स्थावर: Difference between revisions
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<p class="HindiText"> | == सिद्धांतकोष से == | ||
वर्धमान भगवान् का पूर्व का | <p class="HindiText"> | ||
वर्धमान भगवान् का पूर्व का 18वाँ भव-देखें [[ वर्धमान ]]।</p> | |||
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<span class="HindiText">पृथिवी अप आदि काय के एकेन्द्रिय जीव अपने स्थान पर स्थित रहने के कारण अथवा स्थावर नामकर्म के उदय से स्थावर कहलाते हैं। ये जीव सूक्ष्म व बादर दोनों प्रकार के होते हुए सर्व लोक में पाये जाते हैं।</span></p> | <span class="HindiText">पृथिवी अप आदि काय के एकेन्द्रिय जीव अपने स्थान पर स्थित रहने के कारण अथवा स्थावर नामकर्म के उदय से स्थावर कहलाते हैं। ये जीव सूक्ष्म व बादर दोनों प्रकार के होते हुए सर्व लोक में पाये जाते हैं।</span></p> | ||
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<strong id="1"> | <strong id="1">1. स्थावर जीवों का लक्षण</strong></p> | ||
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<span class="SanskritText">स.सि./ | <span class="SanskritText">स.सि./2/12/171/4 स्थावरनामकर्मोदयवशवर्तिन: स्थावरा:।</span> = <span class="HindiText">स्थावर नामकर्म के उदय से जीव स्थावर कहलाते हैं। (रा.वा./2/12/13/126/28)।</span></p> | ||
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<span class="PrakritText">ध. | <span class="PrakritText">ध.1/1,1,33/गा.135/239 जाणदि पस्सदि भुंजदि सेवदि पस्सिंदिएण एक्केण। कुणदि य तस्सामित्तं थावरु एइंदिओ तेण।135।</span> = <span class="HindiText">स्थावर जीव एक स्पर्शन इन्द्रिय के द्वारा ही जानता है, देखता है, खाता है, सेवन करता है और उसका स्वामीपना करता है, इसलिए उसे एकेन्द्रिय स्थावर जीव कहा है।135।</span></p> | ||
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<span class="SanskritText">ध. | <span class="SanskritText">ध.1/1,1,39/265/6 एते पञ्चापि स्थावरा: स्थावरनामकर्मोदयजनितविशेषत्वात् ।</span> = <span class="HindiText">स्थावर नामकर्म के उदय से उत्पन्न हुई विशेषता के कारण ये पाँचों ही स्थावर कहलाते हैं।</span></p> | ||
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<strong id="2"> | <strong id="2">2. स्थावर नामकर्म का लक्षण</strong></p> | ||
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<span class="SanskritText">स.सि./ | <span class="SanskritText">स.सि./8/11/391/10 यन्निमित्त एकेन्द्रियेषु प्रादुर्भावस्तत्स्थावरनाम।</span> = <span class="HindiText">जिसके उदय से एकेन्द्रियों में उत्पत्ति होती है वह स्थावर नामकर्म है। (रा.वा./8/11/22/578/29); (गो.क./जी.प्र./33/30/13)।</span></p> | ||
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<span class="PrakritText">ध. | <span class="PrakritText">ध.6/1,9-1,28/61/6 जस्स कम्मस्स उदएण जीवो थावरत्तं पडिवज्जदि तस्स कम्मस्स थावरसण्णा। जदि थावरणामकम्मं ण होज्ज, तो थावरजीवाणमभावाणो होज्ज। ण च एवं तेसिमुवलंभा।</span> = <span class="HindiText">जिस कर्म के उदय से स्थावरपने को प्राप्त होता है, उस कर्म की स्थावर वह संज्ञा है। यदि स्थावर नामकर्म न हो, तो स्थावर जीवों का अभाव हो जायेगा। किन्तु ऐसा नहीं है। (ध.13/5,5,101/365/4)।</span></p> | ||
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<strong>* स्थावर नामकर्म के असंख्यातों भेद सम्भव हैं</strong>-देखें | <strong>* स्थावर नामकर्म के असंख्यातों भेद सम्भव हैं</strong>-देखें [[ नामकर्म ]]।</p> | ||
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<strong>* स्थावर नामकर्म की बन्ध उदय व सत्त्व प्ररूपणाएँ-</strong> | <strong>* स्थावर नामकर्म की बन्ध उदय व सत्त्व प्ररूपणाएँ-</strong>देखें [[ वह वह नाम ]]।</p> | ||
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<strong id="3"> | <strong id="3">3. स्थावर जीवों के भेद</strong></p> | ||
