वृक्ष
From जैनकोष
जैनाम्नाय में कल्पवृक्ष व चैत्य वृक्षों का प्रायः कथन आता है। भोगभूमि में मनुष्यों की संपूर्ण आवश्यकताओं को चिंता मात्र से पूरी करने वाले कल्पवृक्ष हैं और प्रतिमाओं के आश्रयभूत चैत्यवृक्ष हैं। यद्यपि वृक्ष कहलाते हैं, परंतु ये सभी पृथिवीकायिक होते हैं, वनस्पति कायिक नहीं।
- कल्पवृक्ष निर्देश
- कल्पवृक्ष का सामान्य लक्षण
तिलोयपण्णत्ति/4/341 गामणयरादि सव्वं ण होदि ते होंति सव्वकप्पतरू। णियणियमणसंकप्पियवत्थूणिं देंति जुगलाणं।341। = इस (भोगभूमि के) समय वहाँ पर गाँव व नगरादिक सब नहीं होते, केवल वे सब कल्पवृक्ष होते हैं, जो जुगलों को अपने-अपने मन की कल्पित वस्तुओं को दिया करते हैं।
- 10 कल्पवृक्षों के नाम निर्देश
तिलोयपण्णत्ति/4/342 पाणंगतूरियंगा भूसणवत्थंगभोयणंगा य। आलयदीवियभायणमालातेजंग आदि कप्पतरू।342। = भोगभूमि में पानांग, तूर्यांग, भूषणांग, वस्त्रांग, भोजनांग, आलयांग, दीपांग, भाजनांग, मालांग और तेजांग आदि कल्पवृक्ष होते हैं।342। ( महापुराण/9/35 ); ( त्रिलोकसार/787 )।
- 10 कल्पवृक्षों के लक्षण
तिलोयपण्णत्ति/4/343-353 पाणं मधुरसुसादं छरसेहिं जुदं पसत्थमइसीदं। बत्तीसभेदजुत्तं पाणंगा देंति तुट्ठिपुट्ठियरं।343। तूरंगा वरवीणापटुपटहमुइंगझल्लरीसंखा। दुंदुभिभंभाभेरीकोहलपहुदाइ देंति तूरग्गा।344। तरओ वि भूसणंगा कंकणकडिसुत्तहारकेयूरा। मंजीरकडयकुंडलतिरीडमउडादियं देंति।345। वत्थंगा णित्तं पडचीणसुवरखउमपहुदिवत्थाणिं। मणणयणाणंदकरं णाणावत्थादि ते देंति।346। सोलसविहमाहारं सोलसमेयाणि वेंजणाणिं पि। चोद्दसविहसोवाइं खज्जाणिं विगुणचउवण्णं ।347। सायाणं च पयारे तेसट्ठीसंजुदाणि तिसयाणि रसभेदा। तेसट्ठी देंति फुडं भोयणंगदुमा।348। सत्थिअणंदावत्तप्पमुहा जे के वि दिव्वपासादा। सोलसभेदा रम्मा देंति हुते आलयंगदुमा।349। दीवंदुमा साहापवालफलकुसुममंकुरादीहिं। दीवा इव पज्जलिदा पासादे देंति उज्जीवं।350। भायणअंगा कंचणबहुरयणविणिम्मियाइ धवलाइं। भिंगारकलसगग्गरिचामरपीढादियं देंति।351। वल्लीतरुगुच्छलदुब्भवाण सोलससहस्सभेदाणं। मालांगदुमा देंति हु कुसुमाणं विविहमालाओ।352 । तेजंगा मज्झंदिणदिणयरकोडीणकिरणसंकासा। णक्खत्तचंदस्रप्पहुदीणं कंतिसंहरणा।353।
