GP:प्रवचनसार - गाथा 220 - अर्थ
From जैनकोष
[निरपेक्ष: त्याग: न हि] यदि निरपेक्ष (किसी भी वस्तु की अपेक्षारहित) त्याग न हो तो [भिक्षो:] भिक्षु के [आशयविशुद्धि:] भाव की विशुद्धि [न भवति] नहीं होती; [च] और [चित्ते अविशुद्धस्य] जो भाव में अविशुद्ध है उसके [कर्मक्षय:] कर्मक्षय [कथं नु] कैसे [विहित:] हो सकता है?