GP:प्रवचनसार - गाथा 101 - तात्पर्य-वृत्ति - हिंदी
From जैनकोष
[उप्पादट्ठिदिभंगा] विशुद्ध ज्ञान-दर्शन स्वभाव आत्मतत्त्व का निर्विकार स्वसंवेदनज्ञानरूप से उत्पाद, उसी समय स्वंसवेदनज्ञान से विपरीत अज्ञानपर्यायरूप से व्यय तथा उन दोनों के आधारभूत आत्मद्रव्यत्व की अवस्थारूप से स्थिति - इसप्रकार कहे गये लक्षण वाले तीनों भंगरूप कर्ता- इस वाक्य में कर्ता कारक में प्रयुक्त ये तीनों [विज्जंते] होते हैं । ये तीनों किनमें होते हैं? [पज्जएसु] सम्यक्त्व पूर्वक निर्विकार स्वसंवेदनज्ञानपर्याय में उत्पाद होता है, तब स्वसंवेदनज्ञान से विपरीत अज्ञान पर्यायरूप से व्यय और उन दोनों के आधारभूत आत्मद्रव्यत्व की अवस्थारूप पर्याय से धौव्य - इसप्रकार कहे गये लक्षण वाली अपनी- अपनी पर्यायों में वे सब रहते हैं । [पज्जाया दव्वं हि संति] वे कहे गये लक्षणवाली ज्ञान, अज्ञान और उन दोनों के आधारभूत आत्मद्रव्यत्व की अवस्थारूप पर्यायें स्पष्टरूप से द्रव्य हैं । [णियदं] प्रदेशों का अभेद होने पर भी अपने- अपने संज्ञा, लक्षण, प्रयोजन आदि के भेद से वे वास्तव में द्रव्य हैं । [तम्हा दव्वं हवदि सव्वं] क्योंकि उत्पादादि निश्चय आधार- आधेय भाव से रहते हैं उसकारण उत्पादादि तीनों और स्वसंवेदनज्ञानादि तीनों पर्यायें-ये सभी अन्वय-द्रव्यार्थिकनय से सर्व द्रव्य हैं ।
पूर्वोक्त उत्पादादि तीनों और उसीप्रकार स्वसंवेदनज्ञानादि तीनों पर्यायों का साथ-साथ रहने वाला अन्वयरूप से जो आधारभूत है, वह अन्वय द्रव्य कहा गया है, वह जिसका विषय होता है, वह अन्वय द्रव्यार्थिकनय है । जैसे यह ज्ञान-अज्ञान दो पर्यायों में (उत्पादाकि) तीनों भंगों का व्याख्यान किया गया है उसीप्रकार सभी द्रव्य-पर्यायों में यथासंभव जानना चाहिये - ऐसा अभिप्राय है ॥१११॥