भोग: Difference between revisions
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<li><span class="HindiText" name="1.1" id="1.1"><strong>सामान्य भोग व उपभोग की अपेक्षा </strong></span><br /> | <li><span class="HindiText" name="1.1" id="1.1"><strong>सामान्य भोग व उपभोग की अपेक्षा </strong></span><br /> | ||
र.क.श्रा/83 <span class="SanskritText">भुक्त्वा परिहातव्यो भोगो भुक्त्वा पुनश्च भोक्तव्य;। उपभोगोऽशनवसनप्रभृति: पंचेंद्रियो विषय:।</span> =<span class="HindiText">भोजन-वस्त्रादि पंचेंद्रिय संबंधी विषय जो भोग करके पुनः भोगने में न आवें वे तो भोग हैं और भोग करके फिर भोगने योग्य हों तो उपभोग हैं। ( धवला 13/5,5,137/389/14 )।</span><br /> | र.क.श्रा/83 <span class="SanskritText">भुक्त्वा परिहातव्यो भोगो भुक्त्वा पुनश्च भोक्तव्य;। उपभोगोऽशनवसनप्रभृति: पंचेंद्रियो विषय:।</span> =<span class="HindiText">भोजन-वस्त्रादि पंचेंद्रिय संबंधी विषय जो भोग करके पुनः भोगने में न आवें वे तो भोग हैं और भोग करके फिर भोगने योग्य हों तो उपभोग हैं। (<span class="GRef"> धवला 13/5,5,137/389/14 </span>)।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/2/44/195/8 </span><span class="SanskritText">इंद्रियप्रणालिकया शब्दादीनामुपलब्धिरुपभोग:।</span> =<span class="HindiText">इंद्रियरूपी नालियों के द्वारा शब्दादि के ग्रहण करने को उपभोग कहते हैं। </span><br /> | |||
<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/7/21/361/7 </span><span class="SanskritText">उपभोगोऽशनपानगंधमाल्यादिः। परिभोगआच्छादनप्रावरणालंकारशयनासनगृहयानवाहनादि:।</span> = <span class="HindiText">भोजन, पान, गंध, मालादि उपभोग कहलाते हैं। तथा ओढना-बिछाना, अलंकार, शयन, आसन, घर, यान और वाहन आदि परिभोग कहलाते हैं।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/7/21/9-10/548/11 </span><span class="SanskritText">उपेत्यात्मसात्कृत्य भुज्यते अनुभूयत इत्युपभोगः। अशनपानगंधमाल्यादि:।9। सकृद् भुक्त्वा परित्यज्य पुनरपि भुज्यते इति परिभोग इत्युच्यते।आच्छादनप्रावरणालंकार ... आदि:।10।</span> = <span class="HindiText">उपभोग अर्थात् एक बार भोगे जानेवाले अशन, पान, गंध, माला आदि। परिभोग अर्थात् जो एक बार भोगे जाकर भी दुबारा भोगे जा सकें जैसे -वस्त्र अलंकार आदि। (<span class="GRef"> चारित्रसार/23/2 </span>)। </span></li> | |||
<li><span class="HindiText"><strong name="1.2" id="1.2"> क्षायिक भोग व उपभोग की अपेक्षा</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.2" id="1.2"> क्षायिक भोग व उपभोग की अपेक्षा</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/2/4/154/7 </span><span class="SanskritText">कृत्स्नस्य भोगांतरायस्य तिरोभावादाविर्भूतोऽतिशयवाननंतो भोग: क्षायिक:। यत: कुसुमवृष्टय्यादयो विशेषाः प्रादुर्भवंति। निरवशेषस्योपभोगांतरायस्य प्रलयात्प्रादुर्भूतोऽनंत-उपभोगः क्षायिक:। यत: सिंहासनचामरच्छत्रत्रयादयो विभूतय:।</span> = <span class="HindiText">समस्त भोगांतराय कर्म के क्षय से अतिशयवाले क्षायिक अनंत भोगका प्रादुर्भाव होता है, जिससे कुसुमवृष्टि आदि आश्चर्य विशेष होते हैं। समस्त उपभोगांतराय के नष्ट हो जाने से अनंत क्षायिक उपभोग होता है, जिससे सिंहासन, चामर और तीन छत्र आदि विभूतियाँ होती हैं।(<span class="GRef"> राजवार्तिक/2/4/4-5/106/3 </span>)।</span></li> | |||
