वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षपाहुड - गाथा 48
From जैनकोष
परमप्पय झायंतो जोई मुच्चेइ मलदलोहेण ।
णादियदि णवं कम्मं णिद्दिट्ठं जिणवरिंदेहिं ꠰꠰48।।
परमात्मतत्त्व का ध्यान करने वाले योगी की मलदलोभविमुक्तता―परमात्मा का ध्यान करने वाला योगी पापबंध कराने वाले लोभ से मुक्त हो जाता है और नवीन कर्मों को नहीं बांधता । सबसे बड़ी विपत्ति इस जीव पर यह है कि यह अपने स्वरूप से भिन्न अन्य पदार्थों को अपना मानता है और पुण्य के अनुसार अपने को सुखी दुःखी अनुभव करता है । यह बहुत बड़ी भारी विपत्ति इस जीव पर है । यह विपत्ति हट जाये और अपने को अपना यथार्थ स्वरूप दिख जाये कि सर्व जीव स्वतंत्र-स्वतंत्र है, सबकी जुदी-जुदी सत्ता है, एक का दूसरा कुछ भी नहीं लगता, मेरे आत्मा का मात्र मैं ही आत्मा हूँ, इसको भाई भतीजों का तो क्या शरण हो, परमात्मा का भी शरण नहीं हो सकता, यदि अपने आपकी सुध न हो । कहीं प्रभु किसी को तारने के लिए संसार में भटकते नहीं फिरते । प्रभु का स्वरूप तो है समस्त पदार्थों का जानना और अपने आनंद में मग्न होना, उसके ये दो ही मुख्य स्वरूप हैं । परमात्मा वही है जिसका ज्ञान समस्त लोकालोक का जाननहार है और साथ ही अपने सहज आनंदरस में लीन है । जो विकल्प नहीं करता, जिसमें रागद्वेष नहीं रहे, जो स्वयं सिद्ध अपने स्वरूप में मग्न हुए हैं, ऐसे परमात्मतत्त्व का जो ध्यान करता है बह लोभ से मुक्त हो जाता है ।
लोभ की व्यर्थता, अनर्थकारिता व लोभ के मिटने का उपाय―लोभ काहे का ? व्यर्थ का लोभ । लोभ में जीव को मिलता क्या है? जीव अकेला है, कुछ दिन इस मनुष्यभव में रहना है, अकेला ही यहाँ से जाना है । यहाँ के पदार्थों से हमारा कौन-सा मतलब बनता? जिस समय यह पुण्य-समागम मिलता है उस समय यह सुख तो मानता है पर आत्मा को वास्तविक लाभ कुछ नहीं हो रहा बल्कि क्षोभ, आकुलता, आत्मा की बेसुधी, व्यर्थ के विकल्प ये ही सब मिलते हैं । यह सब अंधेरा है इस जीव के लिए । सो लोभकषाय इन सब कषायों में गहरी कषाय है । चाहे साधु के अन्य कषायों पर विजय बन जाये, पर लोभ कषाय पर विजय पाना बहुत कठिन है । लोभ केवल रुपया पैसे के जोड़ने का ही नहीं होता किंतु इस देह को यह मैं हूँ ऐसा मानकर याने इस मिथ्यात्व के कारण भ्रष्ट होकर अब इस मेरे को दुनिया जान जाये, दुनिया मेरी प्रशंसा करे, सबमें मेरा नाम जाहिर हो, इस प्रकार का जो विकल्प है वह तीव्र लोभ है, और जिसके लोभकषाय है उसमें धर्म आने की पात्रता नहीं है । तो लोभ कषाय कैसे मिटे? तो वास्तविक उपाय तो यह है कि अपने आपके सही स्वरूप का परिचय मिले तो लोभ न रहेगा ꠰ स्वरूप परिचय क्या है मेरा ? मैं हूँ ꠰ अपने सत्व को कोई मना नहीं