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<span class="PrakritText">पं.का./मू./ | <span class="PrakritText">पं.का./मू./110 पुढवी य उदगमगणी वाउ वणप्फदि जीवसंसिदा काया।...।110।</span> = <span class="HindiText">पृथ्वीकाय, अप्काय, अग्निकाय, वायुकाय, और वनस्पतिकाय यह कायें जीव सहित हैं।110। (मू.आ./205); (न.च.वृ./123); (का.अ./124); (द्र.सं./मू./11); (स्या.म./29/329/23)।</span></p> | ||
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<strong id="4"> | <strong id="4">4. स्थावर जीव एकेन्द्रिय ही होते हैं</strong></p> | ||
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<span class="PrakritText">पं.का./मू./ | <span class="PrakritText">पं.का./मू./110 देंति खलु मोहबहुलं फासं बहुगा वि ते तेसिं।110।</span> = <span class="HindiText">(पाँचों स्थावर जीवों की अवान्तर जातियों की अपेक्षा) उनकी भारी संख्या होने पर भी वे सभी उनमें रहने वाले जीवों की वास्तव में अत्यन्त मोह से संयुक्त स्पर्श देती हैं (अर्थात् स्पर्श ज्ञान में निमित्त होती हैं।)</span></p> | ||
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<span class="PrakritText">ध. | <span class="PrakritText">ध.1/1,1,33/गा.135/239 जाणदि पस्सदि भुंजदि सेवदि पस्सिंदिएण एक्केण। कुणदि य तस्सामित्तं थावरु एइंदियो तेण।135।</span> = <span class="HindiText">क्योंकि स्थावर जीव एक स्पर्शन इन्द्रिय के द्वारा ही जानता है, देखता है, खाता है, सेवन करता है और उसका स्वामीपना करता है, इसलिए उसे एकेन्द्रिय स्थावर जीव कहा गया है।135।</span></p> | ||
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<strong id="5"> | <strong id="5">5. स्थावर जीवों में जीवत्व की सिद्धि</strong></p> | ||
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<span class="PrakritText">पं.का./मू.व प्र./ | <span class="PrakritText">पं.का./मू.व प्र./113 अंडेसु पवड्ढंता गब्भत्था माणुसा य मुच्छगया। जारिसया तारिसया जीवा एगेंदिया णेया।113।</span> | ||
<span class="SanskritText">एकेन्द्रियाणां चैतन्यास्तित्वे दृष्टान्तोपन्यासोऽयम् । अण्डान्तर्लीनानां, गर्भस्थानां, मूर्च्छितानां च बुद्धिपूर्वकव्यापारादर्शनेऽपि येन प्रकारेण जीवत्वं निश्चीयते, तेन प्रकारेणैकेन्द्रियाणामपि, उभयेषामपि बुद्धिपूर्वकव्यापारादर्शनस्य समानत्वादिति।</span> = <span class="HindiText">अण्डे में वृद्धि पाने वाले प्राणी, गर्भ में रहे हुए प्राणी और मूर्च्छा प्राप्त मनुष्य, जैसे हैं, वैसे एकेन्द्रिय जीव | <span class="SanskritText">एकेन्द्रियाणां चैतन्यास्तित्वे दृष्टान्तोपन्यासोऽयम् । अण्डान्तर्लीनानां, गर्भस्थानां, मूर्च्छितानां च बुद्धिपूर्वकव्यापारादर्शनेऽपि येन प्रकारेण जीवत्वं निश्चीयते, तेन प्रकारेणैकेन्द्रियाणामपि, उभयेषामपि बुद्धिपूर्वकव्यापारादर्शनस्य समानत्वादिति।</span> = <span class="HindiText">अण्डे में वृद्धि पाने वाले प्राणी, गर्भ में रहे हुए प्राणी और मूर्च्छा प्राप्त मनुष्य, जैसे हैं, वैसे एकेन्द्रिय जीव जानना।113। यह एकेन्द्रियों को चैतन्य का अस्तित्व होने सम्बन्धी दृष्टान्त का कथन है। अण्डे में रहे हुए प्राणी, गर्भ में रहे हुए और मूर्च्छा पाये हुए के जीवत्व का, उन्हें बुद्धिपूर्वक व्यापार नहीं देखा जाता तथापि, जिस प्रकार निश्चय किया जाता है, उसी प्रकार एकेन्द्रियों के जीवत्व का भी निश्चय किया जाता है; क्योंकि दोनों में बुद्धिपूर्वक व्यापार का अदर्शन है</span>।</p> | ||
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<span class="SanskritText">रा.वा./ | <span class="SanskritText">रा.वा./1/4/15-16/26/17 यद्येवं वनस्पत्यादीनामजीवत्वं प्राप्नोति तदभावात् । ज्ञानादीनां हि प्रवृत्तित उपलब्धि:, न च तेषां तत्पूर्विका प्रवृत्तिरस्ति हिताहितप्राप्तिपरिवर्जनाभावात् । उक्तं च-बुद्धिपूर्वां क्रियां इष्ट्वा स्वदेहेऽन्यत्र तद्ग्रहात् । मन्यते बुद्धिसद्भाव: सा न येषु न तेषु धी:। [सन्ताना.सि.श्लो] इति नैष: दोष:, तेषामपि ज्ञानादय: सन्ति सर्वज्ञप्रत्यक्षा:, इतरेषामागमगम्या:। आहारलाभालाभयो: पुष्टिम्लानादिदर्शनेन युक्तिगम्याश्च। अण्डगर्भस्थमूर्च्छितादिषु सत्यपि जीवत्वे तत्पूर्वकप्रवृत्त्यभावात् हेतुव्यभिचार:।