GP:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 85 - समय-व्याख्या - हिंदी
From जैनकोष
यह, अधर्म के स्वरूप का कथन है ।
जिस प्रकार धर्म का प्रज्ञापन किया गया, उसी प्रकार अधर्म का भी प्रज्ञापन करने योग्य है । परन्तु यह (निम्नोक्तानुसार) अन्तर है : वह (धर्मास्तिकाय) गति-क्रिया-युक्त को पानी की भाँति कारण-भूत है और यह (अधर्मास्तिकाय) स्थिति-क्रिया-युक्त को पृथ्वी की भाँति कारण-भूत है । जिस प्रकार पृथ्वी स्वयं पहले से ही स्थिति-रूप (स्थिर) वर्तती हुई तथा पर को स्थिति (स्थिरता) नहीं कराती हुई, स्वयमेव स्थिति रूप से परिणमित होते हुए अश्वादिक को उदासीन अविनाभावी सहाय-रूप कारण-मात्र के रूप में स्थिति में अनुग्रह करती है, उसी प्रकार अधर्म (अधर्मास्तिकाय) भी स्वयं पहले से ही स्थिति रूप से वर्तता हुआ और पर को स्थिति नहीं कराता हुआ, स्वयमेव स्थिति रूप परिणमित हुए जीव-पुद्गलों को उदासीन अविनाभावी सहाय-रूप कारण-मात्र के रूप में स्थिति में अनुग्रह करता है ॥८६॥