स्नान: Difference between revisions
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<span class="PrakritText">मू.आ./31 ण्हाणादिवज्जणेण य विलित्तजल्लमल्लसेदसव्वंगं। अण्हाणं घोरगुणं संजमदुगपालयं मुणिणो।31।</span> = <span class="HindiText">जल से नहाना रूप स्नानादि क्रियाओं के छोड़ देने से जल्ल मल्ल स्वेद रूप देह के मैलकर लिप्त हो गया है सब अंग जिसमें ऐसा अस्नान नामक महागुण साधु के होता है।</span></p> | <span class="PrakritText">मू.आ./31 ण्हाणादिवज्जणेण य विलित्तजल्लमल्लसेदसव्वंगं। अण्हाणं घोरगुणं संजमदुगपालयं मुणिणो।31।</span> = <span class="HindiText">जल से नहाना रूप स्नानादि क्रियाओं के छोड़ देने से जल्ल मल्ल स्वेद रूप देह के मैलकर लिप्त हो गया है सब अंग जिसमें ऐसा अस्नान नामक महागुण साधु के होता है।</span></p> | ||
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<span class="SanskritText"> अनगारधर्मामृत/9/98 न ब्रह्मचारिणामर्थो विशेषादात्मदर्शिनाम् । जलशुद्धयाथवा यावद्दोषं सापि मतार्हतै:।98।</span> = <span class="HindiText">ब्रह्मचारी तथा विशेषकर आत्मदर्शियों को जो कि स्वयं पवित्र हैं उनके लिए स्नान किस प्रयोजन का ? | <span class="SanskritText"> अनगारधर्मामृत/9/98 न ब्रह्मचारिणामर्थो विशेषादात्मदर्शिनाम् । जलशुद्धयाथवा यावद्दोषं सापि मतार्हतै:।98।</span> = <span class="HindiText">ब्रह्मचारी तथा विशेषकर आत्मदर्शियों को जो कि स्वयं पवित्र हैं उनके लिए स्नान किस प्रयोजन का ? किंतु अस्पर्श्य दोष होने पर उसकी शुद्धि के लिए उसकी आवश्यकता है।</span></p> | ||
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<strong>2. साधु के अस्नान गुण | <strong>2. साधु के अस्नान गुण संबंधी शंका समाधान</strong></p> | ||
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<span class="SanskritText"> भगवती आराधना / विजयोदया टीका/93/229-230/20 स्नानमनेकप्रकारं शिरोमात्रप्रक्षालनं, शिरो मुक्त्वा अन्यस्य वा गोत्रस्य, समस्तस्य वा। तन्न शीतोदकेन क्रियते स्थावराणां त्रसानां च बाधा माभूदिति। ...उष्णोदकेन स्नायादिति चेन्न, तत्र त्रसस्थावरबाधावस्थितैव।...न चास्ति प्रयोजनं स्नानेन सप्तधातुमयस्य देहस्य न शुचिता शक्या कर्तुं। ततो न शौचप्रयोजनं। न रोगापहृतये रोगपरीषहसहनाभावप्रसंगात् । न हि भूषायै विरागत्वात् । | <span class="SanskritText"> भगवती आराधना / विजयोदया टीका/93/229-230/20 स्नानमनेकप्रकारं शिरोमात्रप्रक्षालनं, शिरो मुक्त्वा अन्यस्य वा गोत्रस्य, समस्तस्य वा। तन्न शीतोदकेन क्रियते स्थावराणां त्रसानां च बाधा माभूदिति। ...उष्णोदकेन स्नायादिति चेन्न, तत्र त्रसस्थावरबाधावस्थितैव।...न चास्ति प्रयोजनं स्नानेन सप्तधातुमयस्य देहस्य न शुचिता शक्या कर्तुं। ततो न शौचप्रयोजनं। न रोगापहृतये रोगपरीषहसहनाभावप्रसंगात् । न हि भूषायै विरागत्वात् । घृततैलादिभिरम्यंजनमपि न करोति प्रयोजनाभावादुक्तेन प्रकारेण घृतादिना क्षारेण स्पृष्टा भूम्यादिजंतवो बाध्यंते। त्रसाश्च तत्रावलग्ना:।