वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 202
From जैनकोष
चिंतामणिर्निधिर्दिव्य: स्वर्धेनु: कल्पपादपा:।
धर्मस्यैते श्रिया सार्द्ध मन्ये भृत्याश्चिरंतना:।।202।।
धर्म के लोकचमत्कार―लक्ष्मी सहित चिंतामणि रत्न, दिव्य नवनिधि, कामधेनु, कल्पवृक्ष, बड़े-बड़े विभूति ऐश्वर्य ये सब धर्म के चिरकाल से सेवक रहे हैं। आज जो मनुष्य शरीर से पुष्ट हैं, धन समृद्धि से संपन्न है, जनता में जिसकी बात मानी जाती है, जिसके संकेत पर जनता अपने आपको समर्पण कर सकती है, ऐसी-ऐसी जो महाविभूतियाँ मिली हैं, जो बड़ी विभूतियाँ प्राप्त हुई हैं क्या आप यह कह सकते हैं कि इन विभूतियों को ये हाथ कमा सकते हैं? क्या आप कह सकते हैं कि जो विद्यायें पढ़ी हैं क्या उन विद्याओं के बल पर विभूति कमाई जा सकती है। यद्यपि ये भी सहायक हैं लेकिन वास्तविकता यह है कि जिन जीवों ने पूर्वभव में धर्म किया था दया की थी, पापों से बचे थे, अपने आत्मा की दृष्टि की थी, प्रभु की भक्ति की थी उससे जो पुण्य कर्म का बंध हुआ उसके उदय का यह फल है कि आज सब कुछ अनुकूल समृद्धियाँ मिली हैं।
भरनी में अपनी जिम्मेदारी―अब उदय अनुकूल आता है तो यह धन विभूति न जाने किस-किस रास्ते से आ जाती है, न यह धनी जानता है, न और कोई जानता है पर जब पाप का उदय आता है तो चाहे जितनी संपन्नता हो पर यह वैभव न जाने किन-किन रास्तों से निकल जाता है, इसे भी कोई जान नहीं पाता। हाँ इतना अवश्य नियम है कि भक्ति करने का भला फल होता है और बुरी करनी का बुरा फल होता है। भले ही आज कुछ उदय अनुकूल है, पुण्य हैं और करनी बुरी करे तो भले ही वह बुरी करनी छिप जाय, प्रकट न हो, यश भी बनाये रखे, लेकिन बुरी करनी करने से जो बंध हुआ वह टलेगा नहीं। इसका कारण यह है कि इस जगत में सर्वत्र ऐसे सूक्ष्म कर्म अणु भरे हुए हैं कि जब यह जीव विषयकषायों के परिणाम करता है, खोटे भाव करता है तो तत्काल ही वे सब कर्म अणु इस जीव के साथ कर्मरूप में बनकर ठहर जाते हैं। कोई जीव कहीं भी गुप्त भी पाप करना चाहे वह यह जाने कि हमें कोर्इ देख नहीं रहा। इस पाप को करने से तो अब डर क्या है, लेकिन कोई यहाँ के लोग नहीं देख रहे तो न सही, किंतु यह पाप करने वाला तो स्वयं जान रहा है और फिर पाप करने के समय में कर्म अणु तो कर्मरूप बन रहे हैं, इसे कौन निवार सकता है इसी कारण यह जीव जैसी करनी करता है वैसा उसे फल भोगना पड़ता है।
सांसारिक माया पुण्यपाप का फल―एक कवि ने कहा है, ‘यदा लक्ष्मी: समायाति नारिकेलिफलंबुवत् यदा विनश्यते लक्ष्मीगर्जभुक्तकपित्थवत्।’ जब विभूति आती होती है तब इस तरह आती है जैसे नारियल के फल में जल। नारियल का फल होता है बड़ा। उसे लोग जानते ही हैं उसके फोड़ने पर उसमें पाव डेढ़ पाव पानी निकलता है। भला यह बतलाओ जिस फल का इतना कठोर छिलका है जो बड़े जोर से पत्थर पर मारने से फूट सकता है। उस फल के अंदर पानी कहाँ से आया? आ गया। ऐसे ही यह वैभव लौकिक वैभव समागम कहाँ से आते हैं, कैसे आते हैं? जिसके पुण्य का उदय है जिसने करनी अच्छी―की है उसके यों ही आ जाता है, और जब यह वैभव जाने को होता है तो किस तरह से जाता है जैसे कोई हाथी कैथ खा ले तो दो एक दिन के बाद हाथी की लीद से