</span> = <span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>-(जिसमें चेतनता न पायी जाये सो अजीव है) यदि ऐसा है तो वनस्पति आदिकों में अजीवत्व की प्राप्ति होती है। क्योंकि उनमें चेतनता का अभाव है। ज्ञानादिक की प्रवृत्ति से ही उसकी उपलब्धि होती है। परन्तु वनस्पति आदि में बुद्धिपूर्वक प्रवृत्ति नहीं देखी जाती, क्योंकि उनमें हित के ग्रहण व अहित के त्याग का अभाव है। कहा भी है-अपने शरीर में बुद्धि क्रिया बुद्धि के रहते ही देखी जाती है, वैसी क्रिया यदि अन्यत्र हो तो वहाँ भी बुद्धि का सद्भाव मानना चाहिए, अन्यथा नहीं ? <strong>उत्तर</strong>-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि वनस्पति आदि में ज्ञानादि का सद्भाव है। इसको सर्वज्ञ तो अपने प्रत्यक्ष ज्ञान से जानते हैं और हम लोग आगम से। खान पान आदि के मिलने पर पुष्टि और न मिलने पर मलिनता देखकर उनमें चैतन्य का अनुमान भी होता है। गर्भस्थ जीव मूर्च्छित और अण्डस्थ जीव में बुद्धि पूर्वक स्थूल क्रिया भी दिखाई नहीं देती, अत: न दीखने मात्र से अभाव नहीं किया जा सकता।</span></p> | ||
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<span class="SanskritText">स्या.म./ | <span class="SanskritText">स्या.म./29/330/10 पृथिव्यादीनां पुनर्जीवत्वमित्थं साधनीयम् । यथा सात्मिका विद्रुमशिलादिरूपा पृथिवी, छेदे समानधातूत्थानाद्, अर्शोऽङ्कुरवत् । भौममम्भोऽपि सात्मकम्, क्षतभूसजातीयस्य स्वभावस्य संभवात्, शाजूरवत् । आन्तरिक्षमपि सात्मकम्, अभ्रादिविकारे स्वत: संभूय पातात्, मत्स्यादिवत् । तेजोऽपि सात्मकम्, आहारोपादानेन वृद्धयादिविकारोपलम्भात्, पुरुषाङ्गवत् । वायुरपि सात्मक:, अपरप्रेरितत्वे तिर्यग्गतिमत्त्वाद् गोवत् । वनस्पतिरपि सात्मक: छेदादिभिर्म्लान्यादिदर्शनात्, पुरुषाङ्गवत् । केषांचित् स्वापाङ्गनोपश्लेषादिविकाराच्च। अप्रकर्षतश्चैतन्याद् वा सर्वेषां सात्मकत्वसिद्धि:। आप्तवचनाच्च। त्रसेषु च कृमिपिपीलिकाभ्रमरमनुष्यादिषु न केषांचित् सात्मकत्वे विगानमिति।</span> = <span class="HindiText">1. मूंगा पाषाणादि रूप पृथिवी सजीव है, क्योंकि डाभ के अंकुर की तरह पृथिवी के काटने पर वह फिर से ऊग जाती है। 2. पृथिवी का जल सजीव है, क्योंकि मैंढक की तरह जल का स्वभाव खोदी हुई पृथिवी के समान है। आकाश का जल भी सजीव है, क्योंकि मछली की तरह बादल के विकार होने पर स्वत: ही उत्पन्न होता है। 3. अग्नि भी सजीव है, क्योंकि पुरुष के अंगों की तरह आहार आदि के ग्रहण करने से उसमें वृद्धि होती है। 4. वायु में भी जीव है, क्योंकि गौ की तरह वह दूसरे से प्रेरित, होकर गमन करती है। 5. वनस्पति में भी जीव है, क्योंकि पुरुष के अंगों की तरह छेदने से उसमें मलिनता देखी जाती है। कुछ वनस्पतियों में स्त्रियों के पादाघात आदि से विकार होता है, इसलिए भी वनस्पति में जीव है। अथवा जिन जीवों में चेतना घटती हुई देखी जाती है, वे सब सजीव हैं। सर्वज्ञ भगवान् ने पृथिवी आदि को जीव कहा है। 6. कृमि, पिपीलिका, भ्रमर, मनुष्य आदि त्रस जीवों में सभी लोगों ने जीव माना है।</span></p> | ||
<p class="HindiText"> | <p class="HindiText"> | ||
<strong id="6"> | <strong id="6">6. स्थावरों में कथंचित् त्रसपना</strong></p> | ||
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<span class="PrakritText">पं.का./मू. व ता.वृ./ | <span class="PrakritText">पं.का./मू. व ता.वृ./111 तित्थावरतणुजोगा अणिलाणलकाध्याय तेसु तसा।...।111।</span> | ||
<span class="SanskritText">अथ व्यवहारेणग्निवातकायिकानां त्रसत्वं दर्शयति-पृथिव्यब्वनस्पतयस्त्रय: स्थावरकाययोगात्संबन्धात्स्थावरा भण्यन्ते अनलानिलकायिका: तेषु पञ्चस्थावरेषु मध्ये चलनक्रियां दृष्ट्वा व्यवहारेण त्रसा भण्यन्ते।</span> = <span class="HindiText">अब व्यवहार से अग्नि और वातकायिकों के त्रसत्व दर्शाते हैं-पृथिवी, अप् और वनस्पति ये तीन तो स्थावर अर्थात् स्थिर योग सम्बन्ध के कारण स्थावर कहे जाते हैं। परन्तु अग्नि व वायुकायिक उन पाँच स्थावरों में ऐसे हैं जिनमें चलन क्रिया देखकर व्यवहार से त्रस भी कह देते हैं।</span></p> | <span class="SanskritText">अथ व्यवहारेणग्निवातकायिकानां त्रसत्वं दर्शयति-पृथिव्यब्वनस्पतयस्त्रय: स्थावरकाययोगात्संबन्धात्स्थावरा भण्यन्ते अनलानिलकायिका: तेषु पञ्चस्थावरेषु मध्ये चलनक्रियां दृष्ट्वा व्यवहारेण त्रसा भण्यन्ते।</span> = <span class="HindiText">अब व्यवहार से अग्नि और वातकायिकों के त्रसत्व दर्शाते हैं-पृथिवी, अप् और वनस्पति ये तीन तो स्थावर अर्थात् स्थिर योग सम्बन्ध के कारण स्थावर कहे जाते हैं। परन्तु अग्नि व वायुकायिक उन पाँच स्थावरों में ऐसे हैं जिनमें चलन क्रिया देखकर व्यवहार से त्रस भी कह देते हैं।</span></p> | ||
