GP:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 82 - समय-व्याख्या - हिंदी
From जैनकोष
यह, धर्म के (धर्मास्तिकाय के) स्वरूप का कथन है ।
स्पर्श, रस, गंध और वर्ण का अत्यंत अभाव होने से धर्म (धर्मास्तिकाय) वास्तव में अमूर्त-स्वभाव वाला है, और इसीलिये अशब्द है, समस्त लोका-काश में व्याप्त होकर रहने से लोक-व्यापक है, १अयुतसिद्ध प्रदेश-वाला होने से अखंड है, स्वभाव से ही सर्वतः विस्तृत होने से विशाल है, निश्चय नय से '२एक प्रदेशी' होने पर भी व्यवहार-नय से असंख्यात-प्रदेशी है ॥८२॥
१युतसिद्ध= जुडे हुए, संयोगसिद्ध । (धर्मास्तिकाय में भिन्न-भिन्न प्रदेशों का संयोग हुआ है ऐसा नहीं है, इसलिये उसमें बीच में व्यवधान-अंतर-अवकाश नहीं है, इसलिये धर्मास्तिकाय अखंड है)
२एकप्रदेशी= अविभाज्य-एकक्षेत्रवाला । (निश्चय-नय से धर्मास्तिकाय अविभाज्य-एकपदार्थ होने से अविभाज्य-एकक्षेत्रवाला है।)