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आ./1138 <span class="PrakritText">कामो रसो य फासो सेसा भोगेत्ति आहीया /1138/</span>=<span class="HindiText">रस और स्पर्श तो काम हैं, और गंध, रूप, शब्द भोग हैं ऐसा कहा है। ( समयसार / तात्पर्यवृत्ति/4/11/15 )।<br /> | आ./1138 <span class="PrakritText">कामो रसो य फासो सेसा भोगेत्ति आहीया /1138/</span>=<span class="HindiText">रस और स्पर्श तो काम हैं, और गंध, रूप, शब्द भोग हैं ऐसा कहा है। (<span class="GRef"> समयसार / तात्पर्यवृत्ति/4/11/15 </span>)।<br /> | ||
देखें [[ इंद्रिय#3.7 | इंद्रिय - 3.7 ]]दो इंद्रियों के विषय काम हैं तीन इंद्रियों के विषय भोग हैं।</span></li> | देखें [[ इंद्रिय#3.7 | इंद्रिय - 3.7 ]]दो इंद्रियों के विषय काम हैं तीन इंद्रियों के विषय भोग हैं।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText" name="3" id="3"><strong> भोग वन उपभोग में अंतर</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="3" id="3"><strong> भोग वन उपभोग में अंतर</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/8/13/1/581/2 </span><span class="SanskritText">भोगोपभोगयोरविशेषः। कुत:। सुखानुभवननिमित्तत्वाभेदादिति; तन्न; किं कारणम्।...गंधमाल्यशिर:स्नानवस्त्रान्नपानादिषुभोगव्यवहार:।1। शयनासनांगनाहस्त्यश्वरथ्यादिषूपभोगव्यपदेशः। </span>= <span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–भोग और उपभोग दोनों सुखानुभव में निमित्त होने के कारण अभेद हैं।<strong>उत्तर</strong>–नहीं, क्योंकि एक बार भोगे जाने वाले गंध, माला, स्नान, वस्त्र और पान आदि में भोग व्यवहार तथा शय्या, आसन, स्त्री, हाथी, रथ, घोड़ा आदि में उपभोग व्यवहार होता है।</span></li> | |||
<li><span class="HindiText" name="4" id="4"><strong>निश्चय व्यवहार भोक्ता-भोग्य भाव निर्देश</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="4" id="4"><strong>निश्चय व्यवहार भोक्ता-भोग्य भाव निर्देश</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह/9 </span><span class="PrakritGatha">ववहारासुहदुक्खं पुग्गलकम्मप्फलं पभुंजेदि। आदा णिच्छयणयदो चेदणभावं खु आदस्स।9।</span> = <span class="HindiText">व्यवहार नय से आत्मा सुख-दुःखरूप पुद्गल कर्मों के फल का भोक्ता है और निश्चयनय से अपने चेतनभाव को भोगता है।9। <br /> | |||