<p class="HindiText"> | <p class="HindiText"> | ||
<strong id="7"> | <strong id="7">7. स्थावर के लक्षण सम्बन्धी शंका समाधान</strong></p> | ||
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<span class="SanskritText">रा.वा./ | <span class="SanskritText">रा.वा./2/12/4-5/127/1 स्यादेतत्-तिष्ठन्तीत्येवं शीला: स्थावरा इति। तन्न; किं कारणम् । वाय्वादीनामस्थावरत्वप्रसंगात् । वायुतेजोऽम्भसां हि देशान्तरप्राप्तिदर्शनादस्थावरत्वं स्यात् । कथं तर्ह्यस्य निष्पत्ति:-‘स्थानशीला: स्थावरा:’ इति। एवं रूढिविशेषबललाभात् । क्वचिदेव वर्तते।4। अथ मतमेतत्-इष्टमेव वाय्वादीनामस्थावरत्वमिति; तन्न: किं कारणम् । समयार्थानवबोधात् । एवं हि समयोऽवस्थित: सत्प्ररूपणायां कायानुवादे ‘‘त्रसा नाम द्वीन्द्रियादारभ्य आ अयोगिकेवलिन: (ष.खं.1/101/सू.44/175)।’’ तस्मान्न चलनाचलनापेक्षं त्रसस्थावरत्वं कर्मोदयापेक्षमेवेति स्थितम् ।</span> = <span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>-‘जो ठहरे सो, स्थावर’ ऐसा क्यों नहीं कहते? <strong>उत्तर</strong>-नहीं, क्योंकि, वायु आदिकों में अस्थावरत्व का प्रसंग आता है। वायु अग्नि और जल की देशान्तर प्राप्ति देखी जाती है। इससे वे अस्थावर समझे जायेंगे। <strong>प्रश्न</strong>-फिर इस स्थावर शब्द की ‘जो ठहरे सो स्थावर’ ऐसी निष्पत्ति कैसे हो सकती है ? <strong>उत्तर</strong>-यह तो रूढि विशेष के बल से क्वचित् देखने में आता है। <strong>प्रश्न</strong>-वायु आदिक अस्थावर होते हैं तो हो जाओ, क्योंकि यह तो हमें इष्ट है ? <strong>उत्तर</strong>-ऐसा नहीं है, क्योंकि आगम के साथ विरोध आता है। षट् खण्डागम सत्प्ररूपणा के कायानुवाद में ऐसा वचन अवस्थित है कि ‘द्वीन्द्रिय से लेकर अयोग केवलि तक जीवों को त्रस कहते हैं।’ अत: वायु आदिकों को स्थावर की कोटि से निकालकर त्रस कोटि में लाना उचित नहीं है। इसलिए वचन और चलन की अपेक्षा त्रस और स्थावर नहीं किया जा सकता। (स.सि./2/12/171/4); (ध.1/1,1,39/265/6)</span></p> | ||
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<span class="SanskritText">ध. | <span class="SanskritText">ध.1/1,1,44/276/1 स्थावरकर्मण: किं कार्यमिति चेदेकस्थानावस्थापकत्वम् । तेजोवाय्वप्कायानां चलनात्मकानां तथा सत्यस्थावरत्वं स्यादिति चेन्न, स्थास्नूनां प्रयोगतश्चलच्छिन्नपर्णानामिव गतिपर्यायपरिणतसमीरणाव्यतिरिक्तशरीरत्वतस्तेषां गमनाविरोधात् ।</span> = <span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>-स्थावर कर्म का क्या कार्य है ? <strong>उत्तर</strong>-एक स्थान पर अवस्थित रखना स्थावर कर्म का कार्य है। <strong>प्रश्न</strong>-ऐसा मानने पर, गमन स्वभाव वाले अग्निकायिक वायुकायिक और जलकायिक जीवों को अस्थावरपना प्राप्त हो जायगा ? <strong>उत्तर</strong>-नहीं, क्योंकि, जिस प्रकार वृक्ष में लगे हुए पत्ते वायु से हिला करते हैं और टूटने पर इधर-उधर उड़ जाते हैं, उसी प्रकार अग्निकायिक और जलकायिक के प्रयोग से गमन मानने में कोई विरोध नहीं आता है। तथा वायु के गति पर्याय से परिणत शरीर को छोड़कर कोई दूसरा शरीर नहीं पाया जाता है इसलिए उसके गमन करने में भी कोई विरोध नहीं आता है।</span></p> | ||
<p class="HindiText"> | <p class="HindiText"> | ||
<strong id="8"> | <strong id="8">8. त्रस व स्थावर में भेद बताने का प्रयोजन</strong></p> | ||
