दर्शन कहते हैं। इसका अर्थ यह है कि जो आलोकन करता है उसे आलोकन या आत्मा कहते हैं और वर्तन अर्थात् वृत्ति को आत्मा की वृत्ति कहते हैं। तथा आलोकन अर्थात् आत्मा की वृत्ति अर्थात् वेदनरूप व्यापार को आलोकन वृत्ति या स्वसंवेदन कहते हैं। और उसी को दर्शन कहते हैं। यहाँ पर दर्शन इस शब्द से लक्ष्य का निर्देश किया है। </span>ध.११/४,२,६,२०५/३३३/२ <span class="PrakritText">अंतरंगउवजोगो। ...वज्झत्थगहणसंते विसिट्ठसगसरूवसंवयणं दंसणमिदि सिद्धं। </span>=<span class="HindiText">अन्तरंग उपयोग को दर्शनोपयोग कहते हैं। बाह्य अर्थ का ग्रहण होने पर जो विशिष्ट आत्मस्वरूप का वेदन होता है वह दर्शन है। (ध.६/१,९-१,६/९/३); (ध.१५/६/१)।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="1.3.5" id="1.3.5"> अन्तश्चित्प्रकाश</strong> </span><br>ध.१/१,१,४/१४५/४<span class="PrakritText"> अन्तर्बहिर्मुखयोश्चित्प्रकाशयोर्दर्शनज्ञानव्यपदेशभाजो...।</span> =<span class="HindiText">अन्तर्चित्प्रकाश को दर्शन और बहिर्चित्प्रकाश को ज्ञान माना है। <strong>नोट</strong>–(इस लक्षण सम्बन्धी विशेष विस्तार के लिए देखो आगे दर्शन/२)।</span></li> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.3.5" id="1.3.5"> अन्तश्चित्प्रकाश</strong> </span><br>ध.१/१,१,४/१४५/४<span class="PrakritText"> अन्तर्बहिर्मुखयोश्चित्प्रकाशयोर्दर्शनज्ञानव्यपदेशभाजो...।</span> =<span class="HindiText">अन्तर्चित्प्रकाश को दर्शन और बहिर्चित्प्रकाश को ज्ञान माना है। <strong>नोट</strong>–(इस लक्षण सम्बन्धी विशेष विस्तार के लिए देखो आगे दर्शन/२)।</span></li> | ||
</ol> | </ol> |
Revision as of 21:20, 28 February 2015
जीव की चैतन्यशक्ति दर्पण को स्वच्छत्व शक्तिवत् है। जैसे–बाह्य पदार्थों के प्रतिबिम्बों के बिना का दर्पण पाषाण है, उसी प्रकार ज्ञेयाकारों के बिना की चेतना जड़ है। तहाँ दर्पण की निजी स्वच्छतावत् चेतन का निजी प्रतिभास दर्शन है और दर्पण के प्रतिबिम्बोंवत् चेतना में पड़े ज्ञेयाकार ज्ञान हैं। जिस प्रकार प्रतिबिम्ब विशिष्ट स्वच्छता परिपूर्ण दर्पण है उसी प्रकार ज्ञान विशिष्ट दर्शन परिपूर्ण चेतना है। तहाँ दर्शनरूप अन्तर चित्प्रकाश तो सामान्य व निर्विकल्प है, और ज्ञानरूप बाह्य चित्प्रकाश विशेष व सविकल्प है। यद्यपि दर्शन सामान्य होने के कारण एक है परन्तु साधारण जनों को समझाने के लिए उसके चक्षु आदि भेद कर दिये गये हैं। जिस प्रकार दर्पण को देखने पर तो दर्पण व प्रतिबिम्ब दोनों युगपत् दिखाई देते हैं, परन्तु पृथक्-पृथक् पदार्थों को देखने से वे आगे-पीछे दिखाई देते