</span> = <span class="HindiText">स्नान अनेक प्रकार है-जल से केवल मस्तक धोना, अथवा मस्तक छोड़कर अन्य अवयवों को धोना अथवा समस्त अवयवों को धोना, परंतु त्रस और स्थावर जीवों को बाधा न होवे इसलिए मुनि शीतल जल से स्नान नहीं करते हैं।...<strong>प्रश्न</strong>-ठंडे जल से स्नान नहीं करते तो गरम पानी से क्यों नहीं करते हैं? <strong>उत्तर</strong>-नहीं, गरम जल से स्नान करने से भी त्रस स्थावर जीवों को बाधा होती ही है।...मुनियों को जलस्नान की आवश्यकता ही नहीं है। क्योंकि, जल स्नान से सप्त धातुमय देह पवित्र नहीं होता। इस वास्ते शुचिता के लिए स्नान करना भी योग्य नहीं है, रोग परिहार के लिए भी स्नान की आवश्यकता नहीं है, यदि वे स्नान करेंगे तो रोग परीषह सहन करना व्यर्थ होगा। शरीर सौंदर्य युक्त होने के लिए भी वे स्नान नहीं करते, क्योंकि वे वीतराग हैं। मुनि, घी, तैल इत्यादिकों से अभ्यगस्नान भी कुछ प्रयोजन न होने से करते नहीं हैं। घृतादि क्षार पदार्थों का स्पर्श होने से भूमि वगैरह में रहने वाले जंतुओं को पीड़ा होती है, भूमि पर चिपके हुए जीव इधर उधर होते हैं, गिरते हैं, तब उनको एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाते समय बाधा पहुँचती है।</span></p> | ||
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<strong>3. स्नान के भेद</strong></p> | <strong>3. स्नान के भेद</strong></p> | ||
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<span class="SanskritText"> सागार धर्मामृत/2/34 पर फुटनोट-‘पादजानुकटिग्रीवाशिर:पर्यतसंश्रयं। स्नानं | <span class="SanskritText"> सागार धर्मामृत/2/34 पर फुटनोट-‘पादजानुकटिग्रीवाशिर:पर्यतसंश्रयं। स्नानं पंचविधं ज्ञयं यथा दोषं शरीरिणां’</span> = <span class="HindiText">स्नान पाँच प्रकार का मानना चाहिए-केवल पाँव धोना, घुटने तक धोना, कमर तक धोना, कंठ तक धोना और शिर तक स्नान करना।</span></p> | ||
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<strong class="HindiText">4. गृहस्थ व साधु की स्नान विधि</strong></p> | <strong class="HindiText">4. गृहस्थ व साधु की स्नान विधि</strong></p> | ||
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<span class="SanskritText"> सागार धर्मामृत/2/34 | <span class="SanskritText"> सागार धर्मामृत/2/34 स्त्र्यारंभसेवासंक्लिष्ट:, स्नात्वा कंठमथाशिर:। स्वयं यजेतार्हत्पादानस्नातोऽन्येन याजयेत् ।</span> = <span class="HindiText">स्त्री सेवन और खेती आदि करने से दूषित है मन जिसका ऐसा गृहस्थ कंठ पर्यंत अथवा शिर पर्यंत स्नान कर अर्हंत देव के चरणों को पूजे और अस्नात व्यक्ति दूसरे स्नात व्यक्ति से पूजा करावे।</span></p> | ||
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<span class="SanskritText"> सागार धर्मामृत/2/33,34 पर फुटनोट-नित्यं स्नानं गृहस्थस्य देवार्चनपरिग्रहे। ब्रह्मचर्योपपन्नस्य | <span class="SanskritText"> सागार धर्मामृत/2/33,34 पर फुटनोट-नित्यं स्नानं गृहस्थस्य देवार्चनपरिग्रहे। ब्रह्मचर्योपपन्नस्य निवृत्तारंभकर्मण:। यद्वातद्वाभवेत्स्नानमंत्यमंयस्य तु द्वयम् ।</span> = <span class="HindiText">जिन पूजा आदि करने को गृहस्थ को नित्यंभ्स्नान करना चाहिए। जो ब्रह्मचारी हैं, और जो खेती आदि आरंभ से निवृत्त हैं उनको पाँचों में से इच्छानुसार स्नान कर लेना चाहिए। परंतु गृहस्थों को कंठ तक वा शिर तक दो ही स्नान करना चाहिए।</span></p> | ||
