GP:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 168 - समय-व्याख्या - हिंदी
From जैनकोष
यहाँ, अर्हंतादि की भक्ति-रूप परसमय प्रवृत्ति में साक्षात् मोक्ष-हेतुपने का अभाव होने पर भी परम्परा से मोक्ष-हेतुपने का सद्भाव दर्शाया है ।
जो जीव वास्तव में मोक्ष के लिये उद्यमी चित्तवाला वर्तता हुआ, अचिंत्य संयम तपभार सम्प्राप्त किया होने पर भी परम वैराग्य-भूमिका का आरोहण कहने में समर्थ ऐसी १प्रभु-शक्ति उत्पन्न नहीं की होने से, 'धुनकी को चिपकी हुई रूई' के न्याय से, नव पदार्थों तथा अर्हंतादि की रुचि-रूप (प्रीतिरूप) परसमय-प्रवृत्ति का परित्याग नहीं कर सकता, वह जीव वास्तव में साक्षात् मोक्ष को प्राप्त नहीं करता किन्तु देवलोकादि के क्लेश की प्राप्ति-रूप परम्परा द्वारा उसे प्राप्त करता है ॥१६८॥
१प्रभुशक्ति = प्रबल शक्ति; उग्र शक्ति; प्रचुर शक्ति । (परम उदासीनता)