GP:प्रवचनसार - गाथा 135 - तत्त्व-प्रदीपिका - हिंदी
From जैनकोष
जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश अनेक प्रदेश वाले होने से प्रदेशवान् हैं । कालाणु प्रदेशमात्र (एकप्रदेशी) होने से अप्रदेशी है ।
(उपरोक्त बात को स्पष्ट करते हैं :—)
- संकोच-विस्तार के होने पर भी जीव लोकाकाश तुल्य असंख्य प्रदेशों को नहीं छोड़ता, इसलिये वह प्रदेशवान् है;
- पुद्गल यद्यपि द्रव्य अपेक्षा से प्रदेशमात्र (एकप्रदेशी) होने से अप्रदेशी है तथापि, दो प्रदेशों से लेकर संख्यात, असंख्यात, और अनन्तप्रदेशों वाली पर्यायों की अपेक्षा से अनिश्चित प्रदेश वाला होने से प्रदेशवान् है;
- सकल लोकव्यापी असंख्य प्रदेशों के प्रस्ताररूप होने से धर्म प्रदेशवान है;
- सकललोकव्यापी असंख्यप्रदेशों के प्रस्ताररूप होने से अधर्म प्रदेशवान् है; और
- सर्वव्यापी अनन्तप्रदेशों के प्रस्ताररूप होने से आकाश प्रदेशवान् है ।
इसलिये कालद्रव्य अप्रदेशी है और शेष द्रव्य प्रदेशवान् हैं ॥१३५॥