GP:प्रवचनसार - गाथा 224.5 - अर्थ
From जैनकोष
इस जीव-लोक में नारी एक भी दोष के बिना नहीं है, तथा उसके अंग भी संवृत (ढंके हुए) नहीं हैं, इसलिए उनके आवरण (वस्त्र) हैं ॥२४८॥
इस जीव-लोक में नारी एक भी दोष के बिना नहीं है, तथा उसके अंग भी संवृत (ढंके हुए) नहीं हैं, इसलिए उनके आवरण (वस्त्र) हैं ॥२४८॥