देखें [[ भोक्ता#1 | भोक्ता - 1 ]]निश्चयनय से कर्मों से संपादित सुख व दुःख परिणामों का भोक्ता है, व्यवहार से शुभाशुभ कर्मों से उपार्जित इष्टानिष्ट विषयों का भोक्ता है।<br /> | देखें [[ भोक्ता#1 | भोक्ता - 1 ]]निश्चयनय से कर्मों से संपादित सुख व दुःख परिणामों का भोक्ता है, व्यवहार से शुभाशुभ कर्मों से उपार्जित इष्टानिष्ट विषयों का भोक्ता है।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="5" id="5"><strong> अभेद भोक्ता भोग्य भाव का मतार्थ</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="5" id="5"><strong> अभेद भोक्ता भोग्य भाव का मतार्थ</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/27/61/11 </span><span class="SanskritText">भोक्तत्वव्याख्यानं कर्त्ताकर्मफलं न भुक्तं इति बौद्धमतानुसारि शिष्यप्रतिबोधनार्थं।</span> =<span class="HindiText">कर्म के करने वाला स्वयं उसका फल नहीं भोगता है ऐसा माननेवाले बौद्ध मतानुयायी शिष्य के प्रतिबोधनार्थ जीव के भोगतापने का व्याख्यान किया है। </span></li> | |||
<li><span class="HindiText" name="6" id="6"><strong> भेदाभेद भोक्ता-भोग्य भाव का समन्वय</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="6" id="6"><strong> भेदाभेद भोक्ता-भोग्य भाव का समन्वय</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> पंचास्तिकाय / तत्त्वप्रदीपिका/68 </span><span class="SanskritText"> यथात्रोभयनयाभ्यां कर्मकर्तृ, तथैकेनापि नयेन न भोक्तृ। कुत:। चैतन्यपूर्वकानुभूतिसद्भावाभावात्। ततश्चेतनत्वात् केवल एव जीव: कर्मफलभूतानां कथं चिदात्मनः सुखदुखःपरिणामानां कथंचिदिष्टानिष्टविषयाणां भोक्ता प्रसिद्ध इति। </span>= <span class="HindiText">जिस प्रकार यहाँ दोनों नयों से कर्म कर्ता है, उसी प्रकार एक भी नय से वह भोक्ता नहीं है।<strong>किसलिए</strong>–क्योंकि उसे चैतन्यपूर्वक अनुभूतिका सद्भाव नहीं है। इसलिए चेतनपने के कारण मात्र जीव ही कर्मफल का-कथंचित् आत्मा के सुख-दुःख परिणामों का और कथंचित् इष्टानिष्ट विषयों का भोक्ता प्रसिद्ध है।</span></li> | |||
<li><span class="HindiText" name="7" id="7"><strong>लौकिक व अलौकिक दोनों भोग एकांत में होते हैं</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="7" id="7"><strong>लौकिक व अलौकिक दोनों भोग एकांत में होते हैं</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> नियमसार/157 </span><span class="PrakritGatha">लद्धूणंणिहि एक्को तस्स फलं अणुहवेइ सुजणत्तें। तह णाणी णाणणिहिं भंजेइ चइत्तु परत्तिं।157। </span>=<span class="HindiText">जैसे कोई एक (दरिद्र मनुष्य) निधि को पाकर अपने वतन में (गुप्तरूप से) रहकर उसके फल को भोगता है, उसी प्रकार ज्ञानी परजनों के समूह को छोड़कर ज्ञाननिधि को भोगता है।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/157/268 </span><span class="SanskritText">अस्मिन् लोके लौकिक: कश्चिदेको लब्ध्वा पुण्यात्कांचनानां समूहम्। गूढो भूत्वा वर्तते त्यक्तसंगो, ज्ञानी तद्वत् ज्ञानरक्षां करोति।268। </span>= <span class="HindiText">इस लोक में कोई एक लौकिक जन पुण्य के कारण धन के समूह को पाकर, संगको छोड़ गुप्त होकर रहता है, उसी की भाँति ज्ञानी (परके संग को छोड़कर गुप्त रूप से रहकर) ज्ञान की रक्षा करता है।268।</span></li> | |||