हैं, इसी प्रकार आत्म समाधि में लीन महायोगियों को तो दर्शन व ज्ञान युगपत् प्रतिभासित होते हैं, परन्तु लौकिकजनों को वे क्रम से होते हैं। यद्यपि सभी संसारी जीवों को इन्द्रियज्ञान से पूर्व दर्शन अवश्य होता है, परन्तु क्षणिक व सूक्ष्म होने के कारण उसकी पकड़ वे नहीं कर पाते। समाधिगत योगी उसका प्रत्यक्ष करते हैं। निज स्वरूप का परिचय या स्वसंवेदन क्योंकि दर्शनोपयोग से ही होता है, इसलिए सम्यग्दर्शन में श्रद्धा शब्द का प्रयोग न करके दर्शन शब्द का प्रयोग किया है। चेतना दर्शन व ज्ञान स्वरूप होने के कारण ही सम्यग्दर्शन को सामान्य और सम्यग्ज्ञान को विशेष धर्म कहा है।
- दर्शनोपयोग निर्देश
- दर्शन का आध्यात्मिक अर्थ।
- दर्शन का व्युत्पत्ति अर्थ।
- दर्शनोपयोग के अनेकों लक्षण
- विषय-विषयी सन्निकर्ष के अनन्तर ‘कुछ है’ इतना मात्र ग्रहण।
- सामान्यमात्र ग्राही।
- उत्तरज्ञान की उत्पत्ति के लिए व्यापार विशेष।
- आलोचना व स्वरूप संवेदन।
- अन्तर्चित्प्रकाश।
- विषय-विषयी सन्निकर्ष के अनन्तर ‘कुछ है’ इतना मात्र ग्रहण।
- निराकार व निर्विकल्प।–देखें - आकार व विकल्प।
- स्वभाव-विभाव दर्शन अथवा कारण-कार्यदर्शन निर्देश।– देखें - उपयोग / I / १ ।
- सम्यक्त्व व श्रद्धा के अर्थ में दर्शन।– देखें - सम्यग्दर्शन / I / १ ।
- सम्यक् व मिथ्यादर्शन निर्देश।–दे०वह वह नाम।
- दर्शनोपयोग व शुद्धोपयोग में अन्तर।– देखें - उपयोग / I / २ ।
- शुद्धात्मदर्शन के अपर नाम।– देखें - मोक्षमार्ग / २ / ५ ।
- देवदर्शन निर्देश।–देखें - पूजा।
- दर्शन का आध्यात्मिक अर्थ।
- ज्ञान व दर्शन में अन्तर
- दर्शन के लक्षण में देखने का अर्थ ज्ञान नहीं।
- अन्तर व बाहर चित्प्रकाश का तात्पर्य अनाकार व साकार ग्रहण है।
- केवल सामान्यग्राहक दर्शन और केवल विशेषग्राहक ज्ञान हो, ऐसा नहीं है। (इसमें हेतु)।
- केवल सामान्य का ग्रहण मानने से द्रव्य का जानना ही अशक्य है।
- अत: सामान्य विशेषात्मक उभयरूप ही अन्तरंग व बाह्य का ग्रहण दर्शन व ज्ञान है।
- ज्ञान भी कथंचित् आत्मा को जानता है।– देखें - दर्शन / २ / ६ ।
- ज्ञान को ही द्विस्वभावी नहीं माना जा सकता।– देखें - दर्शन / ५ / ९ ।
- दर्शन व ज्ञान की स्व-पर ग्राहकता का समन्वय।
- दर्शन में भी कथंचित् बाह्य पदार्थ का ग्रहण।
- दर्शन का विषय ज्ञान की अपेक्षा अधिक है।
- दर्शन व ज्ञान के लक्षणों का समन्वय।– देखें - दर्शन / ४ / ७ ।
- दर्शन और अवग्रह ज्ञान में अन्तर।
- दर्शन व संग्रहनय में अन्तर।
- दर्शन के लक्षण में देखने का अर्थ ज्ञान नहीं।
- दर्शन व ज्ञान की क्रम व अक्रम प्रवृत्ति
- छद्मस्थों को दर्शन व ज्ञान क्रमपूर्वक होते हैं और केवली को अक्रम।
