GP:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 82 - तात्पर्य-वृत्ति - हिंदी
From जैनकोष
[धम्मत्थिकायं] धर्मास्तिकाय है । [अरसमवण्णमगंधमसद्दमप्फासं] रस, वर्ण, गंध, शब्द, स्पर्श से रहित हैं । [लोगागाढ] लोक-व्यापक है । [पुट्ठ] निर्विकार स्व-संवेदन ज्ञान परिणत जीव-प्रदेशों में परम आनन्द एक लक्षण सुख-रस के आस्वाद-मय समरसी भाव के समान, सिद्ध-क्षेत्र में सिद्ध-समूह के समान, पूर्ण घट में भरे जल के समान या तिल में तेल के समान स्पृष्ट है; परस्पर प्रदेशों में व्यवधान / अन्तर से रहित होने के कारण निरन्तर है; निर्जन-प्रदेश में आत्मा को भाते हुए (आत्मा में लीन) मुनि-समूह के समान या नगर में स्थित जन-समूह के समान सांतर / अंतर-सहित नहीं है; [बहुलं] अभव्य जीव के प्रदेशों में स्थित मिथ्यात्व-रागादि के समान या लोक में स्थित नभ / आकाश के समान विशाल है; स्वभावत: ही अनादि-अनन्त रूप से विस्तृत है; केवली समुद्घात में जीव-प्रदेशों के समान अथवा लोक में वस्त्रादि-प्रदेशों के विस्तार के समान यह विस्तृत नहीं है । वह और किस विशेषता वाला है? [असंखादियपदेसं] निश्चय से अखण्ड एक प्रदेशी होने पर भी सद्भूत व्यवहार से लोकाकाश प्रमाण असंख्यात-प्रदेशी है, ऐसा सूत्रार्थ है ॥९०॥