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Revision as of 13:01, 14 October 2020
== सिद्धांतकोष से ==
- भोग
- सामान्य भोग व उपभोग की अपेक्षा
र.क.श्रा/83 भुक्त्वा परिहातव्यो भोगो भुक्त्वा पुनश्च भोक्तव्य;। उपभोगोऽशनवसनप्रभृति: पंचेंद्रियो विषय:। =भोजन-वस्त्रादि पंचेंद्रिय संबंधी विषय जो भोग करके पुनः भोगने में न आवें वे तो भोग हैं और भोग करके फिर भोगने योग्य हों तो उपभोग हैं। ( धवला 13/5,5,137/389/14 )।
सर्वार्थसिद्धि/2/44/195/8 इंद्रियप्रणालिकया शब्दादीनामुपलब्धिरुपभोग:। =इंद्रियरूपी नालियों के द्वारा शब्दादि के ग्रहण करने को उपभोग कहते हैं।
सर्वार्थसिद्धि/7/21/361/7 उपभोगोऽशनपानगंधमाल्यादिः। परिभोगआच्छादनप्रावरणालंकारशयनासनगृहयानवाहनादि:। = भोजन, पान, गंध, मालादि उपभोग कहलाते हैं। तथा ओढना-बिछाना, अलंकार, शयन, आसन, घर, यान और वाहन आदि परिभोग कहलाते हैं।
राजवार्तिक/7/21/9-10/548/11 उपेत्यात्मसात्कृत्य भुज्यते अनुभूयत इत्युपभोगः। अशनपानगंधमाल्यादि:।9। सकृद् भुक्त्वा परित्यज्य पुनरपि भुज्यते इति परिभोग इत्युच्यते।आच्छादनप्रावरणालंकार ... आदि:।10। = उपभोग अर्थात् एक बार भोगे जानेवाले अशन, पान, गंध, माला आदि। परिभोग अर्थात् जो एक बार भोगे जाकर भी दुबारा भोगे जा सकें जैसे -वस्त्र अलंकार आदि। ( चारित्रसार/23/2 )। - क्षायिक भोग व उपभोग की अपेक्षा
सर्वार्थसिद्धि/2/4/154/7 कृत्स्नस्य भोगांतरायस्य तिरोभावादाविर्भूतोऽतिशयवाननंतो भोग: क्षायिक:। यत: कुसुमवृष्टय्यादयो विशेषाः प्रादुर्भवंति। निरवशेषस्योपभोगांतरायस्य प्रलयात्प्रादुर्भूतोऽनंत-उपभोगः क्षायिक:। यत: सिंहासनचामरच्छत्रत्रयादयो विभूतय:। = समस्त भोगांतराय कर्म के क्षय से अतिशयवाले क्षायिक अनंत भोगका प्रादुर्भाव होता है, जिससे कुसुमवृष्टि आदि आश्चर्य विशेष होते हैं। समस्त उपभोगांतराय के नष्ट हो जाने से अनंत क्षायिक उपभोग होता है, जिससे सिंहासन, चामर और तीन छत्र आदि विभूतियाँ होती हैं।( राजवार्तिक/2/4/4-5/106/3 )।
- सामान्य भोग व उपभोग की अपेक्षा
- क्षायिक भोग-उपभोग विषयक शंका-समाधान―देखें दान - 2.3।
- भोग व काम में अंतर
आ./1138 कामो रसो य फासो सेसा भोगेत्ति आहीया /1138/=रस और स्पर्श तो काम हैं, और गंध, रूप, शब्द भोग हैं ऐसा कहा है। ( समयसार / तात्पर्यवृत्ति/4/11/15 )।
देखें इंद्रिय - 3.7 दो इंद्रियों के विषय काम हैं तीन इंद्रियों के विषय भोग हैं। - भोग वन उपभोग में अंतर
राजवार्तिक/8/13/1/581/2 भोगोपभोगयोरविशेषः। कुत:। सुखानुभवननिमित्तत्वाभेदादिति; तन्न; किं कारणम्।...गंधमाल्यशिर:स्नानवस्त्रान्नपानादिषुभोगव्यवहार:।1। शयनासनांगनाहस्त्यश्वरथ्यादिषूपभोगव्यपदेशः। = प्रश्न–भोग और उपभोग दोनों सुखानुभव में निमित्त होने के कारण अभेद हैं।उत्तर–नहीं, क्योंकि एक बार भोगे जाने वाले गंध, माला, स्नान, वस्त्र और पान आदि में भोग व्यवहार तथा शय्या, आसन, स्त्री, हाथी, रथ, घोड़ा आदि में उपभोग व्यवहार होता है। - निश्चय व्यवहार भोक्ता-भोग्य भाव निर्देश