- केवली के दर्शनज्ञान की अक्रमवृत्ति में हेतु।
- अक्रमवृत्ति होने पर भी केवलदर्शन का उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त कहने का कारण।– देखें - दर्शन / ३ / २४ ।
- छद्मस्थों के दर्शनज्ञान की क्रमवृत्ति में हेतु।
- छद्मस्थों को दर्शन व ज्ञान क्रमपूर्वक होते हैं और केवली को अक्रम।
- दर्शनपूर्वक ईहा आदि ज्ञान होने का क्रम।– देखें - मतिज्ञान / ३ ।
- दर्शनोपयोग सिद्धि
- दर्शन प्रमाण है।– देखें - दर्शन / ४ / १ ।
- आत्मग्रहण अनध्यवसायरूप नहीं है।
- दर्शन के लक्षण में सामान्यपद का अर्थ आत्मा।
- सामान्य शब्द का अर्थ यहाँ निर्विकल्परूप से सामान्य विशेषात्मक ग्रहण है।
- सामान्यविशेषात्मक आत्मा केवल सामान्य कैसे कहा जा सकता है।
- दर्शन का अर्थ स्वरूप संवेदन करने पर सभी जीव सम्यग्दृष्टि हो जायेंगे।– देखें - सम्यग्दर्शन / I / १ ।
- यदि आत्मग्राहक ही दर्शन है तो चक्षु आदि दर्शनों की बाह्यार्थाश्रित प्ररूपणा क्यों की।– देखें - दर्शन / ५ / ३ ,४।
- यदि दर्शन बाह्यार्थ को नहीं जानता तो सर्वान्धत्व का प्रसंग आता है।– देखें - दर्शन / २ / ७ ।
- दर्शन सामान्य के अस्तित्व की सिद्धि।
- अनाकार व अव्यक्त उपयोग के अस्तित्व की सिद्धि।– देखें - आकार / २ / ३ ।
- दर्शनावरण प्रकृति भी स्वरूप संवेदन को घातती है।
- सामान्यग्रहण व आत्मग्रहण का समन्वय।
- दर्शन प्रमाण है।– देखें - दर्शन / ४ / १ ।
- दर्शनोपयोग के भेदों का निर्देश
- दर्शनोपयोग के भेदों का नाम निर्देश।
- चक्षु आदि दर्शनों के लक्षण।
- बाह्यार्थाश्रित प्ररूपणा परमार्थ से अन्तरंग विषय को ही बताती है।
- बाह्यार्थाश्रित प्ररूपणा का कारण।
- चक्षुदर्शन सिद्धि।
- दृष्ट की स्मृति का नाम अचक्षुदर्शन नहीं।
- पाँच दर्शनों के लिए एक अचक्षुदर्शन नाम क्यों?
- चक्षु, अचक्षु व अवधिदर्शन क्षायोपशमिक कैसे हैं ?– देखें - मतिज्ञान / २ / ४ ।
- केवलज्ञान व दर्शन दोनों कथंचित् एक हैं।
- केवलज्ञान से भिन्न केवलदर्शन की सिद्धि।
- आवरणकर्म के अभाव से केवलदर्शन का अभाव नहीं होता।
- दर्शनोपयोग के भेदों का नाम निर्देश।
- श्रुत विभंग व मन:पर्यय के दर्शनों सम्बन्धी
- श्रुतदर्शन के अभाव में युक्ति।
- विभंगदर्शन के अस्तित्व का कथंचित् विधि-निषेध।
- मन:पर्यय दर्शन के अभाव में युक्ति।
- मतिज्ञान ही श्रुत व मन:पर्यय का दर्शन है।
- श्रुतदर्शन के अभाव में युक्ति।
- दर्शनोपयोग सम्बन्धी कुछ प्ररूपणाएँ
- ज्ञान दर्शन उपयोग व ज्ञान-दर्शनमार्गणा में अन्तर।– देखें - उपयोग / I / २ ।
- दर्शनोपयोग अन्तर्मुहूर्त अवस्थायी है।