महापुराण/9/37-39 मद्यांगा मधुमैरेयसीध्वरिष्टासवादिकान्। रसभेदांस्ततामोदान् वितरंत्यमृतोपमां।37। कामोद्दीपन-साधर्म्यात् मद्यमित्युपचर्यते। तारवो रसभेदोऽयं यः सेव्यो भोगभूमिजैः।38। मदस्य करणं मद्यं पानशौंडैर्यदादृतम्। तद्वर्जनीयमार्याणाम् अंतःकरणमोहदम्।39। = इनमें से पानांग जाति के कल्पवृख भोगभूमिजों को मधुर, सुस्वादु, छह रसों से युक्त, प्रशस्त, अतिशीत और तुष्टि एवं पुष्टि को करने वाले, ऐसे बत्तीस प्रकार के पेय द्रव्य को दिया करते हैं। (इसी का अपर नाम मद्यांग भी है, जिसका लक्षण अंत में किया है)।343। तूर्यांग जाति के कल्पवृक्ष उत्तम वीणा, पटु, पटह, मृदंग, झालर, शंख, दुंदुभि, भंभा, भेरी और काहल इत्यादि भिन्न-भिन्न प्रकार के वादित्रों को देते हैं।344। भूषणांग जाति के कल्पवृक्ष कंकण, कटिसूत्र, हार, केयूर, मंजीर, कटक, कुंडल, किरीट और मुकुट इत्यादि आभूषणों को प्रदान करते हैं।345। वे वस्त्रांग जाति के कल्पवृक्ष नित्य चीनपट एवं उत्तम क्षौमादि वस्त्र तथा अन्य मन और नयनों को आनंदित करने वाले नाना प्रकार के वस्त्रादि देते हैं ।346। भीजनांग जाति के कल्पवृक्ष सोलह प्रकार का आहार व सोलह प्रकार के व्यंजन, चौदह प्रकार के सूप (दाल आदि), एक सौ आठ प्रकार के खाद्य पदार्थ, स्वाद्य पदार्थों के तीन सौ तिरेसठ प्रकार और तिरेसठ प्रकार के रसभेदों को पृथक-पृथक दिया करते हैं।347-348। आलयांग जाति के कल्पवृक्ष, स्वस्तिक और नंद्यावर्त इत्यादिक जो सोलह प्रकार के रमणीय दिव्य भवन होते हैं, उनको दिया करते हैं।349 । दीपांग जाति के कल्पवृक्ष प्रासादों में शाखा, प्रवाल (नवजात पत्र), फल, फूल और अंकुरादि के द्वारा जलते हुए दीपकों के समान प्रकाश देते हैं।350। भाजनांग जाति के कल्पवृक्ष सुवर्ण एवं बहुत से रत्नों से निर्मित धवल झारी, कलश, गागर, चामर और आसनादिक प्रदान करते हैं।351। मालांग जाति के कल्पवृक्ष वल्ली, तरु, गुच्छ और लताओं से उत्पन्न हुए सोलह हजार भेद रूप पुष्पों की विविध मालाओं को देते हैं।352। तेजांग जाति के कल्पवृक्ष मध्य दिन के करोड़ों सूर्यों की किरणों के समान होते हुए नक्षत्र, चंद्र और सूर्यादिक की कांति का संहरण करते हैं।353। ( महापुराण/9/39-48 ) (पानांग जाति के कल्पवृक्ष को मद्यांग भी कहते हैं) इनमें मद्यांग जाति के वृक्ष फैलती हुई सुगंधी से युक्त तथा अमृत के समान मीठे मधु-मैरेय, सीधु, अरिष्ट और आसव आदि अनेक प्रकार के रस देते हैं।37। कामोद्दीपन की समानता होने से शीघ्र ही इन मधु आदि को उपचार से मद्य कहते हैं। वास्तव में ये वृक्षों के एक प्रकार के रस हैं जिन्हें भोगभूमि में उत्पन्न होने वाले आर्य पुरुष सेवन करते हैं।38। मद्यपायी लोग जिस मद्य का पान करते हैं, वह नशा करने वाला है और अंतःकरण को मोहित करने वाला है, इसलिए आर्य पुरुषों के लिए सर्वथा त्याज्य है।39।
