प्रकृतियों में संक्रमण संबंधी कुछ नियम व शंका: Difference between revisions
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<p class="HindiText" id="3"><strong>प्रकृतियों के संक्रमण | <p class="HindiText" id="3"><strong>प्रकृतियों के संक्रमण संबंधी कुछ नियम व शंका</strong></p> | ||
<p class="HindiText" id="3.1"><strong>1. बध्यमान व अबध्यमान प्रकृति | <p class="HindiText" id="3.1"><strong>1. बध्यमान व अबध्यमान प्रकृति संबंधी</strong></p> | ||
<p><span class="PrakritText"> | <p><span class="PrakritText"><span class="GRef"> धवला 16/409/4 </span>बंधे अधापमत्तो...'बंधे अधापवत्तो' जत्थ जासिं पयडीणं बंधो संभवदि तत्थ तासिं पयडीणं बंधे संते असंतो वि अधापमत्तसंकमो होदि। एसो णियमो बंधपयडीणं, अबंधपयडीणं णत्थि। कुदो। सम्मत्त-सम्मामिच्छत्तेसु वि अधापमत्तसंकमुवलंभादो।</span></p> | ||
<p><span class="PrakritText"> | <p><span class="PrakritText"><span class="GRef"> धवला 16/420/5 </span>तिण्णि संजलण-पुरिसवेदाणमधापवत्तसंकमो सव्वसंकमो चेदि दोण्णि संकमा होंति। तं तहा - तिण्णं संजलणाणं पुरिसवेदस्स मिच्छाइट्ठिप्पहुडि जाव अणियट्टि त्ति अधापवत्तसंकमो।</span> = <span class="HindiText">1. बंध के होने पर अध:प्रवृत्त संक्रमण होता है। <span class="GRef">( गोम्मटसार कर्मकांड/416 )</span> 2. 'बंधे अधापवत्तो' का स्पष्टीकरण करते हुए बतलाते हैं कि जहाँ जिन प्रकृतियों का बंध संभव है वहाँ उन प्रकृतियों के बंध के होने पर और उसके न होने पर भी अध:प्रवृत्त संक्रमण होता है। यह नियम बंध प्रकृतियों के लिए है, अबंध प्रकृतियों के लिए नहीं है, क्योंकि सम्यक्त्व, और सम्यग्मिथ्यात्व इन दो अबंध प्रकृतियों में भी अध:प्रवृत्तसंक्रमण पाया जाता है। 3. तीन संज्वलन और पुरुषवेद के अध:प्रवृत्तसंक्रम और सर्व-संक्रम ये दो संक्रम होते हैं। यथा - तीन संज्वलन कषायों और पुरुष वेद का मिथ्यादृष्टि से लेकर अनिवृत्तिकरण तक अध:प्रवृत्त संक्रम होता है। <span class="GRef">( गोम्मटसार कर्मकांड/424 )</span>।</span></p> | ||
<p><span class="PrakritText"> | <p><span class="PrakritText"><span class="GRef"> गोम्मटसार कर्मकांड </span>व जी.प्र./410 बंधे संकामिज्जदि णोबंधे।410। | ||
</span><span class="SanskritText">बंधे बध्यमानमात्रे संक्रामति इत्ययमुत्सर्गविधि: क्वचिदवध्यमानेऽपि संक्रमात्, | </span><span class="SanskritText">बंधे बध्यमानमात्रे संक्रामति इत्ययमुत्सर्गविधि: क्वचिदवध्यमानेऽपि संक्रमात्, नोबंधे अबंधे न संक्रामति इत्यनर्थकवचनाद्दर्शनमोहनीयं विना शेषं कर्म बध्यमानमात्रे एवं संक्रामतीति नियमो ज्ञातव्य:।</span> = <span class="HindiText">जिस प्रकृति का बंध होता है, उसी प्रकृति का संक्रमण भी होता है यह सामान्य विधान है क्योंकि कहीं पर जिसका बंध नहीं उसमें भी संक्रमण देखा जाता है। जिसका बंध नहीं होता उसका संक्रमण भी नहीं होता। इस वचन का ज्ञापन सिद्ध प्रयोजन यह है कि दर्शनमोह के बिना शेष सब प्रकृतियाँ बंध होने पर संक्रमण करती हैं ऐसा नियम जानना।</span></p> | ||