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<strong class="HindiText">5. जलाशय में डुबकी लगाकर स्नान करने का निर्देश</strong></p> | <strong class="HindiText">5. जलाशय में डुबकी लगाकर स्नान करने का निर्देश</strong></p> | ||
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<strong class="HindiText">6. आत्म स्नान ही यथार्थ स्नान है</strong></p> | <strong class="HindiText">6. आत्म स्नान ही यथार्थ स्नान है</strong></p> | ||
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<span class="SanskritText"> द्रव्यसंग्रह टीका/35/109/12 विशुद्धात्मनदीस्नानमेव परमशुचित्वकारणं न च | <span class="SanskritText"> द्रव्यसंग्रह टीका/35/109/12 विशुद्धात्मनदीस्नानमेव परमशुचित्वकारणं न च लौकिकगंगादितीर्थे स्नानादिकम् । आत्मा नदी संयमतोयपूर्णा सत्यावगाहा शीलतटा दयोर्मि:। तत्राभिषेकं कुरु पांडुपुत्र न वारिणा शुद्धयति चांतरात्मा।</span> = <span class="HindiText">विशुद्ध आत्मा रूपी शुद्ध नदी में स्नान करना ही परम पवित्रता का कारण है, लौकिक गंगा आदि तीर्थों में स्नान का करना शुचि का कारण नहीं है। संयम रूपी जल से भरी, सत्य रूपी प्रवाह, शील रूप तट और दयामय तरंगों की धारक तो आत्मा रूपी नदी है।</span></p> | ||
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Revision as of 16:40, 19 August 2020
1. अस्नान मूलगुण का लक्षण
मू.आ./31 ण्हाणादिवज्जणेण य विलित्तजल्लमल्लसेदसव्वंगं। अण्हाणं घोरगुणं संजमदुगपालयं मुणिणो।31। = जल से नहाना रूप स्नानादि क्रियाओं के छोड़ देने से जल्ल मल्ल स्वेद रूप देह के मैलकर लिप्त हो गया है सब अंग जिसमें ऐसा अस्नान नामक महागुण साधु के होता है।
अनगारधर्मामृत/9/98 न ब्रह्मचारिणामर्थो विशेषादात्मदर्शिनाम् । जलशुद्धयाथवा यावद्दोषं सापि मतार्हतै:।98। = ब्रह्मचारी तथा विशेषकर आत्मदर्शियों को जो कि स्वयं पवित्र हैं उनके लिए स्नान किस प्रयोजन का ? किंतु अस्पर्श्य दोष होने पर उसकी शुद्धि के लिए उसकी आवश्यकता है।
2. साधु के अस्नान गुण संबंधी शंका समाधान
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/93/229-230/20 स्नानमनेकप्रकारं शिरोमात्रप्रक्षालनं, शिरो मुक्त्वा अन्यस्य वा गोत्रस्य, समस्तस्य वा। तन्न शीतोदकेन क्रियते स्थावराणां त्रसानां च बाधा माभूदिति। ...उष्णोदकेन स्नायादिति चेन्न, तत्र त्रसस्थावरबाधावस्थितैव।...न चास्ति प्रयोजनं स्नानेन सप्तधातुमयस्य देहस्य न शुचिता शक्या कर्तुं। ततो न शौचप्रयोजनं। न रोगापहृतये रोगपरीषहसहनाभावप्रसंगात् । न हि भूषायै विरागत्वात् । घृततैलादिभिरम्यंजनमपि न करोति प्रयोजनाभावादुक्तेन प्रकारेण घृतादिना क्षारेण स्पृष्टा भूम्यादिजंतवो बाध्यंते। त्रसाश्च तत्रावलग्ना:। = स्नान अनेक प्रकार है-जल से केवल मस्तक धोना, अथवा मस्तक छोड़कर अन्य अवयवों को धोना अथवा समस्त अवयवों को धोना, परंतु त्रस और स्थावर जीवों को बाधा न होवे इसलिए मुनि शीतल जल से स्नान नहीं करते हैं।...