GP:प्रवचनसार - गाथा 228 - अर्थ
From जैनकोष
[केवलदेह: श्रमण:] केवलदेही (जिसके मात्र देहरूप परिग्रह वर्तता है, ऐसे) श्रमण ने [देहे] शरीर में भी [न मम इति] 'मेरा नहीं है' ऐसा समझकर [रहितपरिकर्मा] परिकर्म (श्रंगार) रहित वर्तते हुए, [आत्मनः] अपने आत्मा की [शक्तिं] शक्ति को [अनिगूह्य] छुपाये बिना [तपसा] तप के साथ [तं] उसे (शरीर को) [आयुक्तवान्] युक्त किया (जोड़ा) है ।