कैथ निकलता है तब ऐसा होगा कि वह कैथ पूरा का पूरा निकलता है, उसमें कहीं दराद छिद्र वगैरा नहीं होता हैं, और उसका वज़न करीब डेढ़ दो तोला रह जाता है। तो यह बताओ कि उसका यह सारा रस कहाँ से किस तरह से निकल गया? तो ऐसे ही समझिये यह वैभव पाप के उदय में न जाने कहाँ से कैसे निकल जाता है, कुछ पता नहीं पड़ता। यह निधि करनी अपनी भली है, पुण्य की है तो रहती है, नहीं तो नहीं रहती। इसी कारण भैया ! अपने में सामर्थ्य हो तो दूसरों की रक्षा करने का भी यत्न रखना चाहिए।
धर्म का प्रताप व स्वरूप―यह सब संपन्नता धर्म की किंकर है। ये जो चक्रवर्ती 6 खंड की विभूति के राजा हुए हैं जिनके देवता एक सेवक रहे हैं, यह सब एक धर्म का ही तो प्र ताप है। वह धर्म क्या है, इसका वर्णन कुछ किया है और कुछ किया जाएगा, पर संक्षेप में इतना समझ लो कि धर्म नाम है वस्तु के स्वभाव का। लोग अपने बोलचाल में भी कहते हैं, इस बिच्छू का धर्म काटना है और दयालु का स्वभाव दया करना है, दुष्ट का स्वभाव दुष्टता करना है। बोलचाल में भी यों बोलते हैं तो वस्तु का स्वभाव है वह धर्म है। तो धर्म क्या है? जो अपना स्वभाव हो वह अपना धर्म है। अपने से मतलब एक ज्ञानमय पदार्थ, जीव। मेरा धर्म क्या है? जो आत्मा में स्वभाव पड़ा हुआ हो। आत्मा में स्वभाव है जानने का। केवल जानते जाओ, बस यही धर्मपालन है।
अभेदवृत्ति में आनंद का वास―धर्म में भेद नहीं है, जीव में भेद नहीं है, साधारणतया मनुष्य में भी भेद नहीं है पर रागद्वेष से पीड़ित ये मनुष्य कितना भेद डाल देते हैं? वे भाग्यशाली मनुष्य हैं जो अपने आपको इस स्वरूप में देखते हैं जिस स्वरूप से जगत के सब जीव अपने समान जँचते हैं। सबसे घुलमिल करके रहने में आनंद है। अपनी-अपनी अलग-अलग खिचड़ी पकाने में आनंद नहीं है। ऐसा जैसे लोक में कहते हैं ऐसे ही धर्म का स्वरूप भी समझिये। जीव के स्वरूप में हमारा स्वरूप घुलमिल कर रह जाय ऐसे उपयोग की वृत्ति बने, आनंद तो उस स्थिति में है। अभिमान में कहाँ आनंद रखा है? देखो में कितना भरापूरा हूँ, कितना वैभवशाली हूँ इस प्रकार की भेदरूप कल्पना करने में वह सत्य आनंद नहीं आता, वह भी एक क्लेश ही है। कोई क्लेश मौज का है, और कोई क्लेश विषाद का है पर क्लेश सबमें है। जो संसार के सुख माने जाते हैं, उन सुखों में भी क्लेश ही छिपा हुआ है। आनंद तो वह है जो सुगम है, स्वाधीन है।
वैषयिक सुख की असारता―जो सुख तकदीर के अधीन हैं, इतने पर भी सुख का विनाश देखा जाता है। अभी है, कल न होगा इतने पर भी जिस सुख के भोगने के बीच-बीच भी अनेक दु:ख आते रहते हैं वह क्या सुख है जैसे आप सब समझ ही रहे होंगे, घर के स्त्री पुत्र भले हैं, उनसे बड़ा सुख मिल रहा है तो भी बीच-बीच में अनेक दु:ख के प्रसंग भी आते रहते हैं। सुख-सुख का ही प्रसंग किसी के नहीं रहा। ये संसार के सुख बीच-बीच में दु:ख से भी भरे हुए हैं। कितने ऐब है इस सुख में, जिसके पीछे मोहीजन बेतहाशा भोगे जा रहे हैं। कुछ शांतहृदय से विचार तो करिये ये सुख विनाशीक हैं, दु:ख से भरे हुए हैं और इतनी ही बात नहीं किंतु ये पाप के कारण हैं। इस सुख के भोगने के समय कहाँ अपने प्रभु की याद रहती है, कहाँ अपने आत्मा के स्वरूप की याद रहती है। अपने प्रभु से विमुख होकर, अपनी आत्मदृष्टि से विमुख होकर जो ये मायामय सुख भोगे जा रहे हैं इनके भोगने से विकट पाप का बंध होता है। ये पाप के कारण हैं और इनके फल में भविष्य में नाना पद्धतियों से क्लेश भोगने पड़ेंगे।
