GP:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 145 - समय-व्याख्या - हिंदी
From जैनकोष
यह, बन्ध के स्वरूप का कथन है ।
यदि वास्तव में यह आत्मा अन्य के (पुद्गल-कर्म के) आश्रय द्वारा अनादिकाल से रक्त रहकर कर्मोदय के प्रभाव-युक्त-रूप वर्तने से उदित (प्रगट होने वाले) शुभ या अशुभ भाव को करता है, तो वह आत्मा उस निमित्त-भूत भाव द्वारा विविध पुद्गल-कर्म से बद्ध होता है । इसलिये यहाँ (ऐसा कहा है कि), मोह-राग-द्वेष द्वारा स्निग्ध ऐसे जो जीव के शुभ या अशुभ परिणाम वह भाव बन्ध है और उसके (शुभाशुभ परिणाम के) निमित्त से शुभाशुभ कर्म-रूप परिणत पुद्गलों का जीव के साथ अन्योन्य अवगाहन (विशिष्ट शक्ति सहित एक-क्षेत्रावगाह सम्बन्ध) वह द्रव्य बन्ध है ॥१४५॥