- लब्ध्यपर्याप्त दशा में चक्षुदर्शन का उपयोग नहीं होता पर निवृत्त्यपर्याप्त दशा में कथंचित् होता है।
- मिश्र व कार्माणकाययोगियों में चक्षुदर्शनोपयोग का अभाव।
- उत्कृष्ट संक्लेश व विशुद्ध परिणामों में दर्शनोपयोग संभव नहीं।–देखें - विशुद्धि।
- दर्शन मार्गणा में गुणस्थानों का स्वामित्व।
- दर्शन मार्गणा विषयक गुणस्थान, जीवसमास, मार्गणास्थान आदि के स्वामित्व की २० प्ररूपणा।–देखें - सत् ।
- दर्शन विषयक सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव व अल्पबहुत्व।–दे०वह वह नाम।
- दर्शनमार्गणा में आय के अनुसार ही व्यय होने का नियम।–देखें - मार्गणा।
- दर्शन मार्गणा में कर्मों का बन्ध उदय सत्त्व।–दे०वह वह नाम।
- दर्शनोपयोग निर्देश
- दर्शन का आध्यात्मिक अर्थ
द.पा./मू.१४ दुविहं पि गंथचायं तीसु वि जोएसु संजमो ठादि। णाणम्मि करणसुद्धे उब्भसणे दंसणं होई।१४। =बाह्याभ्यन्तर परिग्रह का त्याग होय, तीनों योगविषै संयम होय, तीन करण जामें शुद्ध होय, ऐसा ज्ञान होय, बहुरि निर्दोष खड़ा पाणिपात्र आहार करै, ऐसे मूर्तिमंत दर्शन होय। बो.पा./मू./१४ दंसेइ मोक्खमग्गं सम्मत्तसंयमं सुधम्मं च। णिग्गंथणाणमयं जिणमग्गे दंसणं भणियं।१४।=जो मोक्षमार्ग को दिखावे सो दर्शन है। वह मोक्षमार्ग सम्यक्त्व, संयम और उत्तमक्षमादि सुधर्म रूप है। तथा बाह्य में निर्ग्रन्थ और अन्तरंग में ज्ञानमयी ऐसे मुनि के रूप को जिनमार्ग में दर्शन कहा है।
द.पा./पं.जयचन्द/१/३/१० दर्शन कहिये मत (द.पा./पं.जयचन्द/१४/२६/३)। द.पा./पं.जयचन्द/२/५/२ दर्शन नाम देखने का है। ऐसे (उपरोक्त प्रकार) धर्म की मूर्ति (दिगम्बर मुनि) देखने में आवै सो दर्शन है, सो प्रसिद्धता से जामें धर्म का ग्रहण होय ऐसा मतकूं दर्शन ऐसा नाम है। - दर्शन का व्युत्पत्ति अर्थ
स.सि./१/१/६/१ पश्यति दृश्यतेऽनेन दृष्टिमात्रं वा दर्शनम् =दर्शन शब्द का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है–जो देखता है, जिसके द्वारा देखा जाये अथवा देखनामात्र। (गो.जी./जी.प्र./४८३/८८९/२)।
रा.वा./१/१/वार्तिक नं.पृष्ठ नं./पंक्ति नं.पश्यति वा येन तद् दर्शनं। (१/१/४/४/२४)। एवंभूतनयवक्तव्यवशात् – दर्शनपर्यायपरिणत आत्मैव...दर्शनम् (१/१/५/५/१) पश्यतीति दर्शनम् । (१/१/२४/९/१)। दृष्टिर्दर्शनम्/(१/१/२६/९/१२)। =जिससे देखा जाये वह दर्शन है। एवम्भूतनय की अपेक्षा दर्शनपर्याय से परिणत आत्मा ही दर्शन है। जो देखता है सो दर्शन है। देखना मात्र ही दर्शन है। ध.१/१,१,४/१४५/३ दृश्यतेऽनेनेति दर्शनम् । =जिसके द्वारा देखा जाये या अवलोकन किया जाये उसे दर्शन कहते हैं। - दर्शनोपयोग के अनेकों लक्षण
- विषयविषयी सन्निपात होने पर ‘कुछ है’ इतना मात्र ग्रहण।