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<span class="SanskritText">द्र.सं./टी./ | <span class="SanskritText">द्र.सं./टी./11/29/6 अयमत्रार्थ:-विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावनिजपरमात्मस्वरूपभावनोत्पन्नपारमार्थिकसुखमलभमाना इन्द्रियसुखासक्ता एकेन्द्रियादिजीवानां वधं कृत्वा त्रसस्थावरा भवन्तीत्युक्तं पूर्वं तस्मात्त्रसस्थावरोत्पत्तिविनाशार्थं तत्रैव परमात्मनि भावना कर्त्तव्येति।</span> = <span class="HindiText">सारांश यह है कि निर्मल ज्ञान, दर्शन स्वभाव निज परमात्म स्वरूप की भावना से उत्पन्न जो पारमार्थिक सुख है उसको न पाकर जीव इन्द्रियों के सुख में आसक्त होकर जो एकेन्द्रियादि जीवों की हिंसा करते हैं उससे त्रस तथा स्थावर होते हैं, ऐसा पहले कह चुके हैं, इस कारण त्रस स्थावरों में उत्पत्ति होती है, सबको मिटाने के लिए उसी पूर्वोक्त प्रकार से परमात्मा की भावना करनी चाहिए।</span></p> | ||
<p class="HindiText"> | <p class="HindiText"> | ||
<strong>* स्थावरों को सत् संख्या क्षेत्र स्पर्शन काल अन्तर भाव अल्प बहुत्व रूप आठ प्ररूपणाएँ</strong>- | <strong>* स्थावरों को सत् संख्या क्षेत्र स्पर्शन काल अन्तर भाव अल्प बहुत्व रूप आठ प्ररूपणाएँ</strong>-देखें [[ वह वह नाम ]]।</p> | ||
<p class="HindiText"> | <p class="HindiText"> | ||
<strong>* स्थावरों में गुणस्थान जीवसमास, मार्गणास्थानों के स्वामित्व विषयक | <strong>* स्थावरों में गुणस्थान जीवसमास, मार्गणास्थानों के स्वामित्व विषयक 20 प्ररूपणाएँ</strong>-देखें [[ सत् ]]।</p> | ||
<p class="HindiText"> | <p class="HindiText"> | ||
<strong>* मार्गणा प्रकरण में भाव मार्गणा की इष्टता तथा वहाँ आय व व्यय का संतुलन</strong>-देखें | <strong>* मार्गणा प्रकरण में भाव मार्गणा की इष्टता तथा वहाँ आय व व्यय का संतुलन</strong>-देखें [[ मार्गणा ]]।</p> | ||
<p class="HindiText"> | <p class="HindiText"> | ||
<strong>* स्थावर जीवों में प्राणों का स्वामित्व</strong>- देखें | <strong>* स्थावर जीवों में प्राणों का स्वामित्व</strong>-देखें [[ प्राण#1 | प्राण - 1]]।</p> | ||
<p class="HindiText"> | <p class="HindiText"> | ||
<strong id="9"> | <strong id="9">9. स्थावर लोक निर्देश</strong></p> | ||
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<span class="PrakritText">ति.प./ | <span class="PrakritText">ति.प./5/5 जा जीवपोग्गलाणं धम्माधम्मप्पबद्ध आयासे। होंति हु गदागदाणिं ताव ह्वे थावरा लोओ।5।</span> = <span class="HindiText">धर्म व अधर्म द्रव्य से सम्बन्धित जितने आकाश में जीव और पुद्गलों का जाना-आना रहता है उतना स्थावर लोक है।5।</span></p> | ||
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<span class="PrakritText">का.अ./मू./ | <span class="PrakritText">का.अ./मू./122 एइंदिएहिं भरिदो पंच-पयारेहिं सव्वदो लोओ।...।122।</span> = <span class="HindiText">यह लोक पाँच प्रकार के एकेन्द्रियों से सर्वत्र भरा हुआ है।</span></p> | ||
<p class="HindiText"> | <p class="HindiText"> | ||
देखें [[ काय#2.5 | काय - 2.5 ]]बादर, अप्, तेज व वनस्पति कायिक जीव अधोलोक की आठों पृथिवियों व भवनवासियों के विमानों में भी पाये जाते हैं।</p> | |||
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[[ स्थालक | पूर्व पृष्ठ ]] | |||
[[ स्थास्नु | अगला पृष्ठ ]] | |||
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[[Category: स]] | |||
== पुराणकोष से == | |||
<p id="1">(1) भगवान महावीर के अठारहवें पूर्वभव का जीव । यह मगध देश के राजगृह नगर में शाण्डिल्य ब्राह्मण और उसकी स्त्री पारशरी का पुत्र था । इसने परिव्राजक होकर तप किया था । अंत में मरकर यह माहेन्द्र स्वर्ग में देव हुआ । <span class="GRef"> महापुराण 74.84-87, 76. 538, </span><span class="GRef"> वीरवर्द्धमान चरित्र 3. 1-5 </span></p> | |||
<p id="2">(2) एक योनि तथा उसमें उत्पन्न जीव । ये पाँच प्रकार के होते हैं― पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक । <span class="GRef"> महापुराण 74.81, </span><span class="GRef"> पद्मपुराण 105. 141, 149 </span></p> | |||
<p id="3">(3) सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषमदेव का एक नाम । <span class="GRef"> महापुराण 25. 203 </span></p> | |||
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[[ | [[ स्थास्नु | अगला पृष्ठ ]] | ||
[[Category:स]] | </noinclude> | ||
[[Category: पुराण-कोष]] | |||
[[Category: स]] |
Revision as of 21:49, 5 July 2020
== सिद्धांतकोष से ==
