GP:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 136 - समय-व्याख्या - हिंदी
From जैनकोष
यह, चित्त की कलुषता के स्वरूप का कथन है ।
क्रोध, मान, माया और लोभ के तीव्र उदय से चित्त का क्षोभ सो कलुषता है। उन्हीं के (क्रोधादि के ही) मंद उदय से चित्त की प्रसन्नता सो अकलुषता है । वह अकलुषता, कदाचित् कषाय का विशिष्ट (-खास प्रकार का) क्षयोपशम होने पर, अज्ञानी को होती है, कषाय के उदय का अनुसरण करने वाली परिणति में से उपयोग को १असमग्ररूप से विमुख किया हो तब (अर्थात् कषाय के उदय का अनुसरण करने वाले परिणमन में से उपयोग को पूर्ण विमुख न किया हो तब), मध्यम भूमिकाओं में (मध्यम गुणस्थानों में), कदाचित् ज्ञानी को भी होती है ॥१३६॥
१असमग्ररूप से= अपूर्णरूप से, अधूरेरूप से, अंशतः।