’ वृक्षों व कमलों आदि का अवस्थान, विस्तार व चित्र–देखें लोक ।
- लोक में वर्णित सब वृक्ष व कमल आदि पृथिवी कायिक होते हैं
तिलोयपण्णत्ति/4 गाथा नं. गंगाणईण मज्झे उव्भासदि एउ मणिमओ कूडो।205। वियलियकमलायारो रम्मो वेरुलियणालसंजुत्तो।...।206। चामीयरकेसरेहिं संजुत्ते।207। ते सव्वे कप्पदुमा ण बणप्फदी णो वेंतरा सव्वे। णवरिं पुढविसरूवा पुण्णफलं देंति जीवाणं।354। सहिदो वियसिअकुसुमेहिं सुहसंचयरयणरचिदेहिं।1659। दहमज्झे अरविंदयणालं बादालकोसमुव्विद्धं। इगिकोसं बाहल्लं तस्स मुणालं ति रजदमयं।1667। कंदो यरिट्ठरयणं णालो वेरुलियरयणणिम्मविदो। तस्सुवरिं दरवियसियपउमं चउकोसमुव्विद्धं।1668। सोहेदि तस्स खंधो फुरंतवरकिरणपुस्सरागमओ ।2155 । साहासुं पत्ताणिं मरगयवेरुलियणीलइंदाणिं। विविहाइं कक्केयणचामीयर-व्रिद्दुममयाणिं।2157। सम्मलितरुणो अंकुर कुसुमफलाणिं विचित्तरयणाणिं। पणपवण्णसोहिदाणिं णिरुवमरूवाणि रेहंति।2158। सामलिरुक्खसरिच्छं जंबूरुक्खाण वण्णणं सयलं।2196।
तिलोयपण्णत्ति/8/405 सयलिंदमंदिराणं पुरदो णग्गोहपायवा होंति। एक्केक्कं पुढमिमया पुव्वोदिद जंबुदुमसरिसा।405 । =- गंगा नदी के बीच में एक मणिमय कूट प्रकाशमान है।205। यह मणिमय कूट विकसित कमल के आकार, रमणीय और वैडूर्यमणि नाल से संयुक्त है।206। यह सुवर्णमय पराग से संयुक्त है।207। ( तिलोयपण्णत्ति/4/353-355 )।
- ये सब कल्पवृक्ष न तो वनस्पति ही हैं और न कोई व्यंतर देव हैं, किंतु विशेषता यह है कि ये सब पृथिवीरूप होते हुए जीवों को उनके पुण्य कर्म का फल देते हैं।354। ( महापुराण/9/49 ); ( अनगारधर्मामृत/1/38/58 पर उद्धृत।
- पद्म द्रह शुभ संचय युक्त रत्नों से रचे गये विकसित फूलों से सहित है।1659। तालाब के मध्य में व्यालीस कोस ऊँचा और एक कोस मोटा कमल का नाल है। इसका मृणाल रजतमय और तीन कोस बाहल्य से युक्त है।1667। उस कमल का कंद अरिष्ट रत्नमय और नाल वैडूर्य मणि से निर्मित है। इसके ऊपर चार कोस ऊँचा विकसित पद्म है।1668। (सो कमल पृथिवी साररूप है वनस्पति रूप नाहीं है–( त्रिलोकसार/ भाषाकार)। ( त्रिलोकसार/569 )।
- उस शाल्मली वृक्ष का प्रकाशमान और उत्तम किरणों से संयुक्त पुखराजमय स्कंध शोभायमान है।2155। उसकी शाखाओं में मरकत, वैडूर्य, इंद्रनील, कर्केतन, सुवर्ण और मूँगे से निर्मित विविध प्रकार के पत्ते हैं।2157। शाल्मली वृक्ष के विचित्र रत्नस्वरूप और पाँच वर्णों से शोभित अनुपम रूप वाले अंकुर, फूल एवं फल शोभायमान हैं।2158। जंबूवृक्षों का संपूर्ण वर्णन शाल्मली वृक्षों के ही समान है।2196।
