GP:प्रवचनसार - गाथा 203 - अर्थ
From जैनकोष
[श्रमणं] जो श्रमण है, [गुणाढ्यं] गुणाढ्य है, [कुलरूपवयो विशिष्टं] कुल, रूप तथा वय से विशिष्ट है, और [श्रमणै: इष्टतरं] श्रमणों को अति इष्ट है [तम् अपि गणिनं] ऐसे गणी को [माम् प्रतीच्छ इति] 'मुझे स्वीकार करो' ऐसा कहकर [प्रणत:] प्रणत होता है (प्रणाम करता है) [च] और [अनुग्रहीत:] अनुगृहीत होता है ॥२०३॥