GP:प्रवचनसार - गाथा 213 - अर्थ
From जैनकोष
[अधिवासे] अधिवास में (आत्म-वास में अथवा गुरुओं के सहवास में) वसते हुए [वा] या [विवासे] विवास में (गुरुओं से भिन्न वास में) वसते हुए, [नित्यं] सदा [निबंधान्] (परद्रव्य-सम्बन्धी) प्रतिबंधों को [परिहरमाण:] परिहरण करता हुआ [श्रामण्ये] श्रामण्य में [छेदविहीन: भूत्वा] छेद-विहीन होकर [श्रमण: विहरतु] श्रमण विहरो ॥२१३॥