- समस्त इंद्र मंदिरों के आगे न्यग्रोध वृक्ष होते हैं। इनमें एक एक वृक्ष पृथिवीस्वरूप और पूर्वोक्त जंबूवृक्ष के सदृश है। (8/404)।
सर्वार्थसिद्धि/3/ सूत्र/पृष्ट/पंक्ति उत्तरकुरूणां मध्ये जंबूवृक्षेऽनादिनिधनः पृथिवीपरिणामोऽकृत्रिमः सपरिवारः। (9/212/9) जंबूद्वीपे यत्र जंबूवृक्षः स्थितः, तत्र धातकीखंडे धातकीवृक्षः सपरिवारः। (33/227/6)। यत्र जंबूवृक्षस्तत्र पुष्करं सपरिवारम्। (34/228/4)। = उत्तरकुरु में अनादि निधन, पृथिवी से बना हुआ, अकृत्रिम और परिवार वृक्षों से युक्त जंबूवृक्ष है। जंबूद्वीप में जहाँ जंबूवृक्ष स्थित हैं, धातकी खंड द्वीप में परिवार वृक्षों के साथ वहाँ धातकी वृक्ष स्थित है। और पुष्कर द्वीप में वहाँ अपने परिवार वृक्षों के साथ पुष्कर वृक्ष है।
त्रिलोकसार/648 णाणारयणवसाहा पवालसुमणा मिदिंगसरिसफला। पुढविमया दसतुंगा मज्झग्गे छच्चदुव्वासा। = वह जंबूवृक्ष नाना प्रकार रत्नमयी उपशाखाओं से मूँगा समान फूलों से तथा मृदंग समान फलों से युक्त है। पृथिवीकायमयी है, वनस्पतिरूप नहीं है।
- कल्पवृक्ष का सामान्य लक्षण
- चैत्य वृक्ष निर्देश
- जिन प्रतिमाओं के आश्रय स्थान होते हैं
तिलोयपण्णत्ति/3/38 चेत्ततरूणं मूलं पत्तेक्कं चउदिसासु पंचेव। चेट्ठंति जिणप्पडिमा पलियंकठिया सुरेहि महणिज्जा।38। = चैत्यवृक्षों के मूल में चारों दिशाओं में से प्रत्येक दिशा में पद्मासन से स्थित और देवों से पूजनीय पाँच-पाँच जिन प्रतिमाएँ विराजमान होती हैं।38। ( तिलोयपण्णत्ति/3/137 ); ( त्रिलोकसार/215 )।
तिलोयपण्णत्ति/4/80 मणिमयजिणपडिमाओ अट्ठमहापडिहेर संजुत्ता। एक्केक्कसिं चेत्तद्दुमम्मि चत्तारि चत्तारि।807। = एक-एक चैत्य वृक्ष के आश्रित आठ महाप्रातिहार्यों से संयुक्त चार-चार मणिमय जिन प्रतिमाएँ होती हैं।807। ( त्रिलोकसार/254, 1002 )।
- चैत्य वृक्ष का स्वरूप व विस्तार
तिलोयपण्णत्ति/3/31-36 तव्वाहिरे असोयं सत्तच्छदचंपचूदवणपुण्णा। णियणाणातरुजुत्ता चेट्टंति चेत्ततरुसहिदा।31। चेत्तदुमत्थलरुं दं दोण्णि समा जोयणाणि पण्णासा। चत्तारो मज्झम्मि य अंते कोसद्धमुच्छेहो।32। छद्दोभूमुहरुंदा चउजोयण उच्छिदाणि पीढाणि। पीढोवरि बहुमज्झे रम्मा चेट्ठंति चेत्तदुमा।33। पत्तेकं रुक्खाणं अवगाढं कासमेक्कमुद्दिट्ठं। जोयणखंदुच्छेहो साहादीहत्तणं च चत्तरि।