GP:प्रवचनसार - गाथा 198 - तत्त्व-प्रदीपिका - हिंदी
From जैनकोष
जब यह आत्मा, जो सहज सुख और ज्ञान की बाधा के आयतन हैं (ऐसी) तथा जो असकल आत्मा में असर्वप्रकार के सुख और ज्ञान के आयतन हैं ऐसी इन्द्रियों के अभाव के कारण स्वयं 'अतीन्द्रिय' रूप से वर्तता है, उसी समय वह दूसरों को 'इन्द्रियातीत' (इन्द्रियअगोचर) वर्तता हुआ, निराबाध सहजसुख और ज्ञानवाला होने से 'सर्वबाधा रहित' तथा सकल आत्मा में सर्वप्रकार के (परिपूर्ण) सुख और ज्ञान से परिपूर्ण होने से 'समस्त आत्मा में संमत सौख्य और ज्ञान से समृद्ध' होता है । इस प्रकार का वह आत्मा सर्व अभिलाषा, जिज्ञासा और संदेह का असंभव होने पर भी अपूर्व और अनाकुलत्वलक्षण परमसौख्य का ध्यान करता है; अर्थात् अनाकुलत्वसंगत एक 'अग्र' के संचेतनमात्ररूप से अवस्थित रहता है, (अर्थात् अनाकुलता के साथ रहने वाले एक आत्मारूपी विषय के अनुभवनरूप ही मात्र स्थित रहता है) और ऐसा अवस्थान सहजज्ञानानन्दस्वभाव सिद्धत्व की सिद्धि ही है (अर्थात् इस प्रकार स्थित रहना, सहजज्ञान और आनन्द जिसका स्वभाव है ऐसे सिद्धत्व की प्राप्ति ही है । )
अब, यह निश्चित करते हैं कि -- 'यही (पूर्वोक्त ही) शुद्ध आत्मा की उपलब्धि जिसका लक्षण है, ऐसा मोक्ष का मार्ग है'