<p class="HindiText" id="3.2"> | <p class="HindiText" id="3.2"> | ||
<strong>2. मूल प्रकृतियों में परस्पर संक्रम नहीं होता</strong></p> | <strong>2. मूल प्रकृतियों में परस्पर संक्रम नहीं होता</strong></p> | ||
<p><span class="PrakritText"> | <p><span class="PrakritText"><span class="GRef"> धवला 16/408/10 </span>जं पदेसग्गं अण्णपयडिं संकामिज्जदि एसो पदेससंकमो। एदेण अट्ठपदेण मूलपयडिसंकमो णत्थि। उत्तरपयडिं संकमे पयदं। | ||
</span> = <span class="HindiText">जो प्रदेशाग्र अन्य प्रकृति में | </span> = <span class="HindiText">जो प्रदेशाग्र अन्य प्रकृति में संक्रांत किया जाता है इसका नाम प्रदेश संक्रम है। इस अर्थ पद के अनुसार मूलप्रकृति संक्रम नहीं है। उत्तरप्रकृति संक्रम प्रकरण प्राप्त है।</span></p> | ||
<p><span class="PrakritText"> | <p><span class="PrakritText"><span class="GRef"> गोम्मटसार कर्मकांड </span>व जी.प्र./410/574 णत्थि मूलपयडीणं।...संकमणं।410।</span> | ||
<span class="SanskritText">मूलप्रकृतीनां परस्परसंक्रमणं नास्ति उत्तरप्रकृतीनामस्तीत्यर्थ:।=</span><span class="HindiText">मूल प्रकृतियों का परस्पर संक्रमण नहीं होता। अर्थात् ज्ञानावरणी कभी दर्शनावरणी रूप नहीं होती। सारांश यह हुआ कि उत्तर प्रकृतियों में ही संक्रमण होता है।</span></p> | <span class="SanskritText">मूलप्रकृतीनां परस्परसंक्रमणं नास्ति उत्तरप्रकृतीनामस्तीत्यर्थ:।=</span><span class="HindiText">मूल प्रकृतियों का परस्पर संक्रमण नहीं होता। अर्थात् ज्ञानावरणी कभी दर्शनावरणी रूप नहीं होती। सारांश यह हुआ कि उत्तर प्रकृतियों में ही संक्रमण होता है।</span></p> | ||
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<strong>3. उत्तर प्रकृतियों में संक्रमण | <strong>3. उत्तर प्रकृतियों में संक्रमण संबंधी कुछ अपवाद</strong></p> | ||
<p><span class="PrakritText"> | <p><span class="PrakritText"><span class="GRef"> धवला 16/341/1 </span>दंसणमोहणीयं चारित्तमोहणीए ण संकमदि, चारित्तमोहणीयं पि दंसणमोहणीए ण संकमदि। कुदो। साभावियादो।... चदुण्णमाउआणं संकमो णत्थि। कुदो। साभावियादो। | ||
</span> = <span class="HindiText">दर्शन मोहनीय चारित्र मोहनीय में | </span> = <span class="HindiText">दर्शन मोहनीय चारित्र मोहनीय में संक्रांत नहीं होती, और चारित्र मोहनीय भी दर्शनमोहनीय में संक्रांत नहीं होती, क्योंकि ऐसा स्वभाव है।...चारों आयुकर्म का संक्रमण नहीं होता क्योंकि ऐसा स्वभाव है। <span class="GRef">( गोम्मटसार कर्मकांड/410/574 )</span>।</span></p> | ||
