GP:प्रवचनसार - गाथा 255 - अर्थ
From जैनकोष
[इह नानाभूमिगतानि बीजानि इव] जैसे इस जगत में अनेक प्रकार की भूमियों में पड़े हुए बीज [सस्यकाले] धान्यकाल में विपरीतरूप से फलते हैं, उसी प्रकार [प्रशस्तभूतः राग:] प्रशस्तभूत राग [वस्तुविशेषेण] वस्तु-भेद से (पात्र भेद से) [विपरीतं फलति] विपरीतरूप से फलता है ।