GP:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 143 - समय-व्याख्या - हिंदी
From जैनकोष
यह, निर्जरा के मुख्य कारण का कथन है ।
संवर से अर्थात् शुभाशुभ परिणाम के परम निरोध से युक्त ऐसा जो जीव, वस्तु स्वरूप को (हेय-उपादेय तत्त्व को) बराबर जानता हुआ पर-प्रयोजन से जिसकी बुद्धि १व्यावृत्त हुई है और केवल स्व-प्रयोजन साधने में जिसका २मन ३उद्यत हुआ है, ऐसा वर्तता हुआ, आत्मा को स्वोपलब्धि से उपलब्ध करके (अपने को स्वानुभव द्वारा अनुभव करके), गुण-गुणी का वस्तु-रूप से अभेद होने के कारण उसी ४ज्ञान को, स्व को स्व द्वारा अविचल-परिणति वाला होकर संचेतता है, वह जीव वास्तव में अत्यंत ५निःस्नेह वर्तता हुआ, जिसको ६स्नेह के लेप का संग प्रक्षीण हुआ है, ऐसे शुद्ध स्फ़टिक के स्तंभ की भाँति, पूर्वोपार्जित कर्म-रज को खिरा देती है ।
इससे (इस गाथा से) ऐसा दर्शाया कि निर्जरा का मुख्य हेतु ७ध्यान है ॥१४३॥
१व्यावृत्त होना= निर्वर्तना, निवृत्त होना, विमुख होना ।
२मन=मति, बुद्धि, भाव, परिणाम ।
३उद्यत होना= तत्पर होना, लगना, उद्यमवंत होना, मुडना, ढलना ।
४गुणी और गुण में वस्तु-अपेक्षा से अभेद है इसलिये आत्मा कहो या ज्ञान कहो- दोनों एक ही हैं। ऊपर जिसका 'आत्मा' शब्द से कथन किया था उसी का यहाँ 'ज्ञान' शब्द से कथन किया है । उस ज्ञान में-निजात्मा में-निजात्मा द्वारा निश्चल परिणति करके उसका संचेतन-संवेदन-अनुभवन करना सो ध्यान है ।
५निःस्नेह= स्नेहरहित, मोहरागद्वेष रहित ।
६स्नेह= तेल, चिकना पदार्थ, स्निग्धता, चिकनापन ।
७यह ध्यान शुद्धभाव रूप है