<p><span class="PrakritText"> | <p><span class="PrakritText"><span class="GRef"> कषायपाहुड़ 3/3,22/411-412/234/4 </span>दंसणमोहणीयस्स चारित्तमोहणीयसंकमाभावादो। कसायाणं णोकसाएसु णोकसायाणं च कसाएसु कुदो संकमो। ण एस दोसो, चारित्तमोहणीयभावेण तेसिं पच्चासत्तिसंभवादो। मोहणीयभावेण दंसणचारित्तमोहणीयाणं पच्चासत्ति अत्थि त्ति अण्णोण्णेसु संकमो किण्ण इच्छदि। ण, पडिसेज्झमाणदंसणचारित्ताणं भिण्णजादित्तणेण तेसिं पच्चासत्तीए अभावादो।</span> = <span class="HindiText">दर्शनमोहनीय का चारित्र मोहनीय में संक्रमण नहीं होता है। <strong>प्रश्न</strong> - कषायों का नोकषायों में और नोकषायों का कषायों में संक्रमण किस कारण से होता है? <strong>उत्तर</strong> - यह कोई दोष नहीं है क्योंकि दोनों चारित्रमोहनीय हैं, अत: उनमें परस्पर में प्रत्यासत्ति पायी जाती है, इसलिए उनका परस्पर में संक्रमण हो जाता है। <strong>प्रश्न</strong> - दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय ये दोनों मोहनीय हैं, इस रूप से इनकी भी प्रत्यासत्ति पायी जाती है, अत: इनका परस्पर में संक्रमण क्यों नहीं स्वीकार किया जाता है ? <strong>उत्तर</strong> - नहीं, क्योंकि परस्पर में प्रतिषेध्यमान दर्शनमोहनीय और चारित्र मोहनीय के भिन्न जाति होने से उनकी परस्पर में प्रत्यासत्ति नहीं पायी जाती, अत: इनका परस्पर में संक्रमण नहीं होता है।</span></p> | ||
<p class="HindiText" id="3.4"> | <p class="HindiText" id="3.4"> | ||
<strong>4. दर्शनमोह त्रिक का स्व उदय काल में ही संक्रमण नहीं होता</strong></p> | <strong>4. दर्शनमोह त्रिक का स्व उदय काल में ही संक्रमण नहीं होता</strong></p> | ||
<p><span class="PrakritText"> | <p><span class="PrakritText"><span class="GRef"> गोम्मटसार कर्मकांड/411/575 </span>सम्मं मिच्छं मिस्सं सगुणट्ठाणम्मि णेव संकमदि।...।411।</span> = <span class="HindiText">सम्यक्त्व मोहनीय, मिथ्यात्वमोहनीय, मिश्रमोहनीय अपने-अपने असंयतादि गुणस्थानों में तथा मिथ्यात्व गुणस्थान में और मिश्र में नहीं संक्रमण करती।</span></p> | ||
<p class="HindiText" id="3.5"> | <p class="HindiText" id="3.5"> | ||
<strong>5. प्रकृति व प्रदेश संक्रमण में गुणस्थान निर्देश</strong></p> | <strong>5. प्रकृति व प्रदेश संक्रमण में गुणस्थान निर्देश</strong></p> | ||
<p><span class="PrakritText"> | <p><span class="PrakritText"><span class="GRef"> कषायपाहुड़ 3/3,22/348/388/10 </span>ण, तत्थ दंसणमोहणीयस्स संकमाभावेण सम्मत्तसम्मामिच्छत्ताण...।</span> = <span class="HindiText">सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में दर्शनमोहनीय का संक्रमण नहीं होता...।</span></p> | ||
