GP:प्रवचनसार - गाथा 119 - तत्त्व-प्रदीपिका - हिंदी
From जैनकोष
प्रथम तो यहाँ न कोई जन्म लेता है और न मरता है (अर्थात् इस लोक में कोई न तो उत्पन्न होता है और न नाश को प्राप्त होता है) । और (ऐसा होने पर भी) मनुष्य-देव-तिर्यंच-नारकात्मक जीवलोक प्रतिक्षण परिणामी होने से क्षण-क्षण में होने वाले विनाश और उत्पाद के साथ (भी) जुड़ा हुआ है । और यह विरोध को प्राप्त नहीं होता; क्योंकि उद्भव और विलय का एकत्व है तब पूर्वपक्ष है, और जब अनेकत्व है तब उत्तरपक्ष है। (अर्थात्—जब उत्पाद और विनाश के एकत्व की अपेक्षा ली जाये तब यह पक्ष फलित होता है कि—‘न तो कोई उत्पन्न होता है और न नष्ट होता है’; और जब उत्पाद तथा विनाश के अनेकपने की अपेक्षा ली जाये तब प्रतिक्षण होने वाले विनाश और उत्पाद का पक्ष फलित होता है ।) वह इस प्रकार है :—
जैसे :—‘जो घड़ा है वही कूँडा है’ ऐसा कहा जाने पर, घड़े और कूँडे के स्वरूप का एकपना असम्भव होने से, उन दोनों की आधारभूत मिट्टी प्रगट होती है, उसी प्रकार ‘जो उत्पाद है वही विनाश है’ ऐसा कहा जाने पर उत्पाद और विनाश के स्वरूप का एकत्व असम्भव होने से उन दोनों का आधारभूत ध्रौव्य प्रगट होता है; इसलिये देवादिपर्याय के उत्पन्न होने और मनुष्यादिपर्याय के नष्ट होने पर, ‘जो उत्पाद है वही विलय है’ ऐसा मानने से (इस अपेक्षा से) उन दोनों का आधारभूत ध्रौव्यवान् जीवद्रव्य प्रगट होता है (लक्ष में आता है) इसलिये सर्वदा द्रव्यपने से जीव टंकोत्कीर्ण रहता है ।
और फिर, जैसे—‘अन्य घड़ा है और अन्य कूँडा है’ ऐसा कहा जाने पर उन दोनों की आधारभूत मिट्टी का अन्यत्व (भिन्न-भिन्नपना) असंभवित होने से घड़े का और कूँडे का (दोनों का भिन्न-भिन्न) स्वरूप प्रगट होता है, उसी प्रकार ‘अन्य उत्पाद है और अन्य व्यय है’ ऐसा कहा जाने पर, उन दोनों के आधारभूत ध्रौव्य का अन्यपना असंभवित होने से उत्पाद और व्यय का स्वरूप प्रगट होता है; इसलिये देवादिपर्याय के उत्पन्न होने पर और मनुष्यादिपर्याय के नष्ट होने पर, ‘अन्य उत्पाद है और अन्य व्यय है’ ऐसा मानने से (इस अपेक्षा से) उत्पाद और व्यय वाली देवादिपर्याय और मनुष्यादिपर्याय प्रगट होती है (लक्ष में आती है); इसलिये जीव प्रतिक्षण पर्यायों से अनवस्थित है ॥११९॥