GP:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 21 - समय-व्याख्या - हिंदी
From जैनकोष
यह, जीव उत्पाद, व्यय, सत्-विनाश और असत्-उत्पाद का कर्तत्व होने की सिद्धि-रूप उपसंहार है ।
द्रव्य वास्तव में सर्वदा अविनष्ट और अनुत्पन्न आगम में कहा है; इसलिए जीव-द्रव्य को द्रव्य-रूप से नित्य-पना कहा गया ।
- देवादि पर्याय रूप से उत्पन्न होता है इसलिए उसी को (जीव-द्रव्य को ही) भाव (उत्पाद) का कर्तत्व कहा गया है;
- मनुष्यादि पर्याय-रूप से नाश को प्राप्त होता है इसलिए उसी को अभाव (व्यय) का कर्तत्व कहा है;
- सत् (विद्यमान) देवादि-पर्याय का नाश करता है इसलिए उसी को भावाभाव का (सत् के विनाश का) कर्तत्व कहा गया है; और
- फिर से असत् (अविद्यमान) मनुष्यादि पर्याय का उत्पाद करता है इसलिए उसी को आभाव-भाव का (असत् के उत्पाद का) कर्तत्व कहा गया है
जब जीव, पर्याय की गौणता से और द्रव्य की मुख्यता से विवक्षित होता है तब वह
- उत्पन्न नहीं होता,
- विनष्ट नहीं होता,
- क्रम-वृत्ति से वर्तन नहीं करता इसलिए सत् (विद्यमान) पर्याय-समूह को विनष्ट नहीं करता और
- असत् को (अविद्यमान पर्याय-समूह को) उत्पन्न नहीं करता;
- उपजता है,
- विनष्ट होता है,
- जिसका स्व-काल बीत गया ऐसे सत् (विद्यमान) पर्याय-समूह को विनष्ट करता है और
- जिसका स्व-काल उपस्थित हुआ है ऐसे असत् को (अविद्यमान को) उत्पन्न करता है ।
वह प्रसाद वास्तव में अनेकान्त-वाद का है की ऐसा विरोध भी (वास्तव में) विरोध नहीं है ॥२१॥
इस प्रकार षड्-द्रव्य की सामान्य प्रारूपणा समाप्त हुई ।