GP:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 8 - समय-व्याख्या - हिंदी
From जैनकोष
यहाँ अस्तित्व का स्वरूप कहा है ।
अस्तित्व अर्थात सत्ता नामक सत् का भाव अर्थात सत्त्व ।
- विद्यमान-मात्र वस्तु न तो सर्वथा नित्य-रूप होती है और न सर्वथा क्षणिक-रूप होती है । सर्वथा नित्य वस्तु को वास्तव में क्रमभावी भावों का अभाव होने से विकार (परिवर्तन, परिणाम) कहाँ से होगा ? और सर्वथा क्षणिक वस्तु में प्रत्यभिज्ञान का अभाव होने से एक-प्रवाहपना कहाँ से रहेगा ? इसलिए प्रत्यभिज्ञान के हेतुभूत किसी स्वरूप से ध्रुव रहती हुई और किन्ही दो क्रमवर्ती स्वरूपों से नष्ट होती हुई तथा उत्पन्न होती हुई -- इसप्रकार परमार्थत: एक ही काल में तिगुनी (तीन अंशवाली) अवस्था को धारण करती हुई वस्तु सत् जानना । इसलिए सत्ता भी उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक (त्रिलक्षण) जानना; क्योंकि *भाव और भाव-वान का कथंचित एक स्वरूप होता है ।
- और वह (सत्ता) एक है, क्योंकि वह त्रिलक्षण-वाले समस्त वस्तु-विस्तार का सादृश्य सूचित करती है ।
- और वह (सत्ता) सर्व-पदार्थ-स्थित है; क्योंकि उसके कारण ही (सत्ता के कारण ही) सर्व पदार्थों में त्रिलक्षण की (उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य की), 'सत' ऐसे कथन की तथा 'सत' एसी प्रतीति की उपलब्धि होती है ।
- और वह (सत्ता) सविश्वरूप है, क्योंकि वह विश्व के रूपों सहित (समस्त वस्तु-विस्तार के त्रिलक्षण वाले स्वभावों सहित) वर्तती है ।
- और वह (सत्ता) अनन्त-पर्यायमय है क्योंकि वह त्रिलक्षण वाली अनन्त द्रव्य-पर्याय-रूप व्यक्तियों से व्याप्त है ।
ऐसी होने पर भी वह वास्तव में निरंकुश नहीं है किन्तु सप्रतिपक्ष है ।
- सत्ता को असत्ता प्रतिपक्ष है;
- त्रिलक्षणा को अत्रिलक्षणपना प्रतिपक्ष है;
- एक को अनेकपना प्रतिपक्ष है;
- सर्व-पदार्थ-स्थित को एक-पदार्थ-स्थित प्रतिपक्ष है;
- सविश्व-रूप को एक-रूप-पना प्रतिपक्ष है;
- अनन्त-पर्याय-मय को एक-पर्याय-मयपना प्रतिपक्ष है;
(उपर्युक्त सप्रतिपक्षपना स्पष्ट समझाया जाता है)
सत्ता द्विविध है :महासत्ता और अवान्तर-सत्ता । उसमें सर्व पदार्थ-समूह में व्याप्त होने वाली, सादृश्य-अस्तित्व को सूचित करने वाली महासत्ता (सामान्य-सत्ता) तो कही जा चुकी है । दूसरी, प्रतिनिश्चित (एक-एक निश्चित) वस्तु में रहने-वाली, स्वरूप-अस्तित्व को सूचित करने-वाली अवान्तर-सत्ता (विशेष-सत्ता) है ।
- वहाँ महा-सत्ता अवांतर-सत्ता रूप से असत्ता है इसलिए सत्ता को असत्ता है (अर्थात जो सामान्य-विशेषात्मक सत्ता महासत्ता-रूप होने से 'सत्ता' है वही अवांतर-सत्ता-रूप भी होने से 'असत्ता' भी है)
- जिस स्वरूप से उत्पाद है उसका (उस स्वरूप का) उस-प्रकार से उत्पाद एक ही लक्षण है, जिस स्वरूप से व्यय है उसका (उस स्वरूप का) उस-प्रकार से व्यय एक ही लक्षण है और जिस स्वरूप से ध्रौव्य है उसका (उस स्वरूप का) उस-प्रकार से ध्रौव्य एक ही लक्षण है इसलिए वस्तु के उत्पन्न होनेवाले, नष्ट होनेवाले और ध्रुव रहने वाले स्वरूपों से त्रिलक्षण का अभाव होने से त्रिलक्षणा (सत्ता) को अत्रिलक्षणपना है । (अर्थात जो सामान्य-विशेषात्मक सत्ता महा-सत्ता-रूप होने से 'त्रिलक्षणा' है वही यहाँ कही हुई अवान्तर-सत्ता-रूप भी होने से 'अत्रिलक्षणा' भी है)
- एक वस्तु की स्वरूप-सत्ता अन्य वस्तु की स्वरूप-सत्ता नहीं है इसलिए एक (सत्ता) को अनेकापना है । (अर्थात जो सामान्य-विशेषात्मक सत्ता महा-सत्ता-रूप होने से 'एक' है वही यहाँ कही हुई अवान्तर-सत्तारूप भी होने से 'अनेक' भी है)
- प्रतिनिश्चित (व्यक्तिगत निश्चित) पदार्थ में स्थित सत्ताओं द्वारा ही पदार्थों का प्रतिनिश्चितपना (भिन्न-भिन्न निश्चित व्यक्तित्व) होता है इसलिए सर्व-पदार्थ-स्थित (सत्ता) को एक-पदार्थ-स्थितपना है । (अर्थात जो सामान्य-विशेषात्मक सत्ता महा-सत्ता-रूप होने से 'सर्व-पदार्थ-स्थित' है वही यहाँ कही हुई अवान्तर-सत्तारूप भी होने से 'एक-पदार्थ-स्थित' भी है)
- प्रतिनिश्चित (एक-एक रूप-वाली) सत्ताओं द्वारा ही वस्तुओं का प्रतिनिश्चित एक-एकरूप होता है इसलिए सविश्वरूप (सत्ता) को एक-रूपपना है (अर्थात जो सामान्य-विशेषात्मक सत्ता महा-सत्ता-रूप होने से 'सविश्वरूप' है वही यहाँ कही हुई अवान्तर-सत्ता-रूप भी होने से 'एक-रूप' भी है)
- प्रत्येक पर्याय में स्थित (व्यक्तिगत भिन्न भिन्न) सत्ताओं द्वाराही प्रतिनिश्चित एक-एक पर्यायों का अनंत-पना होता है इसलिए अनन्त-पर्यायमय (सता) को एक-पर्यायमयपना भी है (अर्थात जो सामान्य-विशेषात्मक सत्ता महा-सत्ता-रूप होने से 'अनन्त-पर्याय-मय' है वही यहाँ कही हुई अवान्तर-सत्ता-रूप भी होने से 'एक-पर्याय-मय' भी है)
इसप्रकार सब निर्वद्य है (अर्थात ऊपर कहा हुआ सर्व स्वरूप निर्दोष है, निर्बाध है, किंचित विरोध-वाला नहीं है) क्योंकि उसका (सता स्वरूप का) कथन सामान्य और विशेष के प्रारूपण की ओर ढलते हुए दो नयों के अधीन है ॥८॥
*सत्ता भाव है और वस्तु भाव-वान है