स.सि./१/१५/१११/३ विषयविषयिसंनिपाते सति दर्शनं भवति। =विषय और विषयी का सन्निपात होने पर दर्शन होता है। (रा.वा./१/१५/१/६०/२); (तत्त्वार्थवृत्ति/१/१५)। ध.१/१,१,४/१४९/२ विषयविषयिसंपातात् पूर्वावस्था दर्शनमित्यर्थ:।
ध.११/४,२,६,२०५/३३३/७ सा बज्झत्थग्गहणुम्मुहावत्था चेव दंसणं, किंतु बज्झत्थग्गहणुवसंहरणपढमसमयप्पहुडि जाब बज्झत्थअग्गहणचरिमसमिओ त्ति दंसणुवजोगो त्ति घेत्तव्वं। =१. विषय और विषयी के योग्य देश में होने की पूर्वावस्था को दर्शन कहते हैं। बाह्य अर्थ के ग्रहण के उन्मुख होनेरूप जो अवस्था होती है, वही दर्शन हो, ऐसी बात भी नहीं है; किन्तु बाह्यार्थग्रहण के उपसंहार के प्रथम समय से लेकर बाह्यार्थ के अग्रहण के अन्तिम समय तक दर्शनोपयोग होता है, ऐसा ग्रहण करना चाहिए। (विशेष देखें - दर्शन / २ / ९ )। स.भं.त./४७/९ दर्शनस्य किंस्विदित्यादिरूपेणाकारग्रहणम् स्वरूपम् ।=विशेषण विशेष्यभाव से शून्य ‘कुछ है’ इत्यादि आकार का ग्रहण दर्शन का स्वरूप है। - सामान्य मात्र का ग्राही
पं.सं./मू./१/१३८ जं सामण्णं गहणं भावाणं णेव कट्टु आयारं। अविसेसिऊण अत्थं दंसणमिदि भण्णदे समए। =सामान्य विशेषात्मक पदार्थों के आकार विशेष को ग्रहण न करके जो केवल निर्विकल्प रूप से अंश का या स्वरूपमात्र का सामान्य ग्रहण होता है, उसे परमागम में दर्शन कहते हैं। (ध.१/१,१४/गा.९३/१४९); (ध.७/५,५,५६/गा.१९/१००); (प.प्र./मू./२/३४); (गो.जी.मू./४८२/८८८); (द्र.सं./मू./४३)।
देखें - दर्शन / ४ / ३ /(यह अमुक पदार्थ है यह अमुक पदार्थ है, ऐसी व्यवस्था किये बिना जानना ही आकार का न ग्रहण करना है)। गो.जी./मू./४८३/८८९ भावाणं सामण्णविसेसयाणं सरूवमेत्तं जं। वण्णहीणग्गहणं जीवेण य दंसणं होदि।४८३। =सामान्य विशेषात्मक जे पदार्थ तिनिका स्वरूपमात्र भेद रहित जैसे है तैसे जीवकरि सहित जो स्वपर सत्ता का प्रकाशना सो दर्शन है।
द्र.सं./टी./४३/१८६/१० अयमत्र भाव:–यदा कोऽनि किमप्यवलोकयति पश्यति; तदा यावत् विकल्पं न करोति तावत् सत्तामात्रग्रहणं दर्शनं भण्यते। पश्चाच्छुक्लादिविकल्पे जाते ज्ञानमिति। =तात्पर्य यह है कि–जब कोई भी किसी पदार्थ को देखता है, तब जब तक वह देखने वाला विकल्प न करे तब तक तो जो सत्तामात्र का ग्रहण है उसको दर्शन कहते हैं। और फिर जब यह शुक्ल है, यह कृष्ण इत्यादि रूप से विकल्प उत्पन्न होते हैं तब उसको ज्ञान कहते हैं। स्या.म./१/१०/२२ सामान्यप्रधानमुपसर्जनीकृतविशेषमर्थग्रहणं दर्शनमुच्यते। तथा प्रधानविशेषमुपसर्जनीकृतसामान्यं च ज्ञानमिति। =सामान्य की मुख्यतापूर्वक विशेष को गौण करके पदार्थ के जानने को दर्शन कहते हैं और विशेष की मुख्तापूर्वक सामान्य को गौण करके पदार्थ के जानने को ज्ञान कहते हैं। - उत्तर ज्ञान की उत्पत्ति के लिए व्यापार विशेष