वर्धमान भगवान् का पूर्व का 18वाँ भव-देखें वर्धमान ।
पृथिवी अप आदि काय के एकेन्द्रिय जीव अपने स्थान पर स्थित रहने के कारण अथवा स्थावर नामकर्म के उदय से स्थावर कहलाते हैं। ये जीव सूक्ष्म व बादर दोनों प्रकार के होते हुए सर्व लोक में पाये जाते हैं।
1. स्थावर जीवों का लक्षण
स.सि./2/12/171/4 स्थावरनामकर्मोदयवशवर्तिन: स्थावरा:। = स्थावर नामकर्म के उदय से जीव स्थावर कहलाते हैं। (रा.वा./2/12/13/126/28)।
ध.1/1,1,33/गा.135/239 जाणदि पस्सदि भुंजदि सेवदि पस्सिंदिएण एक्केण। कुणदि य तस्सामित्तं थावरु एइंदिओ तेण।135। = स्थावर जीव एक स्पर्शन इन्द्रिय के द्वारा ही जानता है, देखता है, खाता है, सेवन करता है और उसका स्वामीपना करता है, इसलिए उसे एकेन्द्रिय स्थावर जीव कहा है।135।
ध.1/1,1,39/265/6 एते पञ्चापि स्थावरा: स्थावरनामकर्मोदयजनितविशेषत्वात् । = स्थावर नामकर्म के उदय से उत्पन्न हुई विशेषता के कारण ये पाँचों ही स्थावर कहलाते हैं।
2. स्थावर नामकर्म का लक्षण
स.सि./8/11/391/10 यन्निमित्त एकेन्द्रियेषु प्रादुर्भावस्तत्स्थावरनाम। = जिसके उदय से एकेन्द्रियों में उत्पत्ति होती है वह स्थावर नामकर्म है। (रा.वा./8/11/22/578/29); (गो.क./जी.प्र./33/30/13)।
ध.6/1,9-1,28/61/6 जस्स कम्मस्स उदएण जीवो थावरत्तं पडिवज्जदि तस्स कम्मस्स थावरसण्णा। जदि थावरणामकम्मं ण होज्ज, तो थावरजीवाणमभावाणो होज्ज। ण च एवं तेसिमुवलंभा। = जिस कर्म के उदय से स्थावरपने को प्राप्त होता है, उस कर्म की स्थावर वह संज्ञा है। यदि स्थावर नामकर्म न हो, तो स्थावर जीवों का अभाव हो जायेगा। किन्तु ऐसा नहीं है। (ध.13/5,5,101/365/4)।
* स्थावर नामकर्म के असंख्यातों भेद सम्भव हैं-देखें नामकर्म ।
* स्थावर नामकर्म की बन्ध उदय व सत्त्व प्ररूपणाएँ-देखें वह वह नाम ।
3. स्थावर जीवों के भेद
पं.का./मू./110 पुढवी य उदगमगणी वाउ वणप्फदि जीवसंसिदा काया।...।110। = पृथ्वीकाय, अप्काय, अग्निकाय, वायुकाय, और वनस्पतिकाय यह कायें जीव सहित हैं।110। (मू.आ./205); (न.च.वृ./123); (का.अ./124); (द्र.सं./मू./11); (स्या.म./29/329/23)।
4. स्थावर जीव एकेन्द्रिय ही होते हैं
पं.का./मू./110 देंति खलु मोहबहुलं फासं बहुगा वि ते तेसिं।110। = (पाँचों स्थावर जीवों की अवान्तर जातियों की अपेक्षा) उनकी भारी संख्या होने पर भी वे सभी उनमें रहने वाले जीवों की वास्तव में अत्यन्त मोह से संयुक्त स्पर्श देती हैं (अर्थात् स्पर्श ज्ञान में निमित्त होती हैं।)
ध.1/1,1,33/गा.135/239 जाणदि पस्सदि भुंजदि सेवदि पस्सिंदिएण एक्केण। कुणदि य तस्सामित्तं थावरु एइंदियो तेण।135। = क्योंकि स्थावर जीव एक स्पर्शन इन्द्रिय के द्वारा ही जानता है, देखता है, खाता है, सेवन करता है और उसका स्वामीपना करता है, इसलिए उसे एकेन्द्रिय स्थावर जीव कहा गया है।135।
5. स्थावर जीवों में जीवत्व की सिद्धि
पं.का./मू.व प्र./113 अंडेसु पवड्ढंता गब्भत्था माणुसा य मुच्छगया। जारिसया तारिसया जीवा एगेंदिया णेया।113। एकेन्द्रियाणां चैतन्यास्तित्वे दृष्टान्तोपन्यासोऽयम् । अण्डान्तर्लीनानां, गर्भस्थानां, मूर्च्छितानां च बुद्धिपूर्वकव्यापारादर्शनेऽपि येन प्रकारेण जीवत्वं निश्चीयते, तेन प्रकारेणैकेन्द्रियाणामपि, उभयेषामपि बुद्धिपूर्वकव्यापारादर्शनस्य समानत्वादिति। = अण्डे में वृद्धि पाने वाले प्राणी, गर्भ में रहे हुए प्राणी और मूर्च्छा प्राप्त मनुष्य, जैसे हैं, वैसे एकेन्द्रिय जीव जानना।113। यह एकेन्द्रियों को चैतन्य का अस्तित्व होने सम्बन्धी दृष्टान्त का कथन है। अण्डे में रहे हुए प्राणी, गर्भ में रहे हुए और मूर्च्छा पाये हुए के जीवत्व का, उन्हें बुद्धिपूर्वक व्यापार नहीं देखा जाता तथापि, जिस प्रकार निश्चय किया जाता है, उसी प्रकार एकेन्द्रियों के जीवत्व का भी निश्चय किया जाता है; क्योंकि दोनों में बुद्धिपूर्वक व्यापार का अदर्शन है।