प्रश्न-ठंडे जल से स्नान नहीं करते तो गरम पानी से क्यों नहीं करते हैं? उत्तर-नहीं, गरम जल से स्नान करने से भी त्रस स्थावर जीवों को बाधा होती ही है।...मुनियों को जलस्नान की आवश्यकता ही नहीं है। क्योंकि, जल स्नान से सप्त धातुमय देह पवित्र नहीं होता। इस वास्ते शुचिता के लिए स्नान करना भी योग्य नहीं है, रोग परिहार के लिए भी स्नान की आवश्यकता नहीं है, यदि वे स्नान करेंगे तो रोग परीषह सहन करना व्यर्थ होगा। शरीर सौंदर्य युक्त होने के लिए भी वे स्नान नहीं करते, क्योंकि वे वीतराग हैं। मुनि, घी, तैल इत्यादिकों से अभ्यगस्नान भी कुछ प्रयोजन न होने से करते नहीं हैं। घृतादि क्षार पदार्थों का स्पर्श होने से भूमि वगैरह में रहने वाले जंतुओं को पीड़ा होती है, भूमि पर चिपके हुए जीव इधर उधर होते हैं, गिरते हैं, तब उनको एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाते समय बाधा पहुँचती है।
3. स्नान के भेद
सागार धर्मामृत/2/34 पर फुटनोट-‘पादजानुकटिग्रीवाशिर:पर्यतसंश्रयं। स्नानं पंचविधं ज्ञयं यथा दोषं शरीरिणां’ = स्नान पाँच प्रकार का मानना चाहिए-केवल पाँव धोना, घुटने तक धोना, कमर तक धोना, कंठ तक धोना और शिर तक स्नान करना।
4. गृहस्थ व साधु की स्नान विधि
सागार धर्मामृत/2/34 स्त्र्यारंभसेवासंक्लिष्ट:, स्नात्वा कंठमथाशिर:। स्वयं यजेतार्हत्पादानस्नातोऽन्येन याजयेत् । = स्त्री सेवन और खेती आदि करने से दूषित है मन जिसका ऐसा गृहस्थ कंठ पर्यंत अथवा शिर पर्यंत स्नान कर अर्हंत देव के चरणों को पूजे और अस्नात व्यक्ति दूसरे स्नात व्यक्ति से पूजा करावे।
सागार धर्मामृत/2/33,34 पर फुटनोट-नित्यं स्नानं गृहस्थस्य देवार्चनपरिग्रहे। ब्रह्मचर्योपपन्नस्य निवृत्तारंभकर्मण:। यद्वातद्वाभवेत्स्नानमंत्यमंयस्य तु द्वयम् । = जिन पूजा आदि करने को गृहस्थ को नित्यंभ्स्नान करना चाहिए। जो ब्रह्मचारी हैं, और जो खेती आदि आरंभ से निवृत्त हैं उनको पाँचों में से इच्छानुसार स्नान कर लेना चाहिए। परंतु गृहस्थों को कंठ तक वा शिर तक दो ही स्नान करना चाहिए।
5. जलाशय में डुबकी लगाकर स्नान करने का निर्देश
सागार धर्मामृत/2/34 पर फुटनोट-वातातपादिसंपृष्टे भूरितोये जलाशये। अवगाह्याचरेन्स्नानमतोऽन्यद्गालितं भजेत् । = जिस जलाशय में पानी बहुत हो और उस पर से भारी पवन का झकोरा निकल गया हो अथवा धूप पड़ रही हो तो उसमें डुबकी मारकर स्नान करना चाहिए। यदि ऐसे जलाशय न मिलें तो छने हुए पानी से स्नान करना चाहिए।
* शूद्र से छूने पर साधु की स्नान विधि।-देखें भिक्षा - 3.3।
6. आत्म स्नान ही यथार्थ स्नान है
द्रव्यसंग्रह टीका/35/109/12 विशुद्धात्मनदीस्नानमेव परमशुचित्वकारणं न च लौकिकगंगादितीर्थे स्नानादिकम् । आत्मा नदी संयमतोयपूर्णा सत्यावगाहा शीलतटा दयोर्मि:। तत्राभिषेकं कुरु पांडुपुत्र न वारिणा शुद्धयति चांतरात्मा। = विशुद्ध आत्मा रूपी शुद्ध नदी में स्नान करना ही परम पवित्रता का कारण है, लौकिक गंगा आदि तीर्थों में स्नान का करना शुचि का कारण नहीं है। संयम रूपी जल से भरी, सत्य रूपी प्रवाह, शील रूप तट और दयामय तरंगों की धारक तो आत्मा रूपी नदी है।