GP:प्रवचनसार - गाथा 78 - तत्त्व-प्रदीपिका - हिंदी
From जैनकोष
जो जीव शुभ और अशुभ भावों के अविशेष दर्शन से (समानता की श्रद्धा से) वस्तु-स्वरूप को सम्यक-प्रकार से जानता है, स्व और पर दो विभागों में रहने वाली, समस्त पर्यायों सहित समस्त द्रव्यों के प्रति राग और द्वेष को निरवशेष रूप से छोड़ता है, वह जीव, एकान्त से उपयोग-विशुद्ध (सर्वथा शुद्धोपयोगी) होने से जिसने पर-द्रव्य का आलम्बन छोड़ दिया है ऐसा वर्तता हुआ-लोहे के गोले में से लोहे के १सार का अनुसरण न करने वाली अग्नि की भाँति-प्रचंड घन के आघात समान शारीरिक दुःख का क्षय करता है । (जैसे अग्नि लोहे के तप्त गोले में से लोहे के सत्व को धारण नहीं करती इसलिये अग्नि पर प्रचंड घन के प्रहार नहीं होते, उसी प्रकार पर-द्रव्य का आलम्बन न करने वाले आत्मा को शारीरिक दुःख का वेदन नहीं होता ।) इसलिये यही एक शुद्धोपयोग मेरी शरण है ॥७८॥
१सार = सत्व, घनता, कठिनता