GP:प्रवचनसार - गाथा 117 - तत्त्व-प्रदीपिका - हिंदी
From जैनकोष
क्रिया वास्तव में आत्मा के द्वारा प्राप्य होने से कर्म है, (अर्थात् आत्मा क्रिया को प्राप्त करता है—पहुँचता है—इसलिये वास्तव में क्रिया ही आत्मा का कर्म है ।) उसके निमित्त से परिणमन को प्राप्त होता हुआ (द्रव्य-कर्मरूप से परिणमन करता हुआ) पुद्गल भी कर्म है । उस (पुद्गलकर्म) की कार्यभूत मनुष्यादि-पर्यायें मूलकारणभूत ऐसी जीव की क्रिया से प्रवर्तमान होने से क्रियाफल ही हैं; क्योंकि क्रिया के अभाव में पुद्गलों को कर्मपने का अभाव होने से उस (पुद्गलकर्म) की कार्यभूत मनुष्यादि-पर्यायों का अभाव होता है ।
वहाँ, वे मनुष्यादि-पर्यायें कर्म के कार्य कैसे हैं? (सो कहते हैं कि) वे कर्म-स्वभाव के द्वारा जीव के स्वभाव का पराभव करके की जाती हैं, इसलिये; दीपक की भाँति । यथा :- ज्योति (लौ) के स्वभाव के द्वारा तेल के स्वभाव का पराभव करके किया जानेवाला दीपक ज्योति का कार्य है, उसीप्रकार कर्म-स्वभाव के द्वारा जीव के स्वभाव का पराभव करके की जाने वाली मनुष्यादि पर्यायें कर्म के कार्य हैं ॥११७॥