GP:प्रवचनसार - गाथा 176 - अर्थ
From जैनकोष
[जीव:] जीव [येन भावेन] जिस भाव से [विषये आगत] विषयागत पदार्थ को [पश्यति जानाति] देखता है और जानता है, [तेन एव] उसी से [रज्यति] उपरक्त होता है; [पुन:] और उसी से [कर्म बध्यते] कर्म बँधता है;—[इति] ऐसा [उपदेश:] उपदेश है ।