समागम में निर्लेप रहने का कर्तव्य―सांसारिक सुखों का आदर करना अपना कर्तव्य नहीं है, इनके तो जाननहार रहें। यह घर मिला है, इतनी संपदा मिली है, इतना यश ऐश्वर्य मिला है, ठीक है, देख लिया, यह हमारा कुछ नहीं है। यह तो सब मायारूप है। अब इस देह को भी त्यागकर कभी जाना पड़ेगा तो हम कहाँ अन्य पदार्थों की मालिकाई का विश्वास रखें? जो गृहस्थ जल में रहने वाले कमल की तरह समागम से भिन्न रहा करते हैं। वे पवित्र होते हैं। कमल जल में उत्पन्न होता है, जल से उत्पन्न होता है और जल के कारण कमल हरा-भरा रहता है, इतने पर भी कमल जल से कई हाथ दूर रहता है। जल में नहीं बना रहता। यदि कमल जल में रहे तो सड़ जायेगा। तो ऐसे ही ज्ञानी पुरुष यद्यपि गृह में ही पैदा हुआ है और गृह में रहकर भी अपने अनेक अन्य पापों से भी बचा रहता है। अतएव वह घर की समृद्धियों से भरपूर भी रहता है लेकिन ज्ञानी पुरुष इस घर और समागम से अलग ही रहा करता है।
मनचाही सृष्टि की आत्मसाध्यता―भैया ! क्लेश या आनंद का निर्माण सब एक ज्ञानसाध्य बात है। यह ज्ञान, ये कल्पनाएँ ममता की पद्धति से बढ़ें तो वहाँ पाप है, क्लेश है, अधर्म है और सही-सही दिशा से ज्ञान चले तो वहाँ धर्म है, शांति है। सब बात भीतर की है। अपने को ही सोचना है और वास्तविक स्वरूप के ढंग से सोचना है, धर्मपालन हो जायेगा। रागद्वेष मोह ये साक्षात् अधर्म है, और अपने आत्मा के सहज स्वरूप का विश्वास और अपने आपके स्वरूप का सच्चा बोध तथा अपने आपके स्वरूप में मग्न होने का पुरुषार्थ―ये सब धर्म हैं। कभी तो 10-5 मिनट किसी जगह एकांत में बैठकर सारी बाह्य बातों को भूलकर, अपने आपके व्यावहारिक रूप को भी भूलकर जिस रूप में लोकव्यवहार करते हैं मैं अमुक नाम, अमुक जगह, अमुक पोजीशन का हूँ, इन सब बातों को भूलकर मैं तो एक जाननहार कुछ हूँ ऐसा ज्ञानमात्र अपने को मानकर इस सत्य का ही आग्रह करके बैठ जायें तो ऐसी एक अनुपम ज्योति अपने आपमें पावेंगे कि उसमें जो एक अनुपम आनंद अपने आपको मिलेगा उस आनंद की स्मृति ही आपका उद्धार कर देगी।
धर्मप्रवर्तन का अनुरोध―यह जीव इस संसार में अकेला ही जन्मता है, अकेला ही मरता है, अकेला ही सुख-दु:ख भोगता है। सब बातें इस अकेले पर ही व्यतीत होती हैं तो उस दु:ख से छूटने के लिए इस अकेले आत्माराम का मर्म क्यों न जानूँ? मैं अपने को जानूँ और इस ही जानने के यत्न से अपने में आनंद प्राप्त करूँ। धर्म अपना अपने आपमें ही है। धर्म की दूसरी व्याख्या है जो संसार के दु:खों से छुटाकर उत्तम सुख में धर उसे धर्म कहते हैं। धर्म का फल नियम से सुख-शांति है। धर्म से कभी अशांति नहीं हुआ करती, पर उस धर्म को हम बाहर न ढूँढें, अपने आपके अंदर ही खोजें। जितने हम रागद्वेष से दूर रहें उतना तो समझिये हम धर्म में है और जितना रागद्वेष की विषकणिका मिले समझिये उतना ही हम अधर्म करते हैं। हम सब जीवों में एक समान बुद्धि रखें और उसके सुखी रहने की भावना करें।