<p><span class="PrakritText"> | <p><span class="PrakritText"><span class="GRef"> गोम्मटसार कर्मकांड </span>व जी.प्र./411/574 सासणमिस्से णियमा दंसणतियसंकमो णत्थि।411।.</span>..<span class="SanskritText">सासादनमिश्रयोर्नियमेन दर्शनमोहत्रयस्य संक्रमणं नास्ति। असंयतादिचतुर्ष्वस्तीत्यर्थ:।</span> = <span class="HindiText">सासादन गुणस्थान में नियम से दर्शनमोह त्रिक का संक्रमण नहीं होता। असंयतादि (4-7) में होता है।</span></p> | ||
<p class="PrakritText"> | <p class="PrakritText"> | ||
<span class="GRef"> गोम्मटसार कर्मकांड/429 </span>बंधपदेसाणं पुण संकमणं सुहुमरागोत्ति।429।</p> | |||
<p><span class="PrakritText"> | <p><span class="PrakritText"><span class="GRef"> गोम्मटसार कर्मकांड </span>व टी./442/594 आदिमसत्तेव तदो सुहुमकसायोत्ति संकमेण विणा। छच्च सजोगित्ति...।442।</span> ...<span class="SanskritText">तत्रापि संक्रमकरणं विना षडेव सयोगपर्यंतं भवंति।</span> = <span class="HindiText">बंधरूप प्रदेशों का संक्रमण भी सूक्ष्मसांपराय गुणस्थान पर्यंत है। क्योंकि 'बंधे अधापवत्तो' इस गाथासूत्र के अभिप्राय से स्थितिबंध पर्यंत ही संक्रमण संभव है।429। उस अपूर्वकरण गुणस्थान के ऊपर सूक्ष्मसांपराय गुणस्थान पर्यंत आदि के सात ही करण होते हैं। उससे आगे सयोग केवली तक संक्रमण के बिना छह ही करण होते हैं।442।</span></p> | ||
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<strong>6. संक्रमण द्वारा अनुदय प्रकृतियों का भी उदय</strong></p> | <strong>6. संक्रमण द्वारा अनुदय प्रकृतियों का भी उदय</strong></p> | ||
<p><span class="PrakritText"> | <p><span class="PrakritText"><span class="GRef"> कषायपाहुड़ 3/3,22/430/244/9 </span>उदयाभावेण उदयनिसेयट्ठिदी परसरूवेण गदाए...। | ||
</span> = <span class="HindiText">जिस प्रकृति का उदय नहीं होता उसकी उदय निषेक स्थिति के | </span> = <span class="HindiText">जिस प्रकृति का उदय नहीं होता उसकी उदय निषेक स्थिति के उपांत्य समय में पररूप से संक्रामित हो जाती है।</span></p> | ||
<p class="HindiText" id="3.7"> | <p class="HindiText" id="3.7"> | ||
<strong>7. अचलावली | <strong>7. अचलावली पर्यंत संक्रमण संभव नहीं</strong></p> | ||
<p><span class="PrakritText"> | <p><span class="PrakritText"><span class="GRef"> कषायपाहुड़ 3/3,22/411/233/4 </span>अचलावलियमेत्त कालं बद्धसोलसकसायाणमुक्कस्सट्ठिदीए णोकसाएसु संकमाभावादो। कुदो एसो णियमो। साहावियादो। | ||