ध.१/१,१,४/१४९/१ प्रकाशवृत्तिर्वा दर्शनम् । अस्य गमनिका, प्रकाशो ज्ञानम् । तदर्थमात्मनो वृत्ति: प्रकाशवृत्तिस्तद्दर्शनमिति। =अथवा प्रकाश वृत्ति को दर्शन कहते हैं। इसका अर्थ इस प्रकार है, कि प्रकाश ज्ञान को कहते हैं, और उस ज्ञान के लिए जो आत्मा का व्यापार होता है, उसे प्रकाश वृत्ति कहते हैं। और वही दर्शन है।
ध.३/१,२,१६१/४५७/२ उत्तरज्ञानोत्पत्तिनिमित्तप्रयत्नविशिष्टस्वसंवेदनस्य दर्शनत्वात् । =उत्तरज्ञान की उत्पत्ति के निमित्तभूत प्रयत्नविशिष्ट स्वसंवेदन को दर्शन माना है। (द्र.सं./टी./४४/१८९/५) ध.६/१,९-१,१६/३२/८ ज्ञानोत्पादकप्रयत्नानुविद्धस्वसंवेदो दर्शनं आत्मविशेषोपयोग इत्यर्थ:। नात्र ज्ञानोत्पादकप्रयत्नस्य तन्त्रता, प्रयत्नरहितक्षीणावरणान्तरङ्गोपयोगस्स अदर्शनत्वप्रसंगात् ।=ज्ञान का उत्पादन करने वाले प्रयत्न से सम्बद्ध स्वसंवेदन अर्थात् आत्मविषयक उपयोग को दर्शन कहते हैं। इस दर्शन में ज्ञान के उत्पादक प्रयन्त की पराधीनता नहीं है। यदि ऐसा न माना जाये तो प्रयत्न रहित क्षीणावरण और अन्तरंग उपयोग वाले केवली के अदर्शनत्व का प्रसंग आता है। - आलोचन या स्वरूप संवेदन
रा.वा./९/७/११/६०४/११ दर्शनावरणक्षयक्षयोपशमाविर्भूतवृत्तिरालोचनं दर्शनम् । =दर्शनावरण के क्षय और क्षयोपशम से होने वाला आलोचन दर्शन है।
ध.१/१,१,४/१४८/६ आलोकनवृत्तिर्वा दर्शनम् । अस्य गमनिका, आलोकत इत्यालोकनमात्मा, वर्तनं वृत्ति:, आलोकनस्य वृत्तिरालोकनवृत्ति: स्वसंवेदनं, तद्दर्शनमिति लक्ष्यनिर्देश:। =आलोकन अर्थात् आत्मा के व्यापार को दर्शन कहते हैं। इसका अर्थ यह है कि जो आलोकन करता है उसे आलोकन या आत्मा कहते हैं और वर्तन अर्थात् वृत्ति को आत्मा की वृत्ति कहते हैं। तथा आलोकन अर्थात् आत्मा की वृत्ति अर्थात् वेदनरूप व्यापार को आलोकन वृत्ति या स्वसंवेदन कहते हैं। और उसी को दर्शन कहते हैं। यहाँ पर दर्शन इस शब्द से लक्ष्य का निर्देश किया है। ध.११/४,२,६,२०५/३३३/२ अंतरंगउवजोगो। ...वज्झत्थगहणसंते विसिट्ठसगसरूवसंवयणं दंसणमिदि सिद्धं। =अन्तरंग उपयोग को दर्शनोपयोग कहते हैं। बाह्य अर्थ का ग्रहण होने पर जो विशिष्ट आत्मस्वरूप का वेदन होता है वह दर्शन है। (ध.६/१,९-१,६/९/३); (ध.१५/६/१)। - अन्तश्चित्प्रकाश
ध.१/१,१,४/१४५/४ अन्तर्बहिर्मुखयोश्चित्प्रकाशयोर्दर्शनज्ञानव्यपदेशभाजो...। =अन्तर्चित्प्रकाश को दर्शन और बहिर्चित्प्रकाश को ज्ञान माना है। नोट–(इस लक्षण सम्बन्धी विशेष विस्तार के लिए देखो आगे दर्शन/२)।
- विषयविषयी सन्निपात होने पर ‘कुछ है’ इतना मात्र ग्रहण।
- दर्शन का आध्यात्मिक अर्थ