रा.वा./1/4/15-16/26/17 यद्येवं वनस्पत्यादीनामजीवत्वं प्राप्नोति तदभावात् । ज्ञानादीनां हि प्रवृत्तित उपलब्धि:, न च तेषां तत्पूर्विका प्रवृत्तिरस्ति हिताहितप्राप्तिपरिवर्जनाभावात् । उक्तं च-बुद्धिपूर्वां क्रियां इष्ट्वा स्वदेहेऽन्यत्र तद्ग्रहात् । मन्यते बुद्धिसद्भाव: सा न येषु न तेषु धी:। [सन्ताना.सि.श्लो] इति नैष: दोष:, तेषामपि ज्ञानादय: सन्ति सर्वज्ञप्रत्यक्षा:, इतरेषामागमगम्या:। आहारलाभालाभयो: पुष्टिम्लानादिदर्शनेन युक्तिगम्याश्च। अण्डगर्भस्थमूर्च्छितादिषु सत्यपि जीवत्वे तत्पूर्वकप्रवृत्त्यभावात् हेतुव्यभिचार:। = प्रश्न-(जिसमें चेतनता न पायी जाये सो अजीव है) यदि ऐसा है तो वनस्पति आदिकों में अजीवत्व की प्राप्ति होती है। क्योंकि उनमें चेतनता का अभाव है। ज्ञानादिक की प्रवृत्ति से ही उसकी उपलब्धि होती है। परन्तु वनस्पति आदि में बुद्धिपूर्वक प्रवृत्ति नहीं देखी जाती, क्योंकि उनमें हित के ग्रहण व अहित के त्याग का अभाव है। कहा भी है-अपने शरीर में बुद्धि क्रिया बुद्धि के रहते ही देखी जाती है, वैसी क्रिया यदि अन्यत्र हो तो वहाँ भी बुद्धि का सद्भाव मानना चाहिए, अन्यथा नहीं ? उत्तर-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि वनस्पति आदि में ज्ञानादि का सद्भाव है। इसको सर्वज्ञ तो अपने प्रत्यक्ष ज्ञान से जानते हैं और हम लोग आगम से। खान पान आदि के मिलने पर पुष्टि और न मिलने पर मलिनता देखकर उनमें चैतन्य का अनुमान भी होता है। गर्भस्थ जीव मूर्च्छित और अण्डस्थ जीव में बुद्धि पूर्वक स्थूल क्रिया भी दिखाई नहीं देती, अत: न दीखने मात्र से अभाव नहीं किया जा सकता।
स्या.म./29/330/10 पृथिव्यादीनां पुनर्जीवत्वमित्थं साधनीयम् । यथा सात्मिका विद्रुमशिलादिरूपा पृथिवी, छेदे समानधातूत्थानाद्, अर्शोऽङ्कुरवत् । भौममम्भोऽपि सात्मकम्, क्षतभूसजातीयस्य स्वभावस्य संभवात्, शाजूरवत् । आन्तरिक्षमपि सात्मकम्, अभ्रादिविकारे स्वत: संभूय पातात्, मत्स्यादिवत् । तेजोऽपि सात्मकम्, आहारोपादानेन वृद्धयादिविकारोपलम्भात्, पुरुषाङ्गवत् । वायुरपि सात्मक:, अपरप्रेरितत्वे तिर्यग्गतिमत्त्वाद् गोवत् । वनस्पतिरपि सात्मक: छेदादिभिर्म्लान्यादिदर्शनात्, पुरुषाङ्गवत् । केषांचित् स्वापाङ्गनोपश्लेषादिविकाराच्च। अप्रकर्षतश्चैतन्याद् वा सर्वेषां सात्मकत्वसिद्धि:। आप्तवचनाच्च। त्रसेषु च कृमिपिपीलिकाभ्रमरमनुष्यादिषु न केषांचित् सात्मकत्वे विगानमिति। = 1. मूंगा पाषाणादि रूप पृथिवी सजीव है, क्योंकि डाभ के अंकुर की तरह पृथिवी के काटने पर वह फिर से ऊग जाती है। 2. पृथिवी का जल सजीव है, क्योंकि मैंढक की तरह जल का स्वभाव खोदी हुई पृथिवी के समान है। आकाश का जल भी सजीव है, क्योंकि मछली की तरह बादल के विकार होने पर स्वत: ही उत्पन्न होता है। 3. अग्नि भी सजीव है, क्योंकि पुरुष के अंगों की तरह आहार आदि के ग्रहण करने से उसमें वृद्धि होती है। 4. वायु में भी जीव है, क्योंकि गौ की तरह वह दूसरे से प्रेरित, होकर गमन करती है। 5. वनस्पति में भी जीव है, क्योंकि पुरुष के अंगों की तरह छेदने से उसमें मलिनता देखी जाती है। कुछ वनस्पतियों में स्त्रियों के पादाघात आदि से विकार होता है, इसलिए भी वनस्पति में जीव है। अथवा जिन जीवों में चेतना घटती हुई देखी जाती है, वे सब सजीव हैं। सर्वज्ञ भगवान् ने पृथिवी आदि को जीव कहा है। 6. कृमि, पिपीलिका, भ्रमर, मनुष्य आदि त्रस जीवों में सभी लोगों ने जीव माना है।
6. स्थावरों में कथंचित् त्रसपना
पं.का./मू. व ता.वृ./111 तित्थावरतणुजोगा अणिलाणलकाध्याय तेसु तसा।...।111। अथ व्यवहारेणग्निवातकायिकानां त्रसत्वं दर्शयति-पृथिव्यब्वनस्पतयस्त्रय: स्थावरकाययोगात्संबन्धात्स्थावरा भण्यन्ते अनलानिलकायिका: तेषु पञ्चस्थावरेषु मध्ये चलनक्रियां दृष्ट्वा व्यवहारेण त्रसा भण्यन्ते। = अब व्यवहार से अग्नि और वातकायिकों के त्रसत्व दर्शाते हैं-पृथिवी, अप् और वनस्पति ये तीन तो स्थावर अर्थात् स्थिर योग सम्बन्ध के कारण स्थावर कहे जाते हैं। परन्तु अग्नि व वायुकायिक उन पाँच स्थावरों में ऐसे हैं जिनमें चलन क्रिया देखकर व्यवहार से त्रस भी कह देते हैं।
7. स्थावर के लक्षण सम्बन्धी शंका समाधान