</span> = <span class="HindiText">बंधी हुई सोलह कषायों की उत्कृष्ट स्थिति का अचलावली काल तक नोकषायों में संक्रमण नहीं होता। प्रश्न - विवक्षित समय में बंधे हुए कर्मपुंज का अचलावली काल के | </span> = <span class="HindiText">बंधी हुई सोलह कषायों की उत्कृष्ट स्थिति का अचलावली काल तक नोकषायों में संक्रमण नहीं होता। प्रश्न - विवक्षित समय में बंधे हुए कर्मपुंज का अचलावली काल के अनंतर ही पर प्रकृतिरूप से संक्रमण होता है ऐसा नियम क्यों? उत्तर - स्वभाव से ही यह नियम है।</span></p> | ||
<p class="HindiText" id="3.8"> | <p class="HindiText" id="3.8"> | ||
<strong>8. संक्रमण पश्चात् आवली | <strong>8. संक्रमण पश्चात् आवली पर्यंत प्रकृतियों की अचलता</strong></p> | ||
<p><span class="PrakritText"> | <p><span class="PrakritText"><span class="GRef"> धवला 6/1,9-8,16/ </span>गा.21/346 संकामेदुक्कउदि जे अंसे ते अवट्ठिदा होंति। आवलियं ते काले तेण परं होंति भजिदव्वा।21।</span> = <span class="HindiText">जिन कर्म प्रदेशों का संक्रमण अथवा उत्कर्षण करता है वे आवलीमात्र काल तक अवस्थित अर्थात् क्रियांतर परिणाम के बिना जिस प्रकार जहाँ निक्षिप्त हैं उसी प्रकार ही वहाँ निश्चल भाव से रहते हैं। इसके पश्चात् उक्त कर्मप्रदेश वृद्धि, हानि एवं अवस्थानादि क्रियाओं से भजनीय हैं।21।</span></p> | ||
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Latest revision as of 22:21, 17 November 2023
प्रकृतियों के संक्रमण संबंधी कुछ नियम व शंका
1. बध्यमान व अबध्यमान प्रकृति संबंधी
धवला 16/409/4 बंधे अधापमत्तो...'बंधे अधापवत्तो' जत्थ जासिं पयडीणं बंधो संभवदि तत्थ तासिं पयडीणं बंधे संते असंतो वि अधापमत्तसंकमो होदि। एसो णियमो बंधपयडीणं, अबंधपयडीणं णत्थि। कुदो। सम्मत्त-सम्मामिच्छत्तेसु वि अधापमत्तसंकमुवलंभादो।
धवला 16/420/5 तिण्णि संजलण-पुरिसवेदाणमधापवत्तसंकमो सव्वसंकमो चेदि दोण्णि संकमा होंति। तं तहा - तिण्णं संजलणाणं पुरिसवेदस्स मिच्छाइट्ठिप्पहुडि जाव अणियट्टि त्ति अधापवत्तसंकमो। = 1. बंध के होने पर अध:प्रवृत्त संक्रमण होता है। ( गोम्मटसार कर्मकांड/416 ) 2. 'बंधे अधापवत्तो' का स्पष्टीकरण करते हुए बतलाते हैं कि जहाँ जिन प्रकृतियों का बंध संभव है वहाँ उन प्रकृतियों के बंध के होने पर और उसके न होने पर भी अध:प्रवृत्त संक्रमण होता है। यह नियम बंध प्रकृतियों के लिए है, अबंध प्रकृतियों के लिए नहीं है, क्योंकि सम्यक्त्व, और सम्यग्मिथ्यात्व इन दो अबंध प्रकृतियों में भी अध:प्रवृत्तसंक्रमण पाया जाता है। 3. तीन संज्वलन और पुरुषवेद के अध:प्रवृत्तसंक्रम और सर्व-संक्रम ये दो संक्रम होते हैं। यथा - तीन संज्वलन कषायों और पुरुष वेद का मिथ्यादृष्टि से लेकर अनिवृत्तिकरण तक अध:प्रवृत्त संक्रम होता है। ( गोम्मटसार कर्मकांड/424 )।
गोम्मटसार कर्मकांड व जी.प्र./410 बंधे संकामिज्जदि णोबंधे।410। बंधे बध्यमानमात्रे संक्रामति इत्ययमुत्सर्गविधि: क्वचिदवध्यमानेऽपि संक्रमात्, नोबंधे अबंधे न संक्रामति इत्यनर्थकवचनाद्दर्शनमोहनीयं विना शेषं कर्म बध्यमानमात्रे एवं संक्रामतीति नियमो ज्ञातव्य:। = जिस प्रकृति का बंध होता है, उसी प्रकृति का संक्रमण भी होता है यह सामान्य विधान है क्योंकि कहीं पर जिसका बंध नहीं उसमें भी संक्रमण देखा जाता है। जिसका बंध नहीं होता उसका संक्रमण भी नहीं होता। इस वचन का ज्ञापन सिद्ध प्रयोजन यह है कि दर्शनमोह के बिना शेष सब प्रकृतियाँ बंध होने पर संक्रमण करती हैं ऐसा नियम जानना।
2. मूल प्रकृतियों में परस्पर संक्रम नहीं होता
धवला 16/408/10 जं पदेसग्गं अण्णपयडिं संकामिज्जदि एसो पदेससंकमो। एदेण अट्ठपदेण मूलपयडिसंकमो णत्थि। उत्तरपयडिं संकमे पयदं। = जो प्रदेशाग्र अन्य प्रकृति में संक्रांत किया जाता है इसका नाम प्रदेश संक्रम है। इस अर्थ पद के अनुसार मूलप्रकृति संक्रम नहीं है। उत्तरप्रकृति संक्रम प्रकरण प्राप्त है।
गोम्मटसार कर्मकांड व जी.प्र./410/574 णत्थि मूलपयडीणं।...संकमणं।410। मूलप्रकृतीनां परस्परसंक्रमणं नास्ति उत्तरप्रकृतीनामस्तीत्यर्थ:।=मूल प्रकृतियों का परस्पर संक्रमण नहीं होता। अर्थात् ज्ञानावरणी कभी दर्शनावरणी रूप नहीं होती। सारांश यह हुआ कि उत्तर प्रकृतियों में ही संक्रमण होता है।
3. उत्तर प्रकृतियों में संक्रमण संबंधी कुछ अपवाद
धवला 16/341/1 दंसणमोहणीयं चारित्तमोहणीए ण संकमदि, चारित्तमोहणीयं पि दंसणमोहणीए ण संकमदि। कुदो। साभावियादो।... चदुण्णमाउआणं संकमो णत्थि। कुदो। साभावियादो। = दर्शन मोहनीय चारित्र मोहनीय में संक्रांत नहीं होती, और चारित्र मोहनीय भी दर्शनमोहनीय में संक्रांत नहीं होती, क्योंकि ऐसा स्वभाव है।...चारों आयुकर्म का संक्रमण नहीं होता क्योंकि ऐसा स्वभाव है। ( गोम्मटसार कर्मकांड/410/574 )।
कषायपाहुड़ 3/3,22/411-412/234/4 दंसणमोहणीयस्स चारित्तमोहणीयसंकमाभावादो। कसायाणं णोकसाएसु णोकसायाणं च कसाएसु कुदो संकमो। ण एस दोसो, चारित्तमोहणीयभावेण तेसिं पच्चासत्तिसंभवादो। मोहणीयभावेण दंसणचारित्तमोहणीयाणं पच्चासत्ति अत्थि त्ति अण्णोण्णेसु संकमो किण्ण इच्छदि। ण, पडिसेज्झमाणदंसणचारित्ताणं भिण्णजादित्तणेण तेसिं पच्चासत्तीए अभावादो। = दर्शनमोहनीय का चारित्र मोहनीय में संक्रमण नहीं होता है। प्रश्न - कषायों का नोकषायों में और नोकषायों का कषायों में संक्रमण किस कारण से होता है? उत्तर - यह कोई दोष नहीं है क्योंकि दोनों चारित्रमोहनीय हैं, अत: उनमें परस्पर में प्रत्यासत्ति पायी जाती है, इसलिए उनका परस्पर में संक्रमण हो जाता है। प्रश्न - दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय ये दोनों मोहनीय हैं, इस रूप से इनकी भी प्रत्यासत्ति पायी जाती है, अत: इनका परस्पर में संक्रमण क्यों नहीं स्वीकार किया जाता है ? उत्तर - नहीं, क्योंकि परस्पर में प्रतिषेध्यमान दर्शनमोहनीय और चारित्र मोहनीय के भिन्न जाति होने से उनकी परस्पर में प्रत्यासत्ति नहीं पायी जाती, अत: इनका परस्पर में संक्रमण नहीं होता है।
4. दर्शनमोह त्रिक का स्व उदय काल में ही संक्रमण नहीं होता
गोम्मटसार कर्मकांड/411/575 सम्मं मिच्छं मिस्सं सगुणट्ठाणम्मि णेव संकमदि।...।411। = सम्यक्त्व मोहनीय, मिथ्यात्वमोहनीय, मिश्रमोहनीय अपने-अपने असंयतादि गुणस्थानों में तथा मिथ्यात्व गुणस्थान में और मिश्र में नहीं संक्रमण करती।
5. प्रकृति व प्रदेश संक्रमण में गुणस्थान निर्देश
कषायपाहुड़ 3/3,22/348/388/10 ण, तत्थ दंसणमोहणीयस्स संकमाभावेण सम्मत्तसम्मामिच्छत्ताण...। = सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में दर्शनमोहनीय का संक्रमण नहीं होता...।
गोम्मटसार कर्मकांड व जी.प्र./411/574 सासणमिस्से णियमा दंसणतियसंकमो णत्थि।411।...सासादनमिश्रयोर्नियमेन दर्शनमोहत्रयस्य संक्रमणं नास्ति। असंयतादिचतुर्ष्वस्तीत्यर्थ:। = सासादन गुणस्थान में नियम से दर्शनमोह त्रिक का संक्रमण नहीं होता। असंयतादि (4-7) में होता है।
गोम्मटसार कर्मकांड/429 बंधपदेसाणं पुण संकमणं सुहुमरागोत्ति।429।
गोम्मटसार कर्मकांड व टी./442/594 आदिमसत्तेव तदो सुहुमकसायोत्ति संकमेण विणा। छच्च सजोगित्ति...।442। ...तत्रापि संक्रमकरणं विना षडेव सयोगपर्यंतं भवंति। = बंधरूप प्रदेशों का संक्रमण भी सूक्ष्मसांपराय गुणस्थान पर्यंत है। क्योंकि 'बंधे अधापवत्तो' इस गाथासूत्र के अभिप्राय से स्थितिबंध पर्यंत ही संक्रमण संभव है।429। उस अपूर्वकरण गुणस्थान के ऊपर सूक्ष्मसांपराय गुणस्थान पर्यंत आदि के सात ही करण होते हैं। उससे आगे सयोग केवली तक संक्रमण के बिना छह ही करण होते हैं।442।
6. संक्रमण द्वारा अनुदय प्रकृतियों का भी उदय
कषायपाहुड़ 3/3,22/430/244/9 उदयाभावेण उदयनिसेयट्ठिदी परसरूवेण गदाए...। = जिस प्रकृति का उदय नहीं होता उसकी उदय निषेक स्थिति के उपांत्य समय में पररूप से संक्रामित हो जाती है।
7. अचलावली पर्यंत संक्रमण संभव नहीं
कषायपाहुड़ 3/3,22/411/233/4 अचलावलियमेत्त कालं बद्धसोलसकसायाणमुक्कस्सट्ठिदीए णोकसाएसु संकमाभावादो। कुदो एसो णियमो। साहावियादो। = बंधी हुई सोलह कषायों की उत्कृष्ट स्थिति का अचलावली काल तक नोकषायों में संक्रमण नहीं होता। प्रश्न - विवक्षित समय में बंधे हुए कर्मपुंज का अचलावली काल के अनंतर ही पर प्रकृतिरूप से संक्रमण होता है ऐसा नियम क्यों? उत्तर - स्वभाव से ही यह नियम है।
8. संक्रमण पश्चात् आवली पर्यंत प्रकृतियों की अचलता
धवला 6/1,9-8,16/ गा.21/346 संकामेदुक्कउदि जे अंसे ते अवट्ठिदा होंति। आवलियं ते काले तेण परं होंति भजिदव्वा।21। = जिन कर्म प्रदेशों का संक्रमण अथवा उत्कर्षण करता है वे आवलीमात्र काल तक अवस्थित अर्थात् क्रियांतर परिणाम के बिना जिस प्रकार जहाँ निक्षिप्त हैं उसी प्रकार ही वहाँ निश्चल भाव से रहते हैं। इसके पश्चात् उक्त कर्मप्रदेश वृद्धि, हानि एवं अवस्थानादि क्रियाओं से भजनीय हैं।21।