34। विविहवररयणसाहा विचित्तकुसुमोवसोभिदा सव्वे। वरमरगयवरपत्ता दिव्वतरू ते विरायंति।35।वहिंकुरुचेंचइया विविहफला विविहरयणपरिणामा। छत्तादिछत्तजुत्ता घंटाजालादिरमणिज्जा।36। = भवनवासी देवों के भवनों के बाहर वेदियाँ है। वेदियों के बाह्य भाग में चैत्यवृक्षों से सहित और अपने नाना वृक्षों से युक्त पवित्र अशोक वन, सप्तच्छदवन, चंपकवन और आम्रवन स्थित हैं।31। चैत्यवृक्षों के स्थल का विस्तार 250 योजन तथा ऊँचाई मध्य में चार योजन और अंत में अर्द्ध कोसप्रमाण होती है।32। पीठों की भूमि का विस्तार छह योजन और ऊँचाई चार योजन होती है। इन पीठों के ऊपर बहुमध्य भाग में रमणीय चैत्यवृक्ष स्थित होते हैं।33। प्रत्येक वृक्ष का अवगाढ़ एक कोस, स्कंध का उत्सेध एक योजन और शाखाओं की लंबाई योजन प्रमाण कही गयी है।34। वे सब दिव्य वृक्ष विविध प्रकार के उत्तम रत्नों की शाखाओं से युक्त, विचित्र पुष्पों से अलंकृत और उत्कृष्ट मरकत मणिमय उत्तम पत्रों से व्याप्त होते हुए अतिशय शोभा को प्राप्त होते हैं।35। विविध प्रकार के अंकुरों से मंडित, अनेक प्रकार के फलों से युक्त, नाना प्रकार के रत्नों से निर्मित छत्र के ऊपर छत्र से संयुक्त घंटाजाल आदि से रमणीय है।36।
तिलोयपण्णत्ति/4/806-814 का भावार्थ 2.समवशरणों में स्थित चैत्यवृक्षों के आश्रित तीन-तीन कोटों से वेष्टित तीन पीठों के ऊपर चार-चार मानस्तंभ होते हैं।809। जो वापियों, क्रीडनशालाओं व नृत्यशालाओं व उपवनभूमियों से शोभित हैं।810-812। (इसका चित्र देखें समवशरण ) चैत्य वृक्षों की ऊँचाई अपने-अपने तीर्थंकरों की ऊँचाई से 12 गुणी है।806।
- चैत्यवृक्ष पृथिवीकायिक होते हैं
तिलोयपण्णत्ति/4/37 आदिणिहणेण हीणा पृढविमया सव्वभवणचेत्तदुमा। जीवुप्पत्तिलयाणं होंति णिमित्तणि ते णियमा।37। = (भवनवासी देवों के भवनों में स्थित) ये सब चैत्यवृक्ष आदिअंत से रहित तथा पृथिवीकाय के परिणामरूप होते हुए नियम से जीवों की उत्पत्ति और विनाश के निमित्त होते हैं।37। इसी प्रकार पांडुकवन के चैत्यालय में तथा व्यंतरदेवों के भवनों में स्थित जो चैत्यवृक्ष हैं उनके संबंध में भी जानना।] ( तिलोयपण्णत्ति/4/1908 ); ( तिलोयपण्णत्ति/6/29 ) (और भी देखें ऊपर का शीर्षक )।
- चैत्यवृक्षों के भेद निर्देश
तिलोयपण्णत्ति/3/136 सस्सत्थसत्तवण्णा संमलजंबू य वेतसकंडवा। तह पीयंगुसरिसा पलासरायद्दूमा कमसो।136।
