GP:प्रवचनसार - गाथा 63 - तात्पर्य-वृत्ति - हिंदी
From जैनकोष
(अब इन्द्रिय-सुख के प्रतिपादन की मुख्यता से आठ गाथाओं में निबद्ध पाँचवा स्थल प्रारम्भ होता है । यह स्थल चार भागों में विभक्त है । उनमें से सर्वप्रथम इन्द्रिय-सुख दुःख है - इस तथ्य का प्रतिपादक दो गाथाओं वाला प्रथम भाग प्रारम्भ होता है ।)
अब, संसारियों के साधक इन्द्रिय-ज्ञान के साध्यभूत इन्द्रिय-सुख का विचार करते हैं -
[मणुआसुरामरिंदा] - मनुष्येन्द्र – चक्रवर्ती, असुरेन्द्र और देवेन्द्र । ये सभी कैसे हैं? [अहिद्दुदा इन्दियेहिं सहजेहिं] - कदर्थित - दु:खित-पीड़ित हैं । ये सभी किनसे पीड़ित हैं? ये सभी स्वाभाविक इन्द्रियों से पीड़ित हैं । [असहंता तं दुक्खं] - ये दु:खोद्रेक - दुःखों की तीव्रता को सहन नहीं करते हुये, [रमंते विसएसु रम्मेसु] - रम्याभास विषयों में रमण करते हैं ।
अब विस्तार करते हैं- मनुष्य आदि जीव अमूर्त, अतीन्द्रिय ज्ञान-सुख के आस्वाद को प्राप्त नहीं करते हुये, मूर्त, इन्द्रिय ज्ञान-सुख के लिये उनके कारणभूत पंचेन्द्रियों में (पंचेन्द्रिय विषयों में) मित्रता करते हैं और इससे तप्त लोहे के गोले के जल खींचने (सोखने) के समान विषयों में तीव तृष्णा उत्पन्न होती है । उस तृष्णा को सहन नहीं करते हुए, वे विषयों का अनुभव करते हैं । इससे ज्ञात होता है कि पाँचों इन्द्रियाँ रोग (बीमारी) के समान हैं और विषय उनके निराकरण के लिये औषध के समान है - इस प्रकार संसारियों के वास्तविक सुख नहीं है ।