कर सकता ꠰ मैं हूँ और जब हूँ तो किसी दिन बना होऊँ, ऐसा नहीं है, अगर मैं किसी दिन बना हूँ तो किस उपादान से बना हूं? घड़ा यदि बनता है तो मिट्टी उपादान से बनता है, यदि मैं जीव बना हूँ तो किस उपादान से बना हूं? वह उपादान जीव ही हो सकता और वह वही मैं जीव हूँ, सो यह मैं जीव अपने आप में परिणमन से भावों को उछालता हुआ अनादिकाल से चला आ रहा हूँ, और अनंतकाल तक चलता रहूंगा । मैं हूँ, अपने स्वरूप से हूँ, पर के स्वरूप से नहीं हूँ । जो मैं हूँ सो ज्ञानमात्र हूँ, ज्ञान-ज्ञान से ही मेरा समग्र अस्तित्व है, ज्ञानस्वरूप से रचा हुआ हूँ, इसमें अन्य स्वरूप नहीं है, विकार मुझमें नहीं है, विकार तो कर्म का अक्स है । जैसे सिनेमा के पर्दे पर फिल्म का अक्स पड़ता है पर पर्दे में स्वयं अक्स नहीं है । वह तो स्वच्छ है, ऐसे ही मुझमें कर्मों का अक्स पड़ता है, किंतु मैं ज्ञानमात्र स्वच्छ आत्मपदार्थ हूँ । मेरे में विकार का स्वरूप नहीं है, ऐसा भीतर में प्रवेश करके जो अपने को ज्ञानमात्र निहारेगा और अन्य समस्त विषय-कषाय, इच्छा का बलिदान कर देगा, केवल अपनी दृष्टि में अपने सहज ज्ञानस्वरूप को निहारेगा वह मनुष्य पवित्र है, मोक्षमार्ग में है, निकट काल में ही समस्त संकटों से वह मुक्त हो जायेगा । तो ये लोभादिक कषाय परमात्मस्वरूप के ध्यान से दूर होते हैं ।
परमात्मस्वरूप के ध्यान का उपाय―परमात्मस्वरूप का ध्यान कैसे बने? तो ध्यान का आधार है ज्ञान और वह ज्ञान जब सही रूप में प्रकट होता है अर्थात् यह हितरूप है, ज्ञान का केवल जाननहार बना रहना यह ही मेरा कल्याण है, ऐसी रुचि के साथ जब ज्ञान को ही ज्ञान में लिया जाता है और बाहर ही बाहर यह अम्यास बनता है तो ज्ञान का ज्ञान होता रहता है, वह तो ध्यान है ꠰ इस ध्यान को बाधा देने वाला कौन है ? इन पंचेंद्रिय के विषय के साधनों की रुचि । तो इन्हें आत्मा के ध्यान से हटावो । और विषयों की रुचि कैसे हटे? 5 इंद्रिय और छठा मन, इनके विषय कैसे दूर हों, तो उसके बाहरी उपाय हैं सत्संग, प्रभुभक्ति और स्वाध्याय, और अंतरंग उपाय है अपने को ज्ञानस्वभावमात्र ज्ञान में निरखते रहना । यह धारा बनी रहे, थोड़ी बहुत भंग हो, पुन: उसी में चलता जाये । तो अपने को ज्ञानमात्र निरखते रहना यह है ध्यान की दृढ़ता का वास्तविक उपाय तो इसके लिए व्यवहारधर्म को भी निभाना पड़ेगा । व्यवहारधर्म को निभाने के लिए तीन बातें रख लीजिए (1) प्रभुभक्ति (2) सत्संग और (3) स्वाध्याय । इस प्रभुभक्ति में गुरुभक्ति भी शामिल कर लीजिए, क्योंकि गुरु, रत्नत्रय के धारी पुरुष भी प्रभु के निकट वाले पवित्र आत्मा है । और मुख्यतया प्रभु की भक्ति लीजिये । और साथ ही जो बहुत बड़ी भारी कमी है