योगसार - संवर-अधिकार गाथा 243
From जैनकोष
संवरक योगी का स्वरूप -
य: षडावश्यकं योगी स्वात्मतत्त्व-व्यवस्थित: ।
अनालस्य: करोत्येव संवृतिस्तस्य रेफसाम् ।।२४३।।
अन्वय :- स्व-आत्म-तत्त्व-व्यवस्थित: अनालस्य: य: योगी षट् आवश्यकं करोति तस्य एव रेफसां (पुण्य-पाप-कर्मणां) संवृति: (जायते) ।
सरलार्थ :- जो योगी अर्थात् मुनिराज निज शुद्धात्म तत्त्व में विशेषरूप से अवस्थित अर्थात् लीन रहते हैं और प्रमाद से रहित होकर सामायिक आदि षट् आवश्यकों को करते हैं, उनके पुण्य- पापरूप कर्मो का संवर होता है ।