GP:प्रवचनसार - गाथा 215 - अर्थ
From जैनकोष
[भक्ते वा] मुनि आहार में, [क्षपणे वा] क्षपण में (उपवास में), [आवसथे वा] आवास में (निवास-स्थान में), [पुन: विहारे वा] और विहार में [उपधौ] उपधि में (परिग्रह में), [श्रमणे] श्रमण में (अन्य मुनि में) [वा] अथवा [विकथायाम्] विकथा में [निबद्धं] प्रतिबन्ध [न इच्छति] नहीं चाहता ॥२१५॥