उसको दूर करें । वह कमी है सत्संग का न मिलना । सत्संग बनायें ꠰ हम पर सांसारिक बातों का असर क्यों पड़ता कि हम सांसारिक बातों से प्रभावित लोगों के सहवास में अधिक समय रहते हैं, यदि संसारशरीर भोगों से विरक्त भेद-विज्ञानी संतजनों के निकट अधिक काल रहें तो हम पर इसका अच्छा प्रभाव पड़ेगा । सो इसका एक ध्यान रखें । अपना थोड़ा बहुत समय सत्संग में बीते । कुसंग में अपना अधिक समय मत बीते, ऐसी अपनी भावना रहना चाहिए, फिर करें अपने आत्मतत्त्व का मनन । मैं क्या हूं? व एक चेतन पदार्थ हूँ, यह जो बाहर चमक-धमक है वह मैं नहीं हूँ । इन बाहरी पदार्थों की परिणति मुझमें नहीं आ सकती । मैं तो दर्शनज्ञानस्वरूपी हूँ, ये बाहरी दिखने वाले पदार्थ ईंट, भींत, दरी आदिक ये कुछ मैं नहीं हूँ,यों अपना महत्त्व निहारे तो अपना परमात्मतत्त्व अपने को मिलेगा और यदि इन भौतिक पदार्थों को महत्त्व दिया, इनकी चमक-धमक को महत्त्व दिया तो अपनी बात अपने में प्रकट न होगी ।
कष्टरहित होने का उपाय आत्मस्वभावानुभव―मैं अमूर्त हूँ, दर्शनज्ञानस्वरूपी हूँ, सहज आनंदमय हूँ, समस्त कष्टों से रहित हूँ, मेरे में कष्ट का स्वभाव नहीं । किसी बाहरी पदार्थ का ख्याल ही न करिये, फिर आपको कोई कष्ट आता हो तो बताओ । जितने भी कष्ट आते हैं वे बाहरी पदार्थों का ख्याल करने से आते हैं । उन बाहरी पदार्थों से मेरा कुछ संबंध है क्या? यदि नहीं है संबंध तो फिर क्यों उनका ख्याल करके मूर्ख बन रहे? उनका लगाव छोड़ें और अपनी महिमा को देखें, वहाँ कष्ट न रहेगा । अपने आपमें बसे हुए सहज अविकार ज्ञानमात्र परमात्म स्वरूप को उस रूप में माने और उसके ध्यान की भीतर भावना रहे, अन्य कुछ धुन न आये तो वह जीव नवीन कर्मों से तो दूर हो जायेगा और पूर्व बंधे हुए कर्मों की निर्जरा करेगा । आज दुनिया भौतिकवाद में बढ़ रही है, पर उन सबको देखकर अपने को यदि आत्महित की भावना है तो अपने चमत्कार की ओर बढ़ना चाहिए । सो जो अपने सहज परमात्मतत्त्व का ध्यान करने वाला है वह योगी कषायों से दूर होता है, नवीन कर्मों का आस्रव नहीं होता, पूर्वबद्धकर्म निर्जीर्ण हो जाते हैं और वह अपने को परमशांतिरूप अनुभव करता है । जितना शेष जीवन रहा वह जीवन ज्ञानभावना में व्यतीत हो तो यह पार हो जायेगा और यदि लोभ-भावना में जीवन गया तो जैसे अनेक भव पाये, व्यर्थ संसरण बढ़ाया ऐसे ही यह जीवन भी व्यर्थ गया समझिये । अपना एक ही निर्णय होना चाहिए कि मुझको तो अपने ज्ञानस्वरूप की भावना ही रखना है, मैं यह हूँ, अन्य नहीं हूँ, मेरा यह स्वरूप वैभव, मेरा अन्य कुछ परमाणुमात्र भी वैभव नहीं है, ऐसे निश्चय वाला पुरुष परमात्मस्वरूप का ध्यान करता है और समस्त संकटों से मुक्त हो जाता है ।