GP:प्रवचनसार - गाथा 218 - अर्थ
From जैनकोष
[अयताचार: श्रमण:] अप्रयत आचारवाला श्रमण [षट्सु अपि कायेषु] छहों काय संबंधी [वधकर:] वध का करने वाला [इति मत:] मानने में—कहने में आया है; [यदि] यदि [नित्यं] सदा [यतं चरति] प्रयतरूप से आचरण करे तो [जले कमलम् इव] जल में कमल की भाँति [निरुपलेप:] निर्लेप कहा गया है ।