रा.वा./2/12/4-5/127/1 स्यादेतत्-तिष्ठन्तीत्येवं शीला: स्थावरा इति। तन्न; किं कारणम् । वाय्वादीनामस्थावरत्वप्रसंगात् । वायुतेजोऽम्भसां हि देशान्तरप्राप्तिदर्शनादस्थावरत्वं स्यात् । कथं तर्ह्यस्य निष्पत्ति:-‘स्थानशीला: स्थावरा:’ इति। एवं रूढिविशेषबललाभात् । क्वचिदेव वर्तते।4। अथ मतमेतत्-इष्टमेव वाय्वादीनामस्थावरत्वमिति; तन्न: किं कारणम् । समयार्थानवबोधात् । एवं हि समयोऽवस्थित: सत्प्ररूपणायां कायानुवादे ‘‘त्रसा नाम द्वीन्द्रियादारभ्य आ अयोगिकेवलिन: (ष.खं.1/101/सू.44/175)।’’ तस्मान्न चलनाचलनापेक्षं त्रसस्थावरत्वं कर्मोदयापेक्षमेवेति स्थितम् । = प्रश्न-‘जो ठहरे सो, स्थावर’ ऐसा क्यों नहीं कहते? उत्तर-नहीं, क्योंकि, वायु आदिकों में अस्थावरत्व का प्रसंग आता है। वायु अग्नि और जल की देशान्तर प्राप्ति देखी जाती है। इससे वे अस्थावर समझे जायेंगे। प्रश्न-फिर इस स्थावर शब्द की ‘जो ठहरे सो स्थावर’ ऐसी निष्पत्ति कैसे हो सकती है ? उत्तर-यह तो रूढि विशेष के बल से क्वचित् देखने में आता है। प्रश्न-वायु आदिक अस्थावर होते हैं तो हो जाओ, क्योंकि यह तो हमें इष्ट है ? उत्तर-ऐसा नहीं है, क्योंकि आगम के साथ विरोध आता है। षट् खण्डागम सत्प्ररूपणा के कायानुवाद में ऐसा वचन अवस्थित है कि ‘द्वीन्द्रिय से लेकर अयोग केवलि तक जीवों को त्रस कहते हैं।’ अत: वायु आदिकों को स्थावर की कोटि से निकालकर त्रस कोटि में लाना उचित नहीं है। इसलिए वचन और चलन की अपेक्षा त्रस और स्थावर नहीं किया जा सकता। (स.सि./2/12/171/4); (ध.1/1,1,39/265/6)
ध.1/1,1,44/276/1 स्थावरकर्मण: किं कार्यमिति चेदेकस्थानावस्थापकत्वम् । तेजोवाय्वप्कायानां चलनात्मकानां तथा सत्यस्थावरत्वं स्यादिति चेन्न, स्थास्नूनां प्रयोगतश्चलच्छिन्नपर्णानामिव गतिपर्यायपरिणतसमीरणाव्यतिरिक्तशरीरत्वतस्तेषां गमनाविरोधात् । = प्रश्न-स्थावर कर्म का क्या कार्य है ? उत्तर-एक स्थान पर अवस्थित रखना स्थावर कर्म का कार्य है। प्रश्न-ऐसा मानने पर, गमन स्वभाव वाले अग्निकायिक वायुकायिक और जलकायिक जीवों को अस्थावरपना प्राप्त हो जायगा ? उत्तर-नहीं, क्योंकि, जिस प्रकार वृक्ष में लगे हुए पत्ते वायु से हिला करते हैं और टूटने पर इधर-उधर उड़ जाते हैं, उसी प्रकार अग्निकायिक और जलकायिक के प्रयोग से गमन मानने में कोई विरोध नहीं आता है। तथा वायु के गति पर्याय से परिणत शरीर को छोड़कर कोई दूसरा शरीर नहीं पाया जाता है इसलिए उसके गमन करने में भी कोई विरोध नहीं आता है।
8. त्रस व स्थावर में भेद बताने का प्रयोजन
द्र.सं./टी./11/29/6 अयमत्रार्थ:-विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावनिजपरमात्मस्वरूपभावनोत्पन्नपारमार्थिकसुखमलभमाना इन्द्रियसुखासक्ता एकेन्द्रियादिजीवानां वधं कृत्वा त्रसस्थावरा भवन्तीत्युक्तं पूर्वं तस्मात्त्रसस्थावरोत्पत्तिविनाशार्थं तत्रैव परमात्मनि भावना कर्त्तव्येति। = सारांश यह है कि निर्मल ज्ञान, दर्शन स्वभाव निज परमात्म स्वरूप की भावना से उत्पन्न जो पारमार्थिक सुख है उसको न पाकर जीव इन्द्रियों के सुख में आसक्त होकर जो एकेन्द्रियादि जीवों की हिंसा करते हैं उससे त्रस तथा स्थावर होते हैं, ऐसा पहले कह चुके हैं, इस कारण त्रस स्थावरों में उत्पत्ति होती है, सबको मिटाने के लिए उसी पूर्वोक्त प्रकार से परमात्मा की भावना करनी चाहिए।
* स्थावरों को सत् संख्या क्षेत्र स्पर्शन काल अन्तर भाव अल्प बहुत्व रूप आठ प्ररूपणाएँ-देखें वह वह नाम ।
* स्थावरों में गुणस्थान जीवसमास, मार्गणास्थानों के स्वामित्व विषयक 20 प्ररूपणाएँ-देखें सत् ।
* मार्गणा प्रकरण में भाव मार्गणा की इष्टता तथा वहाँ आय व व्यय का संतुलन-देखें मार्गणा ।
* स्थावर जीवों में प्राणों का स्वामित्व-देखें प्राण - 1।
9. स्थावर लोक निर्देश
ति.प./5/5 जा जीवपोग्गलाणं धम्माधम्मप्पबद्ध आयासे। होंति हु गदागदाणिं ताव ह्वे थावरा लोओ।5। = धर्म व अधर्म द्रव्य से सम्बन्धित जितने आकाश में जीव और पुद्गलों का जाना-आना रहता है उतना स्थावर लोक है।5।
का.अ./मू./122 एइंदिएहिं भरिदो पंच-पयारेहिं सव्वदो लोओ।...।122। = यह लोक पाँच प्रकार के एकेन्द्रियों से सर्वत्र भरा हुआ है।
देखें काय - 2.5 बादर, अप्, तेज व वनस्पति कायिक जीव अधोलोक की आठों पृथिवियों व भवनवासियों के विमानों में भी पाये जाते हैं।
पुराणकोष से
(1) भगवान महावीर के अठारहवें पूर्वभव का जीव । यह मगध देश के राजगृह नगर में शाण्डिल्य ब्राह्मण और उसकी स्त्री पारशरी का पुत्र था । इसने परिव्राजक होकर तप किया था । अंत में मरकर यह माहेन्द्र स्वर्ग में देव हुआ । महापुराण 74.84-87, 76. 538, वीरवर्द्धमान चरित्र 3. 1-5
(2) एक योनि तथा उसमें उत्पन्न जीव । ये पाँच प्रकार के होते हैं― पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक । महापुराण 74.81, पद्मपुराण 105. 141, 149
(3) सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषमदेव का एक नाम । महापुराण 25. 203