GP:प्रवचनसार - गाथा 116 - तात्पर्य-वृत्ति - हिंदी
From जैनकोष
[एसो त्ति णत्थि कोई] टाँकी से उकेरे हुये के समान ज्ञायक एक स्वभावी परमात्मद्रव्य के सदृश संसार में मनुष्यादि पर्यायों में से 'हमेशा ही यह एकरूप ही नित्य है' - ऐसा कोई भी नहीं है । तो मनुष्यादि पर्यायों को रचनेवाली संसार सम्बन्धी क्रिया- वह भी नहीं होगी? [ण णत्थि किरिया] मिथ्यात्व, रागादि परिणतिरूप संसार-क्रिया नही है- ऐसा नहीं है; अपितु चार पर्यायरूप क्रिया है ही । और वह क्रिया कैसी है? [सभावणिव्वत्ता] शुद्धात्म-स्वभाव से विपरीत होने पर भी मनुष्य नारकी आदि विभाव पर्याय स्वभाव से रची हुई है- उसरूप है । तो क्या वह क्रिया निष्फल होगी? [किरिया हि णत्थि अफला] वह मिथ्यात्व रागादि परिणति रूप क्रिया, यद्यपि अनन्तसुख आदि गुणस्वरूप मोक्षरूपी कार्य के प्रति निष्फल है; तथापि अनेक प्रकार के दुखों को देनेवाली, अपने कार्यरूप मनुष्य आदि पर्यायों को रचने वाली होने से सफल-फल सहित ही है, पर्यायों की उत्पत्ति ही उसका फल है । यह कैसे जाना जाता है? यदि ऐसा कहो तो कहते हैं- [धम्मो जदि णिप्फलो परमो] राग रहित परमात्मा की प्राप्तिरूप से परिणत अथवा आगम भाषा से परम यथाख्यात चारित्ररूप परिणत जो वह उत्कृष्टधर्म है - वह केवलज्ञान आदि अनन्तचतुष्टय की प्रगटतारूप कार्य समयसार को उत्पन्न करने वाला होने से फल सहित होने पर भी मनुष्य, नारकी आदि पर्यायों के कारणभूत ज्ञानावरणादि कर्मों के बन्ध को उत्पन्न नहीं करता है, इसलिये निष्फल-फल रहित है । इससे जाना जाता है कि मनुष्य नारकी आदि संसाररूपकार्य मिथ्यात्व रागादि क्रियाओं के फल हैं ।
अथवा इस गाथा का दूसरा अर्थ करते हैं- जैसे यह जीव शुद्धनय से रागादिविभावरूप परिणमित नहीं होता है, वैसे ही अशुद्धनय से भी परिणमित नहीं होता है- ऐसा जो सांख्यमत के द्वारा कहा गया है, उसका निराकरण किया है । इससे उनका निराकरण कैसे किया है? इसका उत्तर देते हैं- अशुद्धनय से मिथ्यात्व रागादि विभावरूप परिणत जीवों के मनुष्य, नारकी आदि पर्यायों रूप परिणति दिखाई देने के कारण वे इसरूप परिणमित होते है- यह स्पष्ट हुआ - इससे उनका निराकरण हो गया ॥१२६॥