तिलोयपण्णत्ति/6/28 कमसो असोयचंपयणागद्दुमतुंबूर य णग्गोहे। कंटयरुक्खो तुलसी कदंब विदओ त्ति ते अट्ठं।28। = असुरकुमारादि दस प्रकार के भवनवासी देवों के भवनों में क्रम से -अश्वत्थ (पीपल), सप्तपर्ण, शाल्मली, जामुन, वेतस, कदंब तथा प्रियंगु, शिरीष, पलाश और राजद्रुम ये दश प्रकार के चैत्यवृक्ष होते हैं।136। किन्नर आदि आठ प्रकार के व्यंतर देवों के भवनों में क्रम से–अशोक, चंपक, नागद्रुम, तंबूरु, न्यग्रोध (वट), कंटकवृक्ष, तुलसी और कदंब वृक्ष ये आठ प्रकार के होते हैं।28।
तिलोयपण्णत्ति/4/805 एक्केकाए उववणखिदिए तरवो यसोयसत्तदला। चंपयचूदा सुंदरभूदा चत्तारि चत्तारि।805। = समवशरणों में ये अशोक, सप्तच्छद, चंपक व आम्र ऐसे चार प्रकार के होते हैं।805।
- चैत्यवृक्ष देवों के चिह्न स्वरूप हैं
तिलोयपण्णत्ति/4/135 ओलगसालापुरदो चेत्तदुमा होंति विविहरयणमया। असुरप्पहुदि कुलाणं ते चिण्हाइं इमा होंति।135। = (भवनवासी देवों के भवनों में) ओलगशालाओं के आगे विविध प्रकार के रत्नों से निर्मित चैत्यवृक्ष होते हैं। वे ये चैत्यवृक्ष असुरादि देवों के कुलों से चिह्नरूप होते हैं।
- अशोकवृक्ष निर्देश
तिलोयपण्णत्ति/4/915-919 जेसिं तरूणमूले उप्पण्ण जाण केवलं णाणं। उपसहप्पहुदिजिणाणं ते चिय असोयरुक्ख त्ति।915। णग्गोहसत्तपण्णं सालं सरलं पियंगु तं चेव। सिरिसं णागतरू वि य अक्खा धूली पलास तेंदूवं।916। पाडलजंबूपिप्पलदहिवण्णो णंदितिलयचूदा य। कंकल्लि चंपबउलं मेसयसिंगं धवं सालं।917। सोहंति असोयतरू पल्लवकुसुमाणदाहि साहाहिं। लंबंतमालदामा घंटाजालादिरमणिज्जा।918। णियणियजिणउदएणं बारसगुणिदेहिं सरिसउच्छेहा। उसहजिणप्पहुदीणं असोयरुक्खा वियरंति।919। = ऋषभ आदि तीर्थंकरों को जिनवृक्षों के नीचे केवलज्ञान उत्पन्न हुआ है (देखें तीर्थंकर - 5) वे ही अशोकवृक्ष हैं।915। न्यग्रोध, सप्तपर्ण, साल, सरल, प्रियंगु, शिरीष, नागवृक्ष, अक्ष (बहेड़ा), धूलिपलाश, तेंदू, पाटल, जंबू, पीपल, दधिपर्ण, नंदी, तिलक, आम्र, कंकेलि (अशोक), चंपक, बकुल, मेषशृंग, धव और शाल ये 24 तीर्थंकरों के 24 अशोकवृक्ष हैं, जो लटकती हुई मालाओं से युक्त और घंटासमूहादिक से रमणीक होते हुए पल्लव एवं पुष्पों से झुकी हुई शाखाओं से शोभायमान होते हैं।916-918। ऋषभादि तीर्थंकरों के उपर्युक्त चौबीस अशोकवृक्ष बारह से गुणित अपने-अपने जिनकी (तीर्थंकर की) ऊँचाई से युक्त होते हुए शोभायमान हैं।919। प्रत्येक तीर्थंकर की ऊँचाई–देखें तीर्थंकर - 5।
- जिन प्रतिमाओं के आश्रय स्थान होते हैं