द्रव्यसंग्रह/9 ववहारासुहदुक्खं पुग्गलकम्मप्फलं पभुंजेदि। आदा णिच्छयणयदो चेदणभावं खु आदस्स।9। = व्यवहार नय से आत्मा सुख-दुःखरूप पुद्गल कर्मों के फल का भोक्ता है और निश्चयनय से अपने चेतनभाव को भोगता है।9।
देखें भोक्ता - 1 निश्चयनय से कर्मों से संपादित सुख व दुःख परिणामों का भोक्ता है, व्यवहार से शुभाशुभ कर्मों से उपार्जित इष्टानिष्ट विषयों का भोक्ता है।
- अभेद भोक्ता भोग्य भाव का मतार्थ
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/27/61/11 भोक्तत्वव्याख्यानं कर्त्ताकर्मफलं न भुक्तं इति बौद्धमतानुसारि शिष्यप्रतिबोधनार्थं। =कर्म के करने वाला स्वयं उसका फल नहीं भोगता है ऐसा माननेवाले बौद्ध मतानुयायी शिष्य के प्रतिबोधनार्थ जीव के भोगतापने का व्याख्यान किया है। - भेदाभेद भोक्ता-भोग्य भाव का समन्वय
पंचास्तिकाय / तत्त्वप्रदीपिका/68 यथात्रोभयनयाभ्यां कर्मकर्तृ, तथैकेनापि नयेन न भोक्तृ। कुत:। चैतन्यपूर्वकानुभूतिसद्भावाभावात्। ततश्चेतनत्वात् केवल एव जीव: कर्मफलभूतानां कथं चिदात्मनः सुखदुखःपरिणामानां कथंचिदिष्टानिष्टविषयाणां भोक्ता प्रसिद्ध इति। = जिस प्रकार यहाँ दोनों नयों से कर्म कर्ता है, उसी प्रकार एक भी नय से वह भोक्ता नहीं है।किसलिए–क्योंकि उसे चैतन्यपूर्वक अनुभूतिका सद्भाव नहीं है। इसलिए चेतनपने के कारण मात्र जीव ही कर्मफल का-कथंचित् आत्मा के सुख-दुःख परिणामों का और कथंचित् इष्टानिष्ट विषयों का भोक्ता प्रसिद्ध है। - लौकिक व अलौकिक दोनों भोग एकांत में होते हैं
नियमसार/157 लद्धूणंणिहि एक्को तस्स फलं अणुहवेइ सुजणत्तें। तह णाणी णाणणिहिं भंजेइ चइत्तु परत्तिं।157। =जैसे कोई एक (दरिद्र मनुष्य) निधि को पाकर अपने वतन में (गुप्तरूप से) रहकर उसके फल को भोगता है, उसी प्रकार ज्ञानी परजनों के समूह को छोड़कर ज्ञाननिधि को भोगता है।
नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/157/268 अस्मिन् लोके लौकिक: कश्चिदेको लब्ध्वा पुण्यात्कांचनानां समूहम्। गूढो भूत्वा वर्तते त्यक्तसंगो, ज्ञानी तद्वत् ज्ञानरक्षां करोति।268। = इस लोक में कोई एक लौकिक जन पुण्य के कारण धन के समूह को पाकर, संगको छोड़ गुप्त होकर रहता है, उसी की भाँति ज्ञानी (परके संग को छोड़कर गुप्त रूप से रहकर) ज्ञान की रक्षा करता है।268।
- अन्य संबंधित विषय
- जीव पर पदार्थों का (कर्त्ता) भोक्ता कब कहलाता है।–देखें चेतना - 3।
- सम्यग्दृष्टि के भोग संबंधी–देखें राग - 6।
- लौकिक भोगों का तिरस्कार–देखें सुख ।
- ऊपर-ऊपर के स्वर्गों में भोगों की हीनता–देखें देव - II.2।
- चक्रवर्ती के दशांग भोग–देखें शलाका पुरुष - 2।
- जीव पर पदार्थों का (कर्त्ता) भोक्ता कब कहलाता है।–देखें चेतना - 3।
पुराणकोष से
पाँचों इंद्रियों के विषय । इनके भोगने से भोगेच्छा बढ़ती है, घटती नहीं । ये अनुभव में आते समय ही रम्य प्रतीत होते हैं बाद में नहीं । संसारी जीवों को ये लुभाते हैं । ये स्त्री और शरीर के संघटन से उत्पन्न होते हैं ये दस प्रकार के होते हैं । उनके नाम हैं― भाजन, भोजन, शय्या, सेना, वाहन, आसन, निधि, रत्न, नगर, और नाट्य । महापुराण 4.146, 8.54, 69, 54.119, हरिवंशपुराण 11. 131 